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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. समयसार के महत्व को वही जान सकता है जो समय को जान लेता है। समय की कीमत समय (आत्मा) की कीमत जानने वाले को ही हो सकती है। जो समय (आत्मा) से अपरिचित है वह समय से भी अपरिचित है। समय की चिन्ता समय (आत्मा) की चिन्ता करने वालों को होती है। समय को व्यर्थ गमाने वाले कभी समय के, आत्मा के महत्व को नहीं समझ सकते। इस मिले हुये समय में यदि समय (आत्मा) से मिल लिया तो समझना फिर समय अपने से दूर नहीं। समय की पहचाने ही अपने आप की पहचान है। समय (आत्मा) को समय में कर्मों से नहीं बाँधना बल्कि प्राप्त समय में समय (आत्मा) से बंधे कर्मों को काटना है। उपलब्ध समय में समय (आत्मा) की पहचान कर लो। आज तक हमने अन्य सभी जड़ पदार्थों की कीमत की है। लेकिन अपने पास जो समय (आत्मा) को अनंत समय हो जाने पर भी प्राप्त नहीं कर पाये। समय की पहचान उसकी कीमत करने वाले के लिए, जिन्होंने समय की पहचान की है, कीमत की है उनको आदर्श बनाना आवश्यक हो जाता है। कुण्डलपुर में आचार्य श्री जी के पास एक सज्जन आये और वे कहने लगे कि महाराज यह पुस्तक कीमती है (लगभग 300/-) जो आपको पढ़ने के लिए लाये हैं। इस पुस्तक को आप अवश्य पढ़ियेगा। आचार्य श्री ने कहा कि इस पुस्तक से कीमती हमारा समय है। इस पुस्तक से कीमती हम अपना समय खर्च नहीं कर सकते। इससे ज्ञात होता है कि आचार्य श्री अपने समय को समय (आत्मा) की उपलब्धि में ही लगाने को कहते हैं, अन्य जगह नहीं। (कुण्डलपुर)
  2. यह उन दिनों की बात है, जब प्रकृति वाला प्रकृति को छोड़कर कहीं अन्यत्र चला गया। प्रकृति थी अमरकण्टक में और वह पेण्ड्रा गाँव चला गया। प्रकृति वाला प्रकृति से अलग होते ही बीमार पड़ गया या यूँ कहो प्रकृति को उनका अलग होना सहन नहीं हुआ जिससे उसने उनको बीमार कर दिया। बीमारी तो बीमारी होती है लेकिन जिसमें प्रकृति का हाथ हो उसका तो कहना ही क्या ? यहाँ पर तो ‘गुड़वेल और नीम चढ़ी'। अर्थात् गुड़वेल तो स्वभाव से कड़वी होती ही है और नीम पर चढ़ी हो तो कहना ही क्या? यही स्थिति उस रोग की थी। शुरूआत में उस रोग की प्रकृति ज्ञात नहीं हो पा रही थी। कई स्थानों से वैद्य एवं डॉक्टर्स का आना हुआ। इतना तक कि दूसरे प्रदेश से वायुमार्ग से भी डॉक्टर का आगमन हुआ। अतः ज्ञात हुआ कि यह रोग तो हरपिश है। जिसे हिन्दी में अग्निमाता के नाम से जानते हैं। डॉ0 का कथन था - यह रोग भयानक रोग माना जाता है। इस रोग की वेदना के बारे में मैं इतना ही कहूँगा कि घाव में सुई चुभाने से जितनी वेदना होती है उतनी इस रोग में हवा लगने से या भूमि का स्पर्श होने से होती है। उस वेदना को देखकर ऐसा लगता था मानो करूणा को भी दया आ गई हो। वेदना बहुत थी, साथ ही चातुर्मास की स्थापना का समय भी पास में ही था मुझे लगा कि अब चातुर्मास इसी गाँव में करना पड़ेगा। कुछ दिन बीतने के उपरान्त न जाने प्रकृति को क्या सूझा जो पचास कदम नहीं चलते वह पचास किलोमीटर चलने को कह रहे हैं। करते भी तो क्या जब प्रकृति को यही पसंद था। मुझे लगा जैसे प्रकृति बुला रही हो। आचार्य श्री जी ने कहा जो महाराज अस्वस्थ हैं वह सभी पास वाले कच्चे रास्ते से निकल जावे और स्वस्थ महाराज पक्के रास्ते से चलें विहार करते ही पानी बरसने लगा। एक वेदना तो यह थी कि आचार्य श्री चल ही नहीं पा रहे थे और दूसरी यह कि रास्ते में पानी भर गया। जबकि यह हवा पानी उस रोग को बढ़ाने में सहायक थे। इतनी वेदना और मौसम की प्रतिकूलता ने सभी लोगों की आखों में पानी ला दिया। सभी गुरुभक्त दर्शकों की आखों में भी पानी की धार निकल पड़ी। आचार्य श्री इतनी वेदना में भी पहले ही दिन 12 कि0मी0 चल गये। सभी को देखकर आश्चर्य हुआ। आचार्य श्री समय से एक दिन पूर्व ही अमरकण्टक आ गये। उनके पहुँचने के पहले ऐसा लग रहा था जैसे प्रकृति उनके स्वागत में पलक पॉवड़े बिछाये बेसब्री से इंतजार कर रही हो। देवताओं ने भी स्वागत किया बादल फूट-फूट कर रोने लगा और उसने अपने अश्रु जल से पाद-प्रक्षालन किया। जल वृष्टि के साथ ही आचार्य श्री का नगर प्रवेश हुआ। आखिर प्रकृति ने अपनी मनमानी कर ही ली। आचार्य श्री आये और तत्काल ही मंच पर पहुँच गये, वह थके हुए थे एवं पैर में वेदना थी लेकिन प्रकृति को न जाने क्या पसंद था। वह प्रवचन में बोले - "पहाड़ तो इरादों ने चढ़ा है पैर क्या चढ़ते।" मुझे तो ऐसा लग रहा था जैसे प्रकृति का और आचार्य श्री का इरादा एक जैसा हो। आचार्य श्री से पूछा - हे गुरूवर! आप इतने जल्दी पचास कि0मी0 चलकर कैसे आ गये। तो उन्होंने मुस्कराते हुए उत्तर दिया - "मैं नहीं चल रहा था, बल्कि मुझे तो आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज चला रहे थे।" यह उनके गुरू के प्रति आस्था और श्रद्धा बोल रही थी। 'यह उनकी गुरू के प्रति आस्था और श्रद्धा का जीवन्त उदाहरण है।”
  3. वह जीवन के अमूल्य क्षण थे जब सधर्मी भाईयों के साथ बैठकर गुरु से जीवन के बारे में कुछ पूछने का, जानने का अवसर प्राप्त हुआ था। बात ऐसी है कि करेली पंचकल्याणक के उपरान्त छिन्दवाड़ा की ओर विहार हुआ। रास्ते में सारना गॉव पड़ता है, सुबह विहार करते हुए वहाँ पहुँचे थके हुए थे विश्राम लिया। तदुपरान्त आहार चर्या के लिए गये। वहाँ मेरा अन्तराय कर्म की वजह से आहार नहीं हुआ।सामायिक के उपरान्त हम और कुछ महाराज जी आचार्य श्री के पास पहुंचे और उनके चरणों के समीप नमोस्तु करते हुए बैठ गये। ऐसे ही कुछ चर्चा प्रारंभ हो गई। चर्चा करते हुए आचार्य श्री बोले - भैया जीवन तो त्यागमय ही है, लेकिन जो साधक आहार-विहार को संतुलित करके चलता है वह कभी बीमार नहीं होता। शिष्य - आचार्य श्री विहार-निहार तो ठीक पर आहार को कैसे संतुलित करें। अन्तराय आदि के कारण ये संतुलन बन नहीं पाता ...... । आचार्य श्री - हँसते हुए बोले - आहार