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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. साधक आलम्बन से नहीं, बुद्धि के बल से, क्षयोपशम के आधार पर, युक्तिपरक नीतियों के द्वारा कार्य के आयाम को गति प्रदान करती है। यही उनकी प्रगति का कारण हुआ करता है। बात उस समय की है-जब आचार्य ज्ञानसागरजी स्वाध्याय कराते थे, उस समय मुनि विद्यासागरजी उनसे बिना ग्रन्थों के पढ़ा करते थे, जब वे एक बार अष्टसहस्री पढ़ा रहे थे, तब उनके हाथ में ग्रन्थ नहीं था, उन्हें श्लोक और विषय याद रहते थे; पूर्व स्मृति के अभ्यास के कारण, इसलिए वे आलम्बन से बचते थे, क्योंकि आलंबन लेने से वस्तु का रखरखाव करना पड़ता है, टूटने-फूटने, फटने, गलने, जीर्ण-शीर्ण होने का भय बना रहता है, इसलिए वे आलंबन नहीं निरालम्बनता के धनी थे। वैसे भी वृद्धावस्था के कारण चश्में का प्रयोग करते थे, मोतियाबिंद का आपरेशन होने से दृष्टि भी कमजोर हो गयी थी। इस कारण भी वस्तुओं के उपयोग से बचना चाहते थे। आचार्य श्री जी के श्री मुख से १८.०५.२००३, रविवार कुण्डलपुर सिद्धक्षेत्र (मध्यप्रदेश)
  2. विनय मोक्ष का द्वार है, ऐसा शास्त्रों की भाषा से ज्ञात होता है। आगम सूत्र भी इसी बात को प्रदर्शित करते हैं। विनयशीलता भी शीलव्रत से कमजोर नहीं मानी जाती है। विनय माया भाव से रहित होती है तो शुद्धता की, पवित्रता की, निर्मलता की जननी बन जाती है। जैसे नारी, बिना बिंदिया के शोभा को प्राप्त नहीं होती, वैसे ही मनुष्य का आभूषण विनय हुआ करता है। ब्रह्मचारी भूरामल, पण्डित भूरामल ने विनय को आत्मसात किया। विनय के बलबूते पर जिनवाणी का श्रवण प्रारम्भ हुआ। जिनवाणी को देखकर जिसका माथा झुक जाता है। यह ऊपर उठने की शुरूआत का प्रथम सोपान हुआ करता है। जिनवाणी को सुनना, पढ़ना ही महत्त्वपूर्ण नहीं माना जाता। उसके अनुसार चलना हो तदनुरूप विनय मानी जाती है। जिनवाणी के शब्द का परिवर्तन नहीं करना, न करवाना, जैसा है वैसा प्रकट करना, यही विनय की धारा हुआ करती है। उन्होंने जिनवाणी को हमेशा अपने से ऊपर रखा। जैसे सोलहकारण भावनाओं में तीर्थंकर प्रकृति के बंध के कारणों में विनय सम्पन्नता के गुण को मुख्यता प्रदान की गई है। यह मुनियों के अधिकार की वस्तु हुआ करती है। मुनि जीवन को प्राप्त कर मुनि ज्ञानसागर नाम की संज्ञा को प्रकट किया। मुनि जीवन में विनयशीलता इतनी बढ़ती चली गई कि जिनवाणी सरस्वती माता उठते-बैठते जागते समय भी जिनवाणी को नमन कर मंगलाचरण कर अपने स्वाध्याय और लेखन को प्रारम्भ कर लिखने के बाद कभी भी छपने की, प्रकाशन की बात नहीं करते थे, क्योंकि उस समय प्रिंटिंग व्यवस्था शुद्ध नहीं थी। इसलिए भी मन नहीं होता था। कहीं जिनवाणी का अनादर न हो जावे। जब आचार्य धर्मसागरजी से मिलना हुआ तब भी ज्ञान वृद्ध होने पर भी तपोवृद्ध आचार्य के प्रति विनय भाव यथाविधि बना रहा। अहंकार से कोसों दूर थे। जिनवाणी के ममकार से भरे हुए थे। इसलिए विनयाचार का सदा पालन करते हुए हमारी आँखों को दृश्यमान होते थे।
