आपका शिष्य नहीं चाहता कि,
इसकी ख्याति बढे और प्रतिष्ठा मिल जाए।
नाम फैले और वाहवाही मिल जाए।
सबके सामने आपका स्नेह या मुस्कुराहट मिल जाए।
दुनिया की नज़रों में ऊँचा उठ जाए,
नहीं, नहीं इसे यह कुछ नहीं चाहिए।
यह तो मात्र यही चाहता है कि,
एकाकी आप के दर्शन से आत्मदर्शन मिल जाए।
“कुछ ना देकर सब कुछ देते, निजाधीन कर देते हैं।
कुछ ना कहकर सब कह देते, आत्म रहस्य प्रगटाते हैं।।
निज आतम को देखनहारे, ‘देखो' ही बस कहते हैं।
इस रहस्य को वहीं जानते, जो समीप में रहते हैं।।''