चर्या वास्तव में पराधीन है| उस समय मालूम होता है त्याग का महत्व। हमारे जीवन की शुरूआत इसी त्याग से हुई थी। शिष्य ने पुनः जिज्ञासा व्यक्त करते हुए कहा - आचार्य श्री जी यह कब की बात है ? आचार्य श्री ने बताया कि जब मैं ज्ञानसागर जी महाराज के पास पहुँचा। शिष्य से नहीं रहा गया पुनः पूछा - आचार्य श्री उस समय आप कहाँ थे और आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज से मिलने कहाँ पहुँचे। आचार्य श्री जी ने बड़ी सहजता से उत्तर दिया - मैं स्तवननिधि में था और अजमेर शहर पहुँचा। शिष्यों ने पुनः जिज्ञासा रखी कि आचार्य श्री जी ज्ञानसागर जी के पास आप स्वयं पहुँचे कि आचार्य श्री देशभूषण जी महाराज ने आपको वहाँ भेजा था ? (आचार्यश्री जी को देखकर ऐसा लगा मानो पुरानी यादों में खो गये हों) तेज मुस्कान के साथ बोले - क्या हुआ वास्तव में महावीर लेने आ पहुँचे फिर ऐसा लगा कि कहीं परिवार के लोग लेने न आ जावे। इसलिए आ. ज्ञान सागर जी महाराज के पास जाने का निर्णय हुआ। शिष्य - आचार्य श्री आपने पहले कभी ज्ञान सागर जी महाराज को देखा था उनसे परिचित थे ? आपको उनकी जानकारी थी या नहीं ? आचार्यश्री जी ने कहा - हाँ, हमारे पास एक ब्रह्मचारी जी अजमेर के रहते थे वे हमें उनके बारे में सब कुछ बताते रहते थे। आचार्य श्री इतनी सहजता से सभी प्रश्नों का उत्तर देते जा रहे थे तो हम शिष्यों के मन में गुरूदेव के जीवन के रहस्यों को जानने के भाव और ही उत्साह पैदा करते जा रहे थे। शिष्य ने पूछा - आचार्य श्री आप किस स्टेशन से बैठे थे ? आचार्य श्री ने कहा - वहीं 'कोल्हापुर' से। शिष्य - आ.श्री और टिकिट? आ. श्री ने कहा - टिकिट तो पहले से ही ले लिया था। शिष्य आगे बात बढ़ाते हुए कह उठे - क्या आचार्य श्री आपने रिजर्वेशन करा लिया था ? आचार्य श्री ने कहा - नहीं, शायद पहले इतना सब नहीं होता था। शिष्य ने पुनः पूछा - आचार्य श्री टिकिट के बाद आपके पास कुछ पैसे शेष बचे होंगे ? आचार्य श्री ने कहा - हाँ, शिष्य ने पूछा - कितने ? सोचते हुए बोले - लगभग पाँचेक रूपये, वे रूपये रिक्शे आदि में लग गये थे। कुछ कम भी पड़ गये थे फिर भी काम चल गया था। शिष्य - आचार्य श्री मैंने सुना,आप दो उपवास के बाद अजमेर पहुँचे थे ? आचार्य श्री ने कहा - हाँ, बेला हो गया था। यह मेरे जीवन का पहला बेला था। (बेला = दो उपवास) शिष्य ने कहा - आचार्य श्री रास्ते में आप कुछ ग्रहण कर लेते, आपने क्यों नहीं ग्रहण किया ? आचार्य श्री जी ने कहा - भैया कैसे खाता बिना देवदर्शन के। शिष्य ने कहा - आचार्य श्री आप फल वगैरह तो ले सकते थे ? आचार्य जी ने (बड़े ही स्वाभिमान भरे शब्दों में) कहा - नहीं, सप्तम प्रतिमा थी, बिना देवदर्शन के कैसे ग्रहण करता। शुद्धि भी कहाँ लेता। शिष्य ने कहा - आचार्य श्री कहीं स्टेशन पर उतर कर दर्शन कर आते ? आचार्य श्री ने बड़े ही भाव भीने शब्दों में कहा - उस समय महाराज जी से