  3. धर्म की धुरा भक्ष्य, अभक्ष्य के भेद को लेकर चला करती है। क्या खाने योग्य है, क्या नहीं खाने योग्य है। इसलिए आचार्यों ने श्रावकाचार संग्रह के अंतर्गत बाईस अभक्ष्य को रखा है। सप्त व्यसन के त्याग के अंतर्गत या अष्ट मूलगुणों के अंतर्गत, मद्य, मधु, मांस के त्याग के प्रसंग को भी रखा है। बात उस समय की है, जब गुरु ज्ञानसागरजी, मुनि विद्यासागरजी विहार करते हुए नसीराबाद से किशनगढ़ के बीच में गुरु ज्ञानसागरजी के एक जगह प्रवचन हुए। वहाँ श्वेताम्बर समाज थी, आचार्य तुलसी जी की एक शिष्या साध्वी जो महाराज के दर्शन करने आयी, उसी समय मुनि विद्यासागरजी से चर्चा हुई मद्य, मांस, मधु के सम्बन्ध में, तब साध्वीजी ने कहा-मुझे गुरु महाराज ने शहद खाने की छूट दी है। तब विद्यासागरजी सुनकर यह सोचते रहे, यह धर्म की कैसी विसंगति है? आचार्यश्री जी के श्री मुख से १८.०४.२००६, मंगलवार कुण्डलपुर सिद्धक्षेत्र (मध्यप्रदेश)
  4. स्वा का आलम्बन धर्म की प्रथम मंजिल की प्रतीति करता हुआ जगत् की रीति से भिन्नता का दर्शमान बिम्ब का रेखाचित्र खींचने वाला हृदयगत कला का जानकार ज्ञात होता है। अपने आश्रित कार्य की पद्धति याचक वृत्ति से दूर रख अन्तर्मुखी दृष्टि में बनाने की सहयोगी कारण हासिल होता है। ब्रह्मचारी भूरामल, पण्डित भूरामल इन्हें अपने ही हाथ से कमाना, अपने हाथ से पकाना, खाना, हितकारी सिद्ध कार्य जान पड़ता था। दूसरों के पैसों से ज्ञान के पुण्य को अर्जित करने में पुरुषार्थ हीनता का अनुभव जान पड़ता था। यदि मर्द हो तो हाथ-पैर को चलाकर श्रम की साधना से अर्थ को प्राप्त कर स्वाभिमानीपने का अनुभव ही स्वाश्रित जीवन का स्वावलम्बी कार्यपना प्रकट हुआ जान अपनी उस विशिष्ट माँ जैन भारती यही जैनत्व के संस्कार को जन्म देने वाली वास्तविक माँ, सच्ची और बहुत अच्छी जो जन्मदात्री माँ से आगे चलकर भव विनाशक माँ के रूप में। दर्शमान प्रकटमान होती हुई जान पड़ती है। इसी के कारण लोभ की वृत्ति छूटी, निर्लोभता का वृत भूरामल के रग-रग में समाहित होता हुआ निस्पृही जीवन जीने की साधना पद्धति का गम्यमान, अगम्यमान, रहस्यमान, छिपी हुई तस्वीर की तकदीर का एक प्रतिमान साबित होता है। वो अपने ही माँ से जन्मे बड़े भाई के भी आश्रित रहना पसन्द नहीं करते थे, न ही नाते-रिश्तेदारों के, न अपने पिता की सम्पत्ति। जो आनन्द अपने पसीने की कमाई के द्वारा प्राप्त होने वाला है वह पर की रोटी से, पर के कपड़े से नहीं मिलने वाला। वे ब्रह्मचारीजी रोटी, कपड़ा, मकान इन सबसे ऊपर उठकर कुछ करने के लिए कटिबद्ध थे। वे अपने आवश्यक भी स्व आश्रित ही किया करते थे। कण्ठ की विद्या ने उन्हें आलम्बन से दूर कर स्वालम्बन की ओर बढ़ने के लिए। प्रोत्साहित किया। उनके बड़े भाई भी पर के आश्रित नहीं थे। स्व केआश्रित ही थे। तब मैं पर के आश्रित कैसे हो सकता हूँ? व्रतों की पालना भी पर के नहीं, स्व के आश्रित ही चलती है। ऐसी धारणा के धनी पण्डित भूरामल थे।
  5. साधक साधना करे साधन की चिंता के परे शरीर भी साधना का एक साधन है। लेकिन उसके अनुसार नहीं चलना, आत्मभावों के अनुसार चलना, साधक की साधना का कमाल है। बात उस समय की है, जब मुनि ज्ञानसागरजी का साधना काल चला करता था, तब वे शरीर के अनुसार अपनी क्रिया नहीं करते थे, आत्म परिणामों की विशुद्धि के अनुसार लब्धि स्थानों को प्राप्त करते हुए प्रमाद रहित क्रिया-चर्या के धनी सम्राट् थे, इसलिए वे हमेशा यह मारवाड़ी शब्द बोलते हुए नजर आते थे, यह शरीर तो टट्ट है, कितना ही खिलाओ, पिलाओ, बैठाओ, लेकिन मानता नहीं है और ऊपर से तानता और है। तब सुनकर लगा कि उन्हें शरीर की नौकरी पसंद नहीं थी आत्मगत साधना ही पसंद थी। आचार्यश्री मुख से
