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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. कहाँ तो आप... निरंतर परमात्मा से बात करने वाले, और कहाँ मैं.. संसारी जीवों से मुलाकात करने वाला, फिर भी आपने मुझ पर करुणा बरसाई, मुझे स्वयं से बात करने योग्य बनाया। किया परम उपकार, सोते से मुझे जगाकर, धन्य हुआ में आपको पाकर। “तीन लोक की संपद देकर, नहीं उपकार चुका सकते। अविरल बहती इस गंगा को, कोई नहीं रुका सकता।। कहने वालों कुछ भी कह दो, ये तो विद्यासागर हैं। ज्ञानानंदी आतमवासी, गुणसागर रत्नाकर हैं।।” आर्यिका पूर्णमती माताजी
  2. जब आपके गुणसागर में प्रवेश पाता हूँ, तो स्वयं से दूर हो जाता हूँ। फिर भी बहुत आनंद पाता हूँ, क्योंकि आपके समीप रहता हूँ। मुझको मेरे निकट लाने वाले भी तो आप हैं, सच आप अनाथों के नाथ हैं। आपके चरणों में मम माथ है। ‘‘सरल स्वभावी मेरे गुरुवर, बालक सा मन निश्चल है। सागर से गहरे, सुमेरु सम उन्नत और अविचल हैं।। त्रयगुप्ति बारह तपधारी, दश धर्मों को धार रहे। षट् आवश्यक पंचाचारी, गुरुवर भव से पार करें।।” आर्यिका पूर्णमती माताजी
  3. आप जो कुछ कहते हैं, पहले उसका अनुभव करते हैं, हृदय से नि:सृत आपकी वाणी, अनुभूति की स्याही से लिखी गई परम प्रमाणी है, इसीलिए आप जन-जन के श्रद्धापात्र हैं। मन में सहजता, वचन में सरलता, काया में सजगता, और आत्मा में समता का भरा पात्र हैं। जो आता है शरण उसे आप समरस पिलाते हैं, इसीलिए तो धरती के आप देवता कहलाते हैं। “कर्ण कुहर में गूँज रही है, श्री गुरुवर की दिव्यध्वनि। दो नयनों में समा गई है, श्री गुरुवर की दिव्य छवि।। हृदयवेदि पर हुई प्रतिष्ठित, विद्यागुरु की मूरत है। श्रद्धा से देखूँ तो गुरु में, लगती प्रभु की सूरत है।।'' आर्यिका पूर्णमती माताजी
  4. जल में गिरे तेल को, संपर्क कहा जाता है। जल में गिरने वाले पाषाण को, संघर्ष कहा जाता है। किंतु दीप में पड़ी बाती को, कहते हैं दिव्य संगम, और दूध में मिलने वाले पानी को, कहते हैं संबंध... मोक्ष पाने तक आप ही रहे गुरु मेरे, जिससे मिट जाये शीघ्र भव–भव के फेरे! “मैंने जीवन नैया गुरुवर, आप भरोसे छोड़ी है। जहाँ जिस दिशा में ले जाओ, गुरु आपकी मरजी है।। मिला क्षीर में नीर जिस तरह, दीपक में ज्यों बाती है। नंत काल संबंध रहे गुरु, यही शिष्य की अरजी है।” आर्यिका पूर्णमती माताजी
  5. ज्ञान का दीप जलाकर, गंतव्य पथ दिखाकर, करा देते हो कर्त्तव्य बोध, फिर कितना ही हो घना तमस बाहर, भक्त चलता चला जाता है... अंतर्प्रकाश पाकर! मिल जाती है... उसे अपनी अंतिम मंज़िल! “अंधकार में दीप जलाकर, तुरत बुझा क्यों देते हो। राह दिखाकर निजाधीन कर, अति निर्भय कर देते हो। चलो स्वयं एकाकी होकर, अपनी मंज़िल स्वयं वरो। गुरुवर विद्यासागर कहते, भगवत् पद को प्राप्त करो।” आर्यिका पूर्णमती माताजी