मिलने की तीव्र भावना थी और फिर इतना सब आप लोगों जैसा नहीं जानता था। पुनः शिष्य ने पूछा - आचार्य श्री जी आप कितने बजे अजमेर पहुँचे और किस स्थान पर रुके? उन्हीं परिचित ब्रह्मचारी जी के घर| छत पर लेट गये नींद बहुत आ रही थी, गर्मी भी बहुत लग रही थी, खाली पेट था। ब्रह्मचारी जी कहने लगे यह नल लगा है इससे नहा लो। (हँसकर) पर क्या करते उस नल में पानी ही नहीं आ रहा था। आचार्य श्री मुस्कराकर बोले - उन्हीं ब्रह्मचारी जी के कमण्डलु से पानी लेकर दुपट्टा गीला किया और ओढ़कर सो गया। थोड़ी देर में वह दुपट्टा सूख गया। शिष्य ने कहा - फिर क्या हुआ आचार्य श्री! आचार्य श्री - थोड़ा रुककर हँसते हुए बोले फिर घण्टा गिनता रहा भैया - अब 1, 2, 3, 4 बज गये। सुबह हुई पूजन-प्रक्षाल किया। आहार किया तदुपरान्त लेट गया फिर पता नहीं कब शाम हो गयी, ब्रह्मचारी जी ने उठाया बोले शाम हो गई पानी वगैरह ले लो। पानी की बात सुनकर शिष्यों के मन में फिर जिज्ञासा पैदा हो गई और कह उठे - आचार्यश्री क्या आप एक ही बार भोजन लेते थे ? आचार्यश्री जी ने कहा - हाँ शाम को पानी ले लेता था। इतनी सहजता से सभी प्रश्नों के उत्तर मिलते जा रहे थे, मानो ऐसा लग रहा था कि यह एक अपूर्व अवसर मिल गया हो, हम शिष्यों ने सोचा इस अवसर का पूरा-पूरा लाभ ले लेना चाहिए | चर्चा ने थोड़ा-सा मोड़ ले लिया और उनके संयमित जीवन पथ की ओर जिज्ञासायें बढ़ने लगीं .............. । जिज्ञासा व्यक्त की गई कि आचार्य श्री जी आपकी दीक्षा के पूर्व बिनौरी भी निकली होगी ? आचार्य श्री जी ने चर्चा को विराम देने की अपेक्षा से कहा कि - हाँ, वहाँ तो दूसरा ही रिवाज था। शिष्य इस बात को समझ गये कि आचार्य श्री जी अब आगे कुछ बताना नहीं चाहते फिर भी शिष्यों से नहीं रहा गया और धीरे से पूछ ही लिया - वहाँ कैसा रिवाज था आचार्य श्री जी ने कहा - 20-25 दिन पूर्व से ही बिनौरी निकलने लगी वे लोग घर-घर निमंत्रण करते थे, घर बहुत दूर-दूर थे और आहार के बाद टीका भी करते थे । शिष्य ने पूछा - आचार्य श्री इतनी दूर पैदल ही जाते थे क्या आप ? आचार्य श्री जी ने कहा - हाँ कभी-कभी बग्गी, रिक्शा आदि से भी चले जाते थे। शिष्य - बात को आगे बढ़ाते हुए कहने लगे आचार्य श्री जब आपने केशलोंच मंच पर किये थे तब आपको कैसा अनुभव हो रहा था ? आचार्य श्री जी ने मुस्कराते हुये कहा - भैया मंच - मंच होती है, आज भी वह दृश्य आँखों में झूलता है । शिष्य - आचार्य श्री केशलोंच में आपको कितना समय लगा था ? आचार्य श्री जी पहले भी क्या आपने केशलोंच किये थे? आचार्य श्री ने कहा - हाँ पहले तीन बार केशलोंच कर लिये थे, दीक्षा के पूर्व। शिष्य ने पूछा - आचार्य श्री जब आपने पहली बार केशलोंच किये थे तब आपको कितना समय लगा था ? आचार्य श्री जी ने कहा - वही लगभग 3, 3.30 घण्टे । शिष्य ने पुनः पूछा - सुना है केशलोंच के समय रक्त की धार लग गई थी। आचार्य श्री ने कहा - हाँ, घने, कड़क