  6. भाषा अपने रूप को रंग को लोक जगत् में प्रसारित करती है। भाषा की कमी, भाषा पर प्रश्न चिह्न लगा देती है। शुद्ध-विशुद्ध भाषा, भाषा के मनीषियों की चहेती बन जाती है। सीधी भाषा, सरल भाषा, बोलचाल की भाषा हुआ करती है। कुछ भाषाएँ कठिनता को लेकर शब्द की गहनता में डुबा कर साहित्य को परिपक्व बनाती हैं। पण्डित भूरामल ने ऐसी शुद्ध-विशुद्ध भाषा संस्कृत को, हिन्दी को अपने साहित्य का आधार बनाया। भाषा ज्ञान को प्राप्त करने के लिए श्रम की साधना के द्वारा अर्थ को प्राप्त कर भाषा को हासिल करने में निर्लोभ प्रवृत्ति के कारण सुगमता प्राप्त की। वे भाषा के दोष को अपनी प्रज्ञा की छैनी के द्वारा तोड़ देते थे। उनके साहित्य में छन्द भाषा के दोष से रहित अपने शुद्ध-विशुद्ध भाषा के मनीषीपने को प्रकट करती है। आज चोटी के विद्वान् उनके साहित्य पर कलम चलाने के पहले चिन्तनशील धारा में बहना प्रारम्भ कर देते हैं। वे शुद्ध बोलते थे तो शुद्ध ही लिखते थे। बिना आलम्बन के मौखिक शुद्ध पाठ, पाठकों को विशुद्ध परिणामों की ओर गमन करने के लिए मजबूर कर देता था। वे संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, मारवाड़ी, हिन्दी, ढूंढारी भाषाओं के क्रमशः जानकार थे। वे भाषा के दोष को नहीं, उसके विशुद्ध रूप से, रंग से, प्रयोजन रखते थे। भाषा को कण्ठ में धारण कर मुख से उच्चारित कर गुनगुनाना, उनके जीवन की आधारशिला जान पढ़ती थी। वे भाषा के मूलरूप से छेड़छाड़ पसंद नहीं करने के पक्षधर मनीषी थे। टिप्पण के माध्यम से अपनी बात को स्पष्ट करने के समर्थ साहित्य साधक थे। कम शब्दों में अधिक रहस्य को प्रकट करने की क्षमतावान श्लोकों का निर्माण कर साहित्य को, जैन साहित्य को समृद्ध बनाने वाले बाल ब्रह्मचारी पण्डित भूरामल को भुलाया नहीं जा सकता है। भाषा साहित्य पर जो भी कार्य उनके द्वारा हुआ है। वह दिगम्बर दीक्षा के पहले का ही जानो।
  7. धर्म का मार्गदर्शन, धर्म का उपदेश एक व्यक्तिगत विचारधारा को लेकर चला करता है, दूसरा सामूहिक विचारधारा को लेकर चला करता है, दूसरा सामूहिक विचारधारा को लेकर चला करता है, धर्म का उपदेश सबके हित के लिए होता है और धर्म का मार्गदर्शन व्यक्ति की योग्यता के अनुसार हुआ करता है। उपदेश को आदेश समझ कर यदि सुनने की योग्यता मनुष्य में आ जाये तो फिर बिना मार्गदर्शन के काम चल जायेगा। बात उस समय की है-आचार्य ज्ञानसागरजी चर्चा के दौरान कह रहे थे, यदि व्यक्ति-शिष्य उपदेश को ही आदेश माने तो आदेश देने की आवश्यकता नहीं पड़ती। यदि उपाध्याय परमेष्ठी का उपदेश ही आदेश मानकर ग्रहण करे तो आचार्य महाराज को आदेश नहीं देना पड़ेगा। यह सुनकर लगा वह उपाध्याय परमेष्ठी को आचार्य पद पर स्थापित होकर भी बहुमान की दृष्टि से देखा करते थे, क्योंकि आदेश को शत्रुवत् कहा है। इसलिए बहुत आवश्यक होने पर आदेश की प्रक्रिया का प्रयोग किया जाता है। आचार्यश्री के मुख से
