एक दिन सिंहासन पर बैठे-बैठे,
आँख मूंदकर आप क्या विचार कर २हे थे?
यही ना कि...
ये सिंहासन मोक्ष का साधन नहीं है,
मुझे सिद्धासन पाना है अतः,
इससे एक दिन उतरना ही पड़ेगा।
ये संघ, ये पूजकगण, ये मेरे आराधक नहीं,
ये मेरे पुण्य फल के आराधक हैं।
हे साधक! इसमें लीन मत होना,
और आप बहुत दूर अपने,
निजात्म असंख्यात प्रदेशों में गहरे- गहरे डूब गए।
और हम आपको देखते रह गए।
“भाग्य विधाता शिष्यगणों के, किंतु न कर्ता भाव रखे।
बाहर में जिन संस्कृति रक्षक, भीतर रस आनंद चखे।।
मात्र स्वात्म भावों के कर्ता, परभावों से दूर रहे।
परम प्रतापी श्री गुरुवर के, नारे जग में गूंज रहे।।''