बाल थे और तेजी से खींच दिये तो खून उचटने लगा था। शिष्य - फिर आपको सिर में तकलीफ हो रही होगी ? आचार्य श्री ने कहा - हाँ फिर लोगों ने चंदन की जगह लाल चंदन लगा दिया तो और अधिक तकलीफ बढ़ गयी थी। शिष्य - चंदन लगाने का आपने आचार्य ज्ञान सागर जी महाराज से पूछ लिया था ? आचार्य श्री जी ने कहा - हाँ, उन्हीं ने कहा था श्रावकों से चंदन लगा दो तो उन्होंने चंदन की जगह लाल चंदन लगा दिया था। शिष्य - आचार्य श्री यह कहाँ की बात है ? आचार्य श्री ने कहा - रैनवाल की। शिष्य - आचार्य श्री जी, महाराज जी (आचार्य ज्ञानसागर जी) नहीं आये केशलोंच देखने ? आचार्यश्री - नहीं उनकी वृत्ति अलग ही थी। शिष्य ने पुनः पूछा - आचार्य श्री आपने कभी महाराज जी से नहीं पूछा उनके जीवन के बारे में कि आप कहाँ तक पढ़े हैं? कैसे रहे ? कैसे क्या ? आदि। आचार्य श्री थोडे डाँट भरे शब्दों में बोले - नहीं, आप तो बहुत बोलते हैं, मैं तो उनसे बोल ही नहीं पाता था। शिष्य ने कहा - आचार्य श्री वे वृद्ध भी तो थे । आचार्य श्री जी ने कहा - नहीं, वे बहुत कम बोलते थे, नीचे सिर किये आँखें बंद किये बैठे रहते थे। उनकी वृत्ति मैंने कहा न कुछ अलग ही थी। फिर मैं हिन्दी भी कम जानता था। शिष्य ने पुनः पूछा - फिर आप प्रवचन कैसे करते थे ? आचार्य श्री जी - कुछ (चिंतन में डूब गए) रुककर बोले - मैं ब्रह्मचारी था मुझसे कहा गया ब्रह्मचारी जी महाराज श्री के पूर्व आपको भी प्रवचन करना है। तो एक कहानी आती है कि एक व्यक्ति कानों में अंगुली डाले था कहीं मुनि के वचन कानों में ना पड़ जावे तो मैं भूल गया और मैंने कह दिया आँखों में अंगुली डाले था, तो सभी हँस पड़े। मैं समझ नहीं पाया ये सब क्यों हँस रहे हैं ऐसी थी भैया हमारी हिन्दी। (कान को आँख, आँख को कान कह देते थे)। शिष्य - आचार्य श्री आप दीक्षा के कुछ दिन उपरान्त अस्वस्थ हो गये थे ? आचार्य श्री जी ने कहा - हाँ, बुखार के बाद दो महिने तक कुछ भी (किताब) नहीं पढ़ पाते थे। शिष्य ने कहा क्यों ? ऐसा कैसा बुखार आ गया था ? आचार्य श्री ने कहा - बाहर मंच पर बैठने से तेज हवा बगैरह लग गयी थी, पहले प्रवचन की ऐसी प्रथा नहीं थी, सभी ग्रंथ से वाचन करके सुनाते थे, धीरे-धीरे बिना ग्रंथ के बोलना प्रारंभ हुआ। भले ही ज्ञान आत्मा का स्वभाव है लेकिन गुरु के बिना ज्ञान नहीं हो सकता। गुरु की चाबी से अनंतकालीन मोह रूपी जंग लगा हुआ ताला भी खुल जाता है।
  4. प्रत्येक व्यक्ति समय का सदुपयोग करना चाहता है। अधिकांश लोग साहित्य के पठन-पाठन में समय बिताते हैं। सभी लोग पढ़ना चाहते हैं और पढ़ते भी हैं लेकिन क्या पढ़ना चाहिए और क्यों पढ़ना चाहिए यह नहीं जानते? कैसी पुस्तकों को, साहित्य को पढ़ना चाहिए। यह ज्ञान न होने से जो जिस प्रकार का साहित्य हाथ लगता है हम उसी को पढ़ने लगते हैं, जिसमें समय का सदुपयोग न होकर समय का दुरूपयोग जैसा हो जाता है एवं मन भी विकृत हो जाता है