  8. माता उपकारक तत्त्व है, यदि पुत्र भी उपकारक तत्त्व का परिपालन करता है तो उसका यह कर्त्तव्य बनता है, जो धर्म की डोर का काम करने लगता है। माँ, पुत्र के हित के लिए कष्टों के अम्बार को झेलने के लिए एक सैनिक के समान कटिबद्ध रहती है। ऐसी माता की बात को धर्मात्मा पुरुष अक्षरशः पालन के लिए तैयार रहता है। माँ की आज्ञा ही उसका धर्म होता है। ऐसे ही गुणों से आच्छादित बालक भूरामल छाबड़ा थे। उपनाम ‘शान्त कुमार' था। लेकिन धर्म का भाव/वैराग्य का भाव मन में उत्पन्न होने पर संसार के राग-रंग में नहीं फँसना चाहना तो माता जिनवाणी की सेवा में लगकर ग्रामीण बालकों को जैन तत्त्व से ज्ञात कराकर जिनवाणी के रस में डुबोने के कार्य में संलग्न हो गये और समय के खालीपन को कलम के द्वारा कागज पर जिनवाणी को भरने का काम कर नये ग्रन्थों के उद्भव में अपने को लगा लिया। नित्य श्रावक धर्म का पालन कर पिता से रहित माँ अर्थात् पति से रहित माँ की सेवा कर पति के वियोग को दूर कर मात्र प्रेम की ओर अग्रसर होते हुए भूरामल अपने उम्र की वृद्धि की ओर विहार करते रहे। माँ ने वचन ले लिया कि तुम तब तक यहाँ रहोगे जब तक में इस संसार में रहूंगी क्योंकि तुम्हीं मेरे सहारे हो, क्योंकि धर्मात्मा पुत्र ही धर्ममय मरण कराने की योग्यता का धारक तत्त्व हुआ करता है। माँ ने अपनी ममता में बाँधकर जिनवाणी का ऐसा रसिक बना दिया कि लौकिक जगत्, लौकिक शास्त्र, लौकिक व्यक्ति, नाते, रिश्ते से दूरी बढ़ती गई और जिनवाणी के करीब पहुँचकर अष्टप्रवचन मातृका का ज्ञान दिन-प्रतिदिन बढ़ता चला गया। सत्य है। माता के प्रेम में इन अष्ट प्रवचन माताओं के प्रेम में बाँधकर आत्म सुधार में लगा दिया और जन्म दात्री माँ के वचन को पूरा कर भाव सुधार अपना भव सुधारने के लिए अणुव्रतों की दीक्षा को धारण कर क्षुल्लक ज्ञानसागर का पद प्राप्त किया।
  9. सुबह और शाम उनका जीवन स्तुतियों के नाम था। सुबह एक मिश्रीलाल अजमेरा नाम के श्रावक प्रतिदिन लघु सहस्रनाम स्तोत्र अपने मधुर कण्ठ से सुनाकर उन्हें तन्मय कर आत्म मुग्ध कर देते थे। यह क्रम आचार्यभक्ति के बाद एक और भक्तिमय वातावरण निर्मित कर पर्यावरण को शुद्ध बना देता था। ऐसे ही शाम को एक श्रावक गम्भीरमल सेठी नाम के धारी समाधि स्तुति सुनाते थे। ऐसा स्तुतियों का प्रभाव उनके जीवन की भक्ति लगन को स्पष्ट करता था। कई बार वे भक्ति और स्तुति के माध्यम से श्रावकों को संकट से मुक्त करा देते थे। जो भी श्रावक अपनी समस्या लेकर आते थे उन्हें संकट हरण स्तुति पढ़ने के लिए वे कहा करते थे ऐसा उनका समय स्तुतिमय बीतता गया अंत में वे सर्व विकल्पों से रीतते गये और समाधि स्तुति में वे समा गये।।
  10. बहुत पुरानी कहावत है-निषेध में ही आनंद है, जब तक परदे की बात परदे के अंदर रहती है। तो आकर्षणता को पैदा करती है। एक नहीं, दो नहीं, चार महीने बाद जब किसी बात का रहस्य खुलता है, वह आनंद के त्यौहार से भरपूर होती है। । बात चातुर्मास के प्रसंग की है-आचार्य ज्ञानसागरजी जब भी चातुर्मास की पूर्णता को प्राप्त होते थे, दिवाली निष्ठापना के दिन वे क्षमा माँग कर चार माह की पूर्णता को समाप्त कर देते थे। क्षमा उनके रग-रग में विराजमान थी, सरस्वती देवी उनके पास थी तो क्षमा देवी भी उनके पास थी, वे इन दोनों देवियों के द्वारा पूजित थे। आचार्य श्री जी के श्री मुख से २५.१०.२००३, शनिवार दिवाली, अमरकण्टक (मध्यप्रदेश)
  11. चाहे ब्रह्मचारी हों, प्रतिमाधारी हों, क्षुल्लक हों, ऐलक-मुनिआर्यिका हों, सभी को चातुर्मास में एक स्थान पर रहने की आगम शास्त्रों की आज्ञा है। साधना का समय भी चातुर्मास में होता है, पर अपने-अपने पद के अनुसार ब्रह्मचारी गण २ माह का चातुर्मास करते हैं, तो पिच्छिका धारी आषाढ़ शुक्ल १४ से कार्तिक कृष्ण १४ तक भगवान् महावीर के निर्वाणोत्सव दीपावली तक। ऐसा ही प्रसंग पण्डित भूरामल शान्तिकुमार के जीवन में आया। जब उन्होंने उत्तरप्रदेश के मंसूरपुर गाँव में तीन चातुर्मास किये तभी एक चातुर्मास के समय वर्षा नहीं हुई तब ग्रामवासी कुछ घबड़ाये उस समय ब्रह्मचारीजी ने धैर्य बँधाते हुए अपने नाम को सार्थक करते हुए कहा शांति रखो पानी अवश्य बरसेगा। ठीक ऐसा ही हुआ क्योंकि त्यागियों के वचन खाली नहीं जाते। १६ दिन का पक्ष आया जब शान्तिविधान का ब्रह्मचारीजी ने आयोजन रखवाया और घंटे पर मंत्र लिखा गया घंटा बजते ही जल की वर्षा होने लगी। वहाँ के अन्य मतावलम्बियों में ऐसी धारणा थी कि ब्रह्मचारी बाबा आये हैं पानी रोक दिया है, पानी गिरते ही गलत धारणाओं का खण्डन हुआ और जिनशासन की प्रभावना हुई। इसी ग्राम के मंदिर में अक्षयतृतीया को भगवान् के सामने क्षुल्लक दीक्षा ली और क्षुल्लक ज्ञानभूषणजी नाम रखा। इसी मंदिर में एक बार एक चोर घुसा था। वहाँ पं० भूरामल ब्रह्मचारी का हस्तलिखित साहित्य का बक्सा रखा था, उसे धन का बक्सा समझकर चोर ले गये बाहर जाकर खोलकर देखा तो मात्र कागज ही कागज मिले। क्रोध के वशीभूत होकर मंदिर जी में रखे लालटेन से मिट्टी का तेल निकाल कर उस बक्से पर डाल दिया और उसमें आग लगा दी पूरा साहित्य जल गया, उसमें से कुछ साहित्य बचा, जिसमें मानव धर्म की प्रति मिली जो आज सबको पढ़ने मिल रही है | सच्चे-अच्छे त्यागी चातुर्मास की साधना से प्रभावना तक पहुँच जाते हैं, ऐसे प्रभावना के प्रभावक साधक आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज थे।
  12. गलत धारणाओं-मान्यताओं का खण्डन सहज सरल मधुर भाषा के द्वारा करते हुए आचार्य श्री को देखा गया, चाहे युवक हो, वृद्ध हो और चाहे वह बालक हो सभी समझकर उनकी समझ से परिचय प्राप्त कर अपनी समझ में सुधार कर चलते बनते थे। एक बार ऐसा ही हुआ आचार्य गुरुदेव बैठे हुए थे दर्शन करने वाले आ रहे थे, जा रहे थे इसी क्रम में एक युवक महाराजश्री के समीप आकर बैठ गया जिसे जैनदर्शन की प्रारम्भिक शिक्षा ज्ञात थी उसने छह द्रव्यों से सम्बन्धित काल द्रव्य के बारे में पूछा महाराजजी आप काल द्रव्य को मानते हो, तब महाराज ने कहा क्यों नहीं मानते ? अवश्य मानते हैं, तब युवक बोला किस रूप में मानते हो ? तो महाराज ने कहा कि वह जिस रूप में है उसी रूप में मानते हैं। यह सुनकर वह बोला मैं नहीं मानता जो दिखता नहीं उसे कैसे माने ? जब आचार्य श्री ने कहा आप भी मानते हो तब वह युवक बोला आप कैसे कह रहे हो कि मैं मानता हूँ आचार्य श्री बोले मैं तो कह रहा हूँ। फिर वह युवक बोला आखिर आप किस आधार से कह रहे हैं, तब आगम की गहनता को जानने, समझने वाले गुरुदेव बोले आपने जो हाथ की कलाई में घड़ी बाँध रखी है, आखिर वह क्यों बाँध रखी है ? वह बोला समय देखने के लिए। तब महाराज बोले भैया यह समय जो आप देख रहे हैं, यही तो काल द्रव्य है। इससे पृथक् काल द्रव्य नहीं है। ये बात अलग है, तुम अभी व्यवहार काल को देख रहे हो निश्चय काल को तुम देख ही नहीं सकते। अंत में वह युवक महाराजश्री को नमोऽस्तु कर अपनी शंका का समाधान पाकर गलत धारणाओं का विसर्जन कर चला गया।
  13. वे सबके भले की सोचने वाले, आचार्य पीठिका पर विराजमान रहकर हित का चिंतन, पर के हित का चिंतन, शब्दों के अर्थों को समझकर समजाइस देना उनका परम कर्तव्य था, जब कोई किसी को हँसी मजाक करके चिड़ा देता था तब वे कहते थे क्या घाव हो गया। है। जब हम परेशान होंगे तो परेशान किये जायेंगे, सहन करेंगे तो परेशानी से, चिड़ावे से बच सकते हैं अन्यथा दूसरा कोई तरीका नहीं है। आचार्य श्री के श्री मुख से १८.१०.२००४, शुक्रवार तिलवाराघाट, जबलपुर
  14. आओ रे खुशियां मनाओ रे , आये गुरुवार हमरे गांव ?????????? प्रातःस्मरणीय परमपूज्य आचार्य गुरुवर, महामुनिराज आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के पराम्प्रभावक शिष्य मुनि श्री 108 प्रशान्त सागर जी महाराज,पाठशाला प्रणेता परमपूज्य मुनि श्री 108 निर्वेगसागर जी मुनिराज एवं परमपूज्य मुनिराज विसद सागर जी ससंघ की मंगल आगवानी धार्मिक नगरी गंज बासौदा में ऐतिहासिक मंगल आगवानी हुई। ?????????? मुनि संघ के प्रवेश के साथ ही नगर में धर्म की वहार । ?????????? मुनि संघ की नगर के युवाओं पर विशेष अनुकंपा, आज से ही नगर के सभी जैन विद्यार्थी जो कक्षा ८ या उससे ऊपर अध्यनरत है दोपहर ३ से ४ विशेष ज्ञान प्राप्त करने हेतु आए। स्थान - महावीर विहार महावीर मार्ग ,गंज बासौदा। अधिक जानकारी के लिए _भैया शिरिल जैन,भैयाअंकेश जैन ,भैया प्रतीक जैन (गोकुल) से संपर्क करें।_ संपर्क सूत्र 9827250071 पूज्य महाराज जी संबंधी जानकारियों के लिए व्हाटसअप समूह में जुड़ने के लिए 9425636118 पर संपर्क करें। हमारी वेबसाइट www. vidhyasagarpathshala.com पर भी सर्च कर सकते हैं। administrator Avinash jain (Tony)
  15. आँगन में दादाजी बैठे है, उनकी गोदी में नाती बैठा है, दोनों प्रातःकाल की सुनहरी धूप का आनन्द ले रहे है। इसी बीच भीतर से आवाज आती है, ले जाओ..., ले जाओ....., नाती उछल कर भीतर जाता है, भीतर में उसे कहा जाता है यह लडडू तुम्हारे लिए और यह लडडू दादाजी के लिए है। अब वह नाती नाचता हुआ लडडू खा रहा है, दादाजी देखते हुए सोचते है यह होनहार है, अभी इसे अनुभव नही है। फिर इसके उपरांत जो दादाजी को लडडू मिला था, उसमें से भी आधा लडडू नाती को दे देते है इस बार तो कहना ही क्या, नाती और अधिक नाचने लगता है। अब तत्व दृष्टि से घटाए बालक अवस्था में अज्ञान दशा रहती है, वह किसमे सुख है, किसमे दु:ख है, इसका ज्ञान नही कर पाता। वृद्धावस्था में उसे ज्ञान होता है, वह जानता है कि, किन किन पदार्थों का मैंने अनुभव कर लिया, अब उछलने, कूदने की तो बात ही नही है। इसी तरह ज्ञान दशा होने पर, मांगने की बात नही वस्तु स्वरूप होने पर, वह छोटी झोली को, बड़ी झोली बनाने की बात नही करेगा। अभी पूजन में बार बार एक ही लाइन को दोहराया जा रहा था। "मेरी झोली छोटी पड़ गई रे..... इतना दिया गुरुवर ने......" मैं तो अब भगवान से यही प्रार्थना करता हूं कि इनकी झोली ही समाप्त हो जाए क्योंकि जो भी झोली में लेगा, दूसरा उससे बड़ी झोली की बात करेगा, इस लिये बिन मांगे सब काम हो जाए। पपौराजी 7 जून गुरुवार के प्रातःकालीन प्रवचन |
  16. परिग्रह दुख का कारण नहीं है, उसके प्रति गहनता एवं मूर्च्छा का भाव दुख का कारण जान पड़ता है, इसलिए आचार्य ज्ञानसागरजी कहते थे-सुख को चाहने वालों के लिए दुख के कारण मोह के गहन भाव का त्यागकर देना चाहिए, क्योंकि आचार्य नेमिचंद्र महाराज ने भी कहा है- ‘मा मुज्झह' (मोह मत करो), मुनि शब्द का अर्थ भी यही ध्वनित होता है। जिसने मोह को नष्ट कर दिया एवं मोक्ष की अभिलाषा रखता है। पापों से मौन रहता है। वही मोह पर विजय प्राप्त कर सकता है। आचार्यश्री के श्री मुख से २७.०८.२००४, शुक्रवार
  17. फूल की खुशबू से प्रभावित होकर खुशबू का रसिक खिचा चला आता है। ऐसे ही आचार्य श्री ज्ञानसागरजी के ज्ञान बल से प्रभावित होकर स्वाध्यायी खिचे चले आते थे। ऐसे ही एक दिन जब वे एकान्त में बैठे हुए तत्त्व चिन्तन में निमग्न थे तब एक सज्जन आये और नमोऽस्तु करके बैठ गये। प्रतिदिन की भाँति आज भी तत्त्व चर्चा करने लगे तब उन्होंने प्रश्न किया-महाराजश्री कषाय की परिभाषा क्या है? महाराज श्री ने आगम में वर्णित कषाय की परिभाषा उन महाशय को बता दी। फिर वे सज्जन गुस्से में बोले आप जो बता रहे हैं, ऐसा नहीं है। महाराजजी ने कहा मुझे तो आगम से जैसी परिभाषा ज्ञात हुई है, उसी के अनुरूप उसका प्रयोग भी दिख रहा है। तब उन सज्जन ने कहा कैसा प्रयोग दिख रहा है ? तब महाराज ने कहा आप जैसे बोल रहे हो यही तो साक्षात् कषाय का प्रयोग की हुई परिभाषा कस का अर्थ होता है संसार एवं आय का अर्थ है आना अर्थात् जिससे संसार की वृद्धि हो उसका नाम कषाय है। आत्मानं कषति इति कषायः।' यानी जो आत्मा को कसती है, उसका नाम कषाय है।महाराज श्री से कषाय की व्याख्या सुनकर वे सज्जन मौन रह गये और वापस चले गये। सर्वार्थसिद्धि की वाचना पर १०.०८.२०००, गुरुवार, अमरकंटक (म.प्र.)
  18. व्यवहार में कोई भी यात्रा हो वह यात्रा बिना सहारे के नहीं होती। व्यवहार में कोई वाहन से चलता है तो कोई पैदल चलता है, लेकिन संयमी साधु सत्य के सहारे चलता है असंयमी यदि असत्य के सहारे चलता है, तो वह लड़खड़ाके गिर जाता है। पण्डित भूरामल की अवस्था से लेकर क्षुल्लक एवं ऐलक ज्ञानभूषण और मुनि ज्ञानसागरजी आचार्य ज्ञानसागरजी का सम्पूर्ण जीवन सत्य के आधार पर चलता था। इसी बात को अपने शिष्यों को समझाते वक्त उन्होंने कहा था कि “असत्य के बिना विसंवाद नहीं होता विसंवाद की जड़ यदि कोई है तो वह है असत्य संवाद।” असत्य से डरने वाले एवं सत्य पर चलने वाले आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज थे।
  19. वे पात्र कुपात्र के पारखी थे जैसे जौहरी हीरा पत्थर की पहचान कर लेता है ऐसे ही वे रागी और वैरागी की पहचान कर लेते थे। उन्हें विरोध से डर नहीं था बल्कि अपनी परख के ऊपर भरोसा था। व्यक्ति दो पैसे की हण्डी (मिट्टी का घट)भी ठोक बजाकर लेता। है वैसे ही वे ठोक बजाकर व्रत देते थे। जब आचार्य प्रवर श्री देशभूषणजी महाराज के संघ से ब्रह्मचारी विद्याधर आचार्य श्री ज्ञानसागरजी के संघ में प्रवेश पाने हेतु आये तब उन्होंने पूछा ? ब्रह्मचारी जी तुम्हारा नाम क्या है? तो उत्तर मिला महाराजश्री मेरा नाम विद्याधर है और मैं दक्षिण प्रान्त से आपके संघ में विद्याध्ययन हेतु आया हूँ। तब वे पारखी बोले ऐसे तो बहुत से विद्याधर आते हैं और विद्याध्ययन करके विजयार्द्ध की श्रेणी में उड़ जाते हैं। तब विनीत स्वर में ब्रह्मचारी जी बोले मेरा आजीवन सवारी का त्याग। इस प्रकार के त्याग की भावना उनकी बचपन से ही थी। तब कहीं एक त्यागी को (ब्रह्मचारी विद्याधर को) महात्यागी (आचार्य श्री ज्ञानसागर) मिले (प्राप्त हुए) गये। ऐसे थे पात्र की गवेषणा करने वाले अनुभवी दृढ़ विश्वासी पूज्य गुरुदेव।
  20. विद्या और ज्ञान एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, कोई ज्ञान के आधार से चलता है तो कोई विद्या के आधार से चलता है, चलने की क्रिया दोनों में होती है रुका कोई नहीं दोनों ही गतिमान/प्रगतिमान हैं, ये तो व्यक्ति की रुचि पर आधारित है। आचार्य प्रवर ज्ञानसागरजी महाराज को ब्र. पं० भूरामल की अवस्था से ही ज्ञान अभ्यास के प्रति बड़ी रुचि थी। इसके लिए उन्होंने बनारस में गंगा के घाट पर गमछे बेचकर धनोपार्जन कर ज्ञान प्राप्तकर विद्याध्ययन करते थे। इसी बचपन की स्मृति के आधार पर उन्होंने एक बार कहा था कि आचार्य श्री कुन्दकुन्द को ज्ञान बहुत पसन्द है तो आचार्य समन्तभद्रजी को विद्या।" एक अध्यात्म ग्रन्थ के रचयिता थे तो दूसरे न्याय ग्रन्थों के।
  21. कार्य की सफलता के लिए विशेष ज्ञान की आवश्यकता पड़ती है। क्योंकि बिना साधन के कार्य हो ही नहीं सकता, कारण से ही कार्य सधा है कारण के अभाव में कार्य की निष्पत्ति होना सम्भव नहीं है। यही साधक की साधना की सफलता की सीढ़ी है सीढ़ी के द्वारा ही लक्ष्य की प्राप्ति होती है। वे ज्योतिष शास्त्र में जितना विश्वास नहीं रखते थे उतना स्वर ज्ञान में विश्वास रखते थे। स्वर ज्ञान साँसों की क्रिया पर आधारित ज्ञान सूर्य और चन्द्र नाम के दो स्वर हुआ करते हैं, अलग-अलग समय भिन्न-भिन्न स्वर चला करते हैं। इसे स्वर साधक जानते हैं और इन स्वरों के द्वारा अपना कार्य सिद्ध कर लेते हैं। ऐसा ही एक बार श्री ज्ञानसागरजी महाराज ने मुनि विद्यासागरजी से कहा था कि ज्योतिष भले ही फेल हो सकता है किन्तु स्वर ज्ञान कभी भी फेल नहीं हो सकता।
  22. व्यापार वही है, जहाँ नफा ही नफा हो हानि की बात नहीं, वही तो सच्चा अच्छा व्यापारी है। ग्राहक दुकान पर आये और बिना कुछ क्रय किए खाली न जाये यही तो व्यापारी की कुशलता है। जो ग्राहक दुकान पर आता है माल देखकर भाव पूछकर चला जाता है वह समय को और बर्वाद कर जाता है, त्यागी ऐसे ग्राहकों से सावधान रहे उनको अपना माल न दिखायें तब कहीं त्यागी के निर्दोष व्रत पलते हैं। और समय की बचत कर वह आत्म तत्त्व को पहचानने में समय दे पाता है। ऐसी पैनी दृष्टि रखने वाले आचार्य प्रवर श्री ज्ञानसागरजी महाराज कहते थे कि ऐसे ग्राहकों से बचना चाहिए जो दुकान पर आते हैं और मात्र माल की पूछताछ तो करते हैं किन्तु माल नहीं खरीदते ऐसे लोग ही मोक्षमार्ग के बाधक तत्त्व हैं, समय का सदुपयोग करने वाला ही सही व्यापारी है। जैसे-व्यापारी पाई-पाई का हिसाबकिताब रखता है ऐसा ही हिसाब त्यागी को रखना चाहिए।
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