  6. स्वयं को कृतकृत्य करने वाली, शरणागत के दुष्कृत्य मिटाने वाली, गुरूणाम् गुरु ने जो कृति रची, आप भी न रच पाये, रचते भी कैसे, लाते भी कहाँ से, अपने जैसे विद्यासागर को, विनीत विनम्र विद्याधर को, आपसा कोई नहीं जहाँ में, अति दुर्लभ है दर्शन जिनका ऐसे गुरु को पाऊँ कहाँ मैं। “ज्ञानसिंधु की चेतना कृति यह, सबको प्यारी लगती है। चर्म नयन बिना ज्ञान नयन से, दुनिया इनको पढ़ती है।। मोक्षपंथ का दिशाबोध दें, दीक्षा देकर तार रहे। गुरुवर विद्यासागर पद में, वंदन बारंबार रहे॥” आर्यिका पूर्णमती माताजी
  7. भक्तों के ग्रह आपके चरण पड़े, और उन्हें आहार का लाभ मिला। मेरे चेतन गृह में आपश्री के चरण पड़े, और मुझे आत्म विहार का लाभ मिला। लेकिन … जब आत्मविहार कर मैं बाहर आया, तो गुरुदर्श बिन ... नीर बिन मीन सम तड़पता रहा, आपको खोजता रहा। “चउ उपसर्ग परिषह बाईस, जीत रहे अंतर्यात्री। शिव पथगामी स्वातम बोधी, करपात्री गुरु पदयात्री।। निश्चय स्वातम रस के भोगी, शुद्धातम में लीन रहें। भक्त दर्श को रहे तड़पते, नीर बिना जो मीन रहे।।'' आर्यिका पूर्णमती माताजी
  8. आपने गुरु ज्ञानसागर से पाया दिगम्बरत्व, किंतु स्व पुरुषार्थ से हुए निर्ममत्व, तभी कदम-कदम पर मूलाचार की चर्या, और समय-समय पर समयसार की चर्चा, न्यायप्रिय वचन अध्यात्म की भाषा, आत्मा के असंख्य प्रदेशों में, मात्र मुक्ति की अभिलाषा, यही है आपका संक्षिप्त परिचय, लक्ष्य है मुक्तिरमा से परिणय। “मूलाचार दिखे चर्या में, समयसार का चिंतन हैं। न्याय शास्त्र जिनके वचनो में, आध्यात्मिक ही जीवन है।। पाने में ना प्रसन्न रहते, खोने में ना खिन्न रहे। सब संतो में मेरे गुरुवर, विद्यासागर भिन्न रहे।।" आर्यिका पूर्णमती माताजी
  9. जग के सारे समन्दर की गहराई को, जोड़ने से भी अधिक गहराई है आपमे। निज उपयोग को सूक्ष्म करके ज्ञानसागर में डुबकी लगाकर, मौलिक रत्नत्रय के मोती पाये हैं आपने। मोती किसी को दिखने में भी नहीं आते, मात्र दिखती है, झलकती है उसकी आभा। जिसकी आभा इतनी अनुपम तो, वह रत्नत्रय के मोती कितने सुंदर होंगे, और वह मोती है पास जिनके, ऐसे गुरुदेव कितने पावन होंगे। "विधार्णव गंभीर गहन हैं, थाह न कोई पा सकता। गुणानुवाद का अभिप्राय हैं, मेरा मन भी ना थकता।। अलंकार भाषाविद् ना हूँ, भक्ति भाव की हैं भाषा। सभी जानते गुरुवर तुम तो, क्या हैं मेंरी अभिलाषा।।" आर्यिका पूर्णमती माताजी
  10. जबसे आप मिले, मैं अकेला हो गया। कितना अच्छा हुआ, जो मुझे मेरा भान हो गया, पहले आप हैं मेरे अपने, फिर है यह निजात्मा, आप न होते तो, स्वात्म को कहाँ जान पाते, शुद्धात्म को कहाँ पहचान पाते, अनमोल निधि दी है आपने, भगवान होने की विधि बता दी है आपने। “विधासागर गुरू ना मिलते, भव वन में भ्रमते रहते। वन में तन्मय होकर हम यूं, मृतक समान पडे रहते।। अनंत जीवन अर्पण कर दूँ, फिर भी ऋण ना चुक सकता। हैं अनंत उपकार गुरु का, चरण कमल द्वय में नमता।।” आर्यिका पूर्णमती माताजी
