आप कहते हैं कि…
ईंट का जवाब पत्थर से नहीं देना।
क्रोध का सामना बैर से नहीं करना।
बैर का सामना हिंसा से नहीं करना।
अपमान का सामना गाली से नहीं करना।
ईर्ष्या का सामना स्पर्धा से नहीं करना।
आत्मशांति के लिए पर को कटु जवाब नहीं देना।
स्वच्छ मन के लिए मान कभी नहीं करना।
यदि तुम्हें शुद्धात्म स्वरुप को पाना है,
तो अग्नि का जवाब नीर से देना है।
क्रोध का जवाब क्षमा से देना है।
“जग से निराश हुए मनुज को, गुरुवर की ही शरणा है।
गुरु का हित उपदेश श्रवण कर, भवसागर से तरना है।।
अशरणों के शरण प्रदाता, कलिकाल सर्वज्ञ समान।
स्वीकारो यह भाव सहित गुरु, मेरा बारम्बार प्रणाम।।''