और कभी-कभी तो हमारी धारणाएँ भी गलत बन जाती हैं। इसी बात को लेकर एक दिन आचार्य श्री ने कहा कि - आज का कुछ साहित्य एक ऐसा मीठा जहर है, जो व्यक्ति की धारणा पर ऐसा प्रभाव डालता है कि उसके संस्कार कब उद्वेलित हो जायें पता नहीं। जिस साहित्य के पढ़ने से मिथ्यात्व, राग, द्वेष आदि की प्राप्ति एवं वृद्धि हो ऐसा साहित्य मुफ्त में भी कोई दे तो भी नहीं लेना/पढ़ना चाहिए। किसी-किसी का कहना रहता है कि हम तो सब समझते हैं, सार–सार को ग्रहण कर लेते हैं। आचार्य श्री ने कहा तब ठीक है अपनी अच्छाईयों को सुरक्षित रखते हुए यदि दृढ़ता है तो ही ऐसे साहित्य पढ़ना चाहिए, वरना नहीं, लेकिन कुछ भी करो उस संबंधी विकल्प तो हो ही जाया करते हैं। जो सही नहीं है उसके प्रति आदर हो जायेगा और जो कि अहितकारक ही सिद्ध होगा। तभी किसी ने आचार्य श्री से कहा कि - आपने साहित्य को जहर क्यों कहा? तब आचार्य श्री जी बोले कि - गृहीत मिथ्यात्व दूसरे के उपदेश, निर्देशन के बिना नहीं होता है तो वह साहित्य गृहीत मिथ्यात्व का कारण भी हो सकता है। यह गृहीत मिथ्यात्व अगृहीत मिथ्यात्व का पोषक है। इसलिए ऐसे साहित्य को पढ़ने से बचना चाहिए। सत्साहित्य का अर्थ होता है जिसमें सबका हित निहित हो और जो ज्ञान हमारे कर्म निर्जरा का कारण है, जिसके पढ़ने, सुनने तथा चिंतन करने से हमारा उपयोग स्वभाव की ओर चला जाता है वही सत्साहित्य माना जाता है। पूर्वापर दोष रहित, आधार सहित आचार्य प्रणीत ही ग्रन्थ पढ़ना चाहिए। साहित्य की सही-सही परख होना/करना चाहिए, फिर उसे अपनाना चाहिए। एक बात और ख्याल रखना चाहिए कि उस साहित्य का उपसंहार अनेकांत के साथ ही होना चाहिए, एकांत पक्ष का समर्थन करने वाला नहीं होना चाहिए।
  5. चाहे वह साधक हो, या श्रावक हो, प्रत्येक की भावना यही रहती है कि जब हम अपने गुरूवर को नमोस्तु निवेदित करें तभी गुरू महाराज की दृष्टि हमारी ओर हो और उनका आशीर्वाद का हाथ उठा हुआ हो। जब तक आचार्य श्री की दृष्टि नहीं उठती और आशीर्वाद का हाथ नहीं उठता तब तक किसी भी शिष्य व भक्त को आत्मसंतुष्टि नहीं होती और यदि गुरूवर की दृष्टि आशीर्वाद का हाथ उठ जाता है तो वह गद्गद् हो उठता है एवं अपने को धन्य मानता है। कई भक्त तो तब तक नमोस्तु-नमोस्तु बोलते रहते हैं कि जब तक आचार्य श्री आशीर्वाद का हाथ न उठा दें। एक बार किसी भव्यात्मा को नमोस्तु करने के उपरान्त आचार्य श्री का आशीर्वाद नहीं मिला, तब उन्होंने आचार्य भगवंत से कहा कि - आचार्य श्री कई बार आपका आशीर्वाद नहीं मिलता तो आकुलता होती है। आचार्य श्री ने सहजता से उत्तर दिया कि नमोस्तु करते समय आप लोगों का सिर नीचे रहता है, इसलिए आशीर्वाद का हाथ उठता भी होगा तो आप लोगों को दिखता नहीं है। अपने श्रद्धान को मजबूत बनाईये, गुरु का आशीर्वाद तो चाहे प्रत्यक्ष या परोक्ष हो वह हमेशा रहता है। आचार्य श्री ने उदाहरण देते हुए समझाया कि जब आपकी अच्छी, जैसा आप चाहते थे वैसी फोटो खिंच गई हो तो आप अपने पास रख लेते हैं, वैसे ही आशीर्वाद की एक बार की मुद्रा को अपनी धारणा में रख लो और उसी को स्मृति में लाते रहें।