  11. जब मैं आपको प्रभु मानकर भक्ति करता हूँ तो, मुझे बहुत अच्छा लगता है, आप अपने में मगन रहते हैं, और मैं आपकी भक्ति में मगन, लेकिन जब आपको गुरू मानकर भक्ति करता हूँ तो आप, मेरी भक्ति, पूजा के बीच में ही उठकर चले जाते हैं, जिससे मैं दु:खी हो जाता हूँ, आपकी भक्ति गुरु मानकर करू या प्रभु मानकर, यह विचार करता रहता हूँ, और आपकी भक्ति में डूबा रहता हूँ। "मीन नीर बिन रह सकता और श्वास बिना तन रह सकता। किंतु गुरु भक्ति बिन मन ये, नहीं एक पल रह सकता।। जिनने निज का ज्ञान कराया, वह गुरू प्रभु से बढ़कर हैं। दीया जलाकर दिया गुरु ने, परम हितैषी गुरूवर हैं।।" आर्यिका पूर्णमती माताजी
  12. ?संत शिरोमणि स्वर्णिम राष्ट्रीय संगोष्ठी ( उत्तराध )? ????????? ✋?आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के आशीर्वाद से✋? ?दिनांक ६ अप्रैल से ८ अप्रैल २०१८ ⛳पावन सान्निध्य⛳ पूज्य मुनि श्री १०८ समतासागर जी महाराज पूज्य ऐलक श्री १०५ निश्चय सागर जी महाराज ? सभी बाल ब्रम्हचारी, स्वाध्यायी, व्रती एवं बहनों की ऐतिहासिक संगोष्ठी? ?स्थान : श्री १००८ दि. जैन मंदिर घाटोल जिला बांसवाड़ा ( राज. ) ?आयोजक : सकल दि. जैन समाज घाटोल ☀?
  13. जैसे पराये लोगों के आलीशान गृह में, विशेष सुविधाओं के साथ रहने पर भी, वह सुख नहीं होता जो निजी छोटी सी झोपड़ी में, सामान्य सुविधाओं के साथ रहने पर होता है वैसे मुझे भी दुनिया के लोग कितना ही चाहें, वात्सल्य दें, उसमें वह सुख नहीं होता जो आपश्री की मात्र एक मुस्कान भरी आत्मीय झलक को पाकर होता है। हे मेरे परम समीप...सदा मुझमें निवास करना। मुझे सदा अपना समझकर आत्मीय वात्सल्य देते रहना। "आदिनाथ से वीरप्रभु तक, बही ज्ञान की धारा है। कुंद-कुंद धरसेन गणी ने , कई भव्यों को तारा हैं।। शांति वीर शिव ज्ञानसिंधु से, विद्यासागर आप हुए। स्वात्म असंख्य प्रदेशों में मम, श्रद्धा से गुरू व्याप्त हुए।।" आर्यिका पूर्णमती माताजी
  14. आप पंचम युग में इस धरती पर अवतरित हुए, क्योंकि हम गिरते हुए को बचाना था। आपने अपने बंद नयन खोले, क्योंकि हमें आत्मदर्शन कराना था। आपने अपने बंद अधर खोले, क्योंकि हम प्यासों को जिनवाणी का रस पिलाना था। “अनेक को मुनि दीक्षा देकर, अर्हत लिंगी बना दिया। आर्यिका व्रत देकर गुरु ने, शाश्वत शिवपथ दिखा दिया।। ऐलक क्षुल्लक व्रती बनाकर, विधा धन को बाँट रहे। इसीलिए गुरु विधासागर, जन-जन के सम्राट हुए।।" आर्यिका पूर्णमती माताजी
  15. यदि कीचड़ से गंदे पैरों को धोने के लिए नीचे झुकना ही पड़ता है तो कर्मों से मैली आत्मा को धोने के लिए आपके चरणों में क्यों न झुकूँ? यदि किसी से बदला लेने के लिए उसके दोषों का सुमिरन करना ही पड़ता है तो मैं अपनी सिद्धदशा को पाने के लिए आपही का सुमिरन क्यों न करूँ? "गुरुवर का जब विहार होता, चमत्कार हो जाता हैं। जाति-पाति का भेद मिटाकर, जनमानस खो जाता है।। श्वास रहेगी जब तक तन में, गुरू सुमिरन कर सुख पाऊँ। गुरु का भगवत रूप देखकर, निज स्वरुप को पा जाऊँ।।" आर्यिका पूर्णमती माताजी
