गुरु का दर्शन गुरु कृपा से मिलता है।
गुरु भक्ति, गुरु श्रद्धा भी गुरुकृपा से ही होती है।
प्रभु का दर्शन भी गुरु कृपा से मिलता है।
प्रभु भक्ति, प्रभु श्रद्धा भी गुरुकृपा से ही मिलती है।
आत्मा का दर्शन आत्मस्थ होने से मिलता है।
परमात्मा के निकटस्थ होने से मिलता है।
अत: आपने ही हे गुरुदेव!
मुझे गुरू से प्रभु और प्रभु से निज
शुद्ध आत्मा तक पहुँचाया है।
“पर के कर्ता कभी न बनते, निज भावों के कर्ता हैं।
शरणागत के दु:ख दूरकर, भय संकट के हर्ता हैं।
चउ आराधन आराधक गुरु, स्वात्म चतुष्टय वासी हैं।
शिष्य आपसे कुछ ना चाहे, मात्र कृपा अभिलाषी है।।''