  6. आचार्य गुरूदेव द्रव्यसंग्रह ग्रन्थ की वाचना के समय ज्ञान और चारित्र का महत्व समझा रहे थे कि ज्ञान को यदि आचरण में न लाया जाये तो वह आत्मा का संवेदन नहीं करा सकता और यदि ज्ञान, विश्वास श्रद्धा से रहित हो तो भी चारित्रवान होकर भी आत्मा का संवेदन नहीं करा सकता। ज्ञान के साथ सम्यक्दर्शन भी चाहिए और सम्यक्चारित्र भी तभी होगा स्वसंवेदन। "रस का और रसना का मूल्य क्या चर्वण बिना” अर्थात् किसी पदार्थ में रस कितना है या हमारी रसना इन्द्रिय का काम क्या है? यह तब ज्ञात होता है जब हम भोजन को चबाते हैं। भोजन को निगलने मात्र से स्वाद नहीं आता। वैसे ही मात्र पुस्तकीय ज्ञान से आत्मा का स्वाद नहीं आता, जब तक उस शास्त्र ज्ञान का जीवन में अमल न हो। तभी किसी साधक ने गुरू महाराज से अपनी शंका व्यक्त करते हुए कहा कि - हे गुरूवर ! अभव्य का ज्ञान एवं विश्वास कितना तथा कैसा होता है? आचार्य श्री ने कहा - अभव्य का ज्ञान और विश्वास "खोदा पहाड़ निकली चुहिया" के समान होता है। उसे ग्यारह अंग का ज्ञान होता है, इतना ज्ञान होने पर भी आत्मा अमूर्त है ऐसा विश्वास नहीं होता और अनुभव (स्वाद) में नहीं आता। भले ही उसे दूसरों को समझाने रूप ज्ञान हो गया हो। अभव्य भी नव ग्रैवेयक (स्वर्ग) तक पहुँच जाता है। सारा का सारा ज्ञान सम्यग्दर्शन के बिना बोझ है, बोध नहीं कहलाता, क्योंकि मोक्ष निराकुलता रूप है उसे यह श्रद्धान नहीं हो पाता।
  7. आचार्य श्री के चरण सान्निध्य में बैठकर सभी साधकगण गुरूदेव के मुखारविन्द से इष्टोपदेश ग्रंथ की 147 वें नं0 की गाथा का रसास्वादन कर रहे थे। उस गाथा में एक शब्द आया है 'आत्मानुष्ठान' तब किसी साधक ने गुरूदेव से पूछा - हे गुरूवर! आत्मानुष्ठान का क्या अर्थ होता है? तब आचार्य भगवन्त ने कहा - रत्नत्रय, पंचाचार पालन, ध्यान, तत्वचिन्तन आदि में लीन रहता है, यह आत्मा का अनुष्ठान है। यह शरीर जो साथ में लगा हुआ है उसके लिए भी बहुत कम, बिना रूचि के समय देते हैं। आचार्यश्री ने उदाहरण देते हुए समझाया कि जैसे आपके (श्रावकों के) यहाँ कोई मेहमान आ जाते हैं तो आप स्वयं अच्छे से उन्हें भोजन परोसते हैं क्योंकि बहुत दिन बाद आये हैं और हम जब उनके यहाँ जायेंगे तो वह भी हमारी अच्छी तरह से देखभाल करेंगे, इस प्रकार के भाव आते हैं। वहीं दूसरी ओर यदि घर में काम करने वाले किसी नौकर को भोजन परोसते हैं तो सामान्य भोजन बनवाते हैं, पकवान नहीं परोसते और उसे सोने या चाँदी की थाली में भोजन नहीं परोसते। ये सब होता है कि नहीं। ठीक इसी प्रकार योगी आत्मा का अच्छी तरह से ध्यान करते हैं और शरीर को नौकर की तरह समझते हैं। आत्मानुष्ठान का अर्थ है, आत्मा में डुबकी लगाना, पर पदार्थों से अपने उपयोग को हटाकर आत्मा में ले जाना। इसलिए व्यवहार से हटकर जो आत्मानुष्ठान करता वही कुछ प्राप्त कर पाता। आज आत्मानुष्ठान करने वाले योगी विरले ही होते हैं।