  16. आप अंतर्मुख होकर, क्या करते हो? किसी से कुछ नहीं कहते हो! अकेले ही अकेले में, निज में केलि करते हो “ज्ञान गुफा में एक अकेले, अहो आत्म केलि करते। अपने ही परमात्मा रूप को, नित्य निरखते ही रहते।। मुकुरिमा के भावी स्वामी, होने से आनंदित हैं। यह आनंद प्राप्त करने को, मेरा हदय प्रतीक्षित है।।” आर्यिका पूर्णमती माताजी
  17. कभी-कभी ऐसा लगता है कि भक्त आपके दर्शन के लिए संकेत की बाट जोहते रहते हैं, आपके दर्शन को तड़पते रहते हैं, फिर भी आप निज दर्शन में लगे रहते हैं, अपने ज्ञान की बस्ती में मस्त रहते हैं, क्या आपको इन भक्तों की पीड़ा, वेदना और उनकी तीव्र प्यास का अहसास नहीं होता! लगता है अब आप भगवान होने के निकट हैं, तभी तो उनके दुःख का ख्याल ही नहीं रहता, भावना है आप शीघ्र भगवान बनें फिर हम स्वतंत्रता से आपके जी भर दर्शन करें, न आप रोकें न हम रुकें हम भी आप सम निजानंद रस चखें। “ज्ञान देवता गुरुवर से यह, मन मिलने को आतुर हैं। यह अधीर मन कहता हैं सच, निज दर्शन को व्याकुल है। मन दर्पण में भूतकाल की, स्मृतियाँ सारी अंकित हैं। मेंरी श्रद्धा की श्वासों में, गुरुवर के गुण गुंजित हैं।।" आर्यिका पूर्णमती माताजी
  18. जब शिष्य आपका स्नेह पाता है, तब आपका ही हो जाता है। जब वह प्रभु भक्ति में रम जाता है, तब जिन प्रभु का हो जाता है। पर जब आपके कृपाप्रसाद से, स्वानुभव में रम जाता है, तब वह निजप्रभु मय हो जाता है। “जीवन के कोरे कागज पर, यदि गुरु के हस्ताक्षर हो । पामर भी फिर पावन बनता, बन जाता परमेशश्वर वो।। नीर-क्षीर में मिलकर के ज्यों, मूल्यवान बन जाता है। गुरु चरणों में अज्ञानी त्यों, ज्ञानवान बन जाता है।।” आर्यिका पूर्णमती माताजी
  19. जो हेय हैं... उन्हें मैं पूर्ण रूप से छोड़ सकूँ, ऐसी मुझमें दृढ़ विरक्ति नहीं, और जो उपादेय हैं... उन्हें मैं पूर्ण रूप से अपना सकूँ, ऐसी भी मुझमें दृढ़ अनुरक्ति नहीं, लेकिन दृढ़ श्रद्धा मेरे पास है कि, ये सब कुछ मैं कर सकता हूँ। मेरी श्रद्धा की अभिव्यक्तियों में, सहायता करिये गुरुदेव! “प्रथम भक्त बनता है मानव, तभी शिष्य बन पाता है। तरु पर लगते फुल प्रथम ही, अंतिम में फल आता है।। शिष्य दशा से सिद्धालय को, मुझको निश्चित पाना है। असंख्य आतम के प्रदेश में, विधा दीप जलाना है।।” आर्यिका पूर्णमती माताजी
  20. आपके दर्शन से मुझमें गति आई है, पर अब तो मुझे प्रगति करना है। और प्रगति करके सद्गगति पाना है। आपके गुणों के चिन्तन से विचारों में बदलाहट आई है, पर अब तो मुझे विचारधारा को ही बदलना है। निर्विचार जीवन पाना है। सिर्फ आपकी अनुकंपा चाहिए। आपकी जरा सी कृपा चाहिए। “गुरु सन्निधि में बीते जो क्षण, शिष्य संजोये रखता है। सुधियों के गहरे सागर में, सदा डुबो ये रखता है।। मन दर्पण में गुरु की छवि को, सदा बसाये रखना है। कर्म ताप से बचना है तो, गुरु भक्ति ना तजना है।।” आर्यिका पूर्णमती माताजी
