जब मैं जग को अपना मान रहा था,
आपने अपने नयन बंद ही रखे।
जब मैंने आपको अपना माना,
तब पल भर नयन खोलकर फिर बंद कर लिये।
लेकिन जब आपके संकेत को समझकर,
मैंने निज आत्मा को ही मात्र अपना माना,
तब आप के अंतर्चक्षु मुदित हो गए।
मेरे ज्ञान नभ में विद्या रवि उदित हो गए।
जब आपके इशारे मुझे समझ में आ गए,
तब मुझे लगा...
आप मेरे अंतर्नयन हो गए।
"चाहे बदले समय चक्र पर, शिष्य समर्पण ना बदले।
एकलव्य को द्रोण गुरूजी, चाहे कितना ठुकरा दें।।
एकलव्य उत्तीर्ण हो गया, मृण्मय मूरत बनवाकर।
शिव्यगणों में हुआ अग्रणी, गुरु दक्षिणा को देकर।।"