  8. महानात्माओं के जीवन में कुछ ऐसी घटनायें घटती हैं जो असाधारण होती हैं। ये घटनायें विशेष पुण्योदय से ही घटती हैं, कभी-कभी जिस वस्तु की हम कल्पना भी नहीं कर सकते वह वस्तु तत्क्षण उपलब्ध हो जाती है। यह सब कार्य महानात्मा के सान्निध्य में ही होता है। यह प्रसंग उस समय का है जब ब्रह्मचारी विद्याधर जी की दीक्षा आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज के करकमलों से सम्पन्न होने जा रही थी। उसके पूर्व विनौरी निकलनी थी, अजमेर शहर में उस समय ढूढने से एक भी हाथी नहीं मिलता था, लेकिन अचानक ही ऐसा अतिशय हुआ कि नगर में एक सर्कस आ गया जिसमें एक साथ 9 हाथी (कहीं कहीं मिलता है 25 हाथी थे) घोड़े, ऊंट आदि उपलब्ध हो गये। उस समय गुरूवर की विनौरी में यह सब हाथी आ गये। यह था गुरूवर की दीक्षा के पूर्व का अतिशय। दूसरा अतिशय भी घटित हुआ दीक्षा के पूर्व भीषण गर्मी में भी मंद-मंद शीतल हवा चली एवं रिमझिम बरसात भी हुई। प्रकृति भी इस चीज की साक्षी है कि आगे चलकर के दीक्षित होने वाले इन मुनिराज से अनेकों भव्य जीवों का कल्याण होगा एवं इनके जीवन में अतिशय घटित होंगे। जो हम सभी को आज वर्तमान में देखने को मिल रहे हैं।
  9. आचार्य श्री जी वैराग्य की वृद्धि के लिए बारह भावनाओं के चिंतन करने का उपदेश दे रहे थे, उसी दौरान आचार्य श्री ने बताया कि - "वैराग्य उपावन माही का आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज अर्थ निकालते थे कि - वैराग्य के उपवन में जाने के लिए या वैराग्य के उपवन में बैठकर चिंतन करो बारह भावनाओं का। हमें हमेशा अपने वैराग्य को दृढ़ बनाते रहना चाहिए। व्रत, गाड़ी के समान हैं जो एक बार ली जाती है लेकिन बारह भावना, वैराग्य भावना, साधु-संगति एवं स्वाध्याय आदि यह सब पेट्रोल है, जो कि व्रत रूपी गाड़ी को आगे बढ़ाने में सहायक है। अतः इन्हें हमेशा भाते रहना चाहिए, तभी वैराग्य में स्थिरता एवं दृढ़ता और वृद्धि होगी। किसी साधक ने आचार्य श्री के समक्ष शंका व्यक्त करते हुए कहा कि - कुछ लोग वैराग्य पथ पर बढ़ने वालों की मानसिकता बिगाड़ने का काम करते हैं उस समय क्या करना चाहिए? तब आचार्य भगवंत ने कहा कि - हाँ, मानसिकता बिगाड़ने के लिए लोग उपसर्ग जैसा कर सकते हैं, उन्होंने अपने बचपन का संस्मरण सुनाया कि जब हम कैरम खेलते थे तब सामने वाले हल्ला (तेज स्वर में आवाज) करके हमारा ध्यान खेल से हटाना चाहते थे, ताकि गोटी फिसल जाये और हमारी हार हो जाये, लेकिन हम उस ओर ध्यान ही नहीं देते थे। एक बात याद रखो - "जब हमारे पास आत्मविश्वास होता है तब हमें कोई भी अपने लक्ष्य, कार्य से डिगा नहीं सकता, इसी आत्मविश्वास का नाम ध्यान है।"
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