  21. प्रथम आप शिष्यों की परिणति परखते हैं, तदुपरांत अपने पास रखते हैं, परिणाम बदलते हैं, तो परिणति भी बदलती है। परिणति बदलती है, तो अनुभूति भी बदलती है। और यह सब संभव है आपके समागम से, आपमें बसे जिनागम से, आपके भक्त हृदय में आगमन से। “विधालय में ज्ञान प्राप्ति के, बाद परीक्षा होती है। गुरु समीप में शिष्य जनों की, प्रथम परीक्षा होती है।। गुरुवर की हर बात अनोखी, ज्योतिर्पुंज दिवाकर है । वसुंधरा पे वर्धमान से, लगते विधासागर हैं।।” आर्यिका पूर्णमती माताजी
  22. कर्मों को मुझसे, पूर्व का हिसाब लेने की जल्दी है, तो मुझे भी हिसाब चुकाने की बेसब्री है। यह भावना... आपकी मधुर मुस्कान, आपके सांत्वना के दो शब्द, आपके नि:स्वार्थ वात्सल्य की नज़र ने ही, मुझे प्रदान की है। आप जैसे परम अंतरंग सखा गुरु, जब मुझे मिल ही गए हैं, तो अब कर्म शत्रु को निज गृह से बाहर कर, सिद्धालय जाने में देरी क्यों करूँ! आपने जो किया वह मैं भी करूँ। आखिर हूँ तो आपका ही ना..! “मिट्टी मंगल घट बन जाती, कुंभकार का हाथ रहे। अज्ञानी ज्ञानी बन जाता, यदि गुरुवर का साथ रहे।। मंगल घट सिर पर चढता है, शिष्य बसे रिद्धालय में। महाकृपालु श्री गुरुवर को, धारूँ निज ह्दयालय में ।।” आर्यिका पूर्णमती माताजी
  23. मैं लगा कर्म फलों के छिलके बटोरने में, तो छल से छला गया। मैं लगा कर्म फलों के दल पाने में, तो दल-दल में फंस गया। मैं लगा कर्म फलों के रस पीने में, तो तहस-नहस हो गया। अब चाहता हूँ... जीवन सफल हो! छिलका, दल, रस नहीं... सत् प्राप्त हो! हे सदलगा के सन्त! मुझे सत् दो... स्वभाव का सार दो! “सोच बड़ी गंभीर गुरु की, सागर के जैसे गहरी। सुमेरु सम उन्नत गुणवाले, गुरुवर आत्म सजग पहरी।। जिनका प्रवचन सुनकर लगता, तीर्थंकर की ध्वनि खीरी। नमन करूँ मैं मन वच वन से, संग ले चलो शिवनगरी।।” आर्यिका पूर्णमती माताजी
  24. आप सब कुछ देते ही देते हो, बदले में ना कुछ कहते हो ना कुछ लेते हो, आप सहज शिवपथ दिखला देते हो, नि:स्वार्थ ज्ञान देकर, आत्मिक सुख से भरपूर कर देते हो! आप सचमुच अनुपम दाता हो! शिष्य की सच्ची माता हो! दृष्टा हो, उसके ज्ञाता हो! “पात्र शिष्य को गुरु अपना पद, देने की इच्छा करते। ज्ञान भला फिर क्यों ना देंगे, शिष्यों के दुःख को हरते।। जैसे गौ निज शिशु के खातिर, प्राण त्याग सकती है। तो फिर दूध क्यों नहीं देगी, गुरु महिमा यह कहती है।” आर्यिका पूर्णमती माताजी
  25. निज गुणों से एकत्व, और पदार्थ से विभाक्त्व, निजात्मा को आप जानते हो, तभी तो... किसी को भक्त नहीं बनाते हो, शवणागत को संयम मंत्र दे, प्रभु पथ दिखला देते हो। सशक्त होकर पर से अनासक्त होकर, अपने आप में रम जाते हो, चाहे कोई कितना ही अमीर आये, चाहे कोई निर्धन आये, आप अपने में रहते हो। पर से पृथक्त्व रहते हो स्वभाव में रमते हो। “पत्थर की अचेत प्रतिमा को, सूरि मंत्र जब देते हैं। पूज्य बनाकर गुरु स्वयं ही, उन्हें नमन कर लेते हैं। शिष्य सचेतन श्री गुरुवर से, मंत्र प्राप्त कर लेता है। भविष्य में वह परम पूज्य पद, सिद्धदशा पा लेता है।'' आर्यिका पूर्णमती माताजी
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