हीयमान इस अवसर्पिणी काल में भी,
आप सदा वर्धमान से लगते हैं।
भीड़ में रहते हुए भी,
सदा निजात्म में रहते हैं।
ऐसे गुरु के आधार बिन,
जीवन अधूरा ही रहता है।
चाहे कितना ही यश मिल जाये बाहर में,
पर गुरु बिन अंदर में खलता है।
ज्यों सीप बिन जल बिंदु,
मोती रूप नहीं होता।
त्यों शुरु बिन जीवन भी,
शुरू नहीं होता।
"मेरे गुरु साक्षात धरा पर, वर्धमान से लगते हैं।
विहार में ऋद्धीधारी सम, भक्त सभी यह कहते हैं।।
अग्निभूति गौतम ने भी गुरू, वीर प्रभु को माना था।
क्योंकि उन्हें भी महावीर सा, अविनाशी पद पाना था।।"