चाहे ब्रह्मचारी हों, प्रतिमाधारी हों, क्षुल्लक हों, ऐलक-मुनिआर्यिका हों, सभी को चातुर्मास में एक स्थान पर रहने की आगम शास्त्रों की आज्ञा है। साधना का समय भी चातुर्मास में होता है, पर अपने-अपने पद के अनुसार ब्रह्मचारी गण २ माह का चातुर्मास करते हैं, तो पिच्छिका धारी आषाढ़ शुक्ल १४ से कार्तिक कृष्ण १४ तक भगवान् महावीर के निर्वाणोत्सव दीपावली तक।
ऐसा ही प्रसंग पण्डित भूरामल शान्तिकुमार के जीवन में आया। जब उन्होंने उत्तरप्रदेश के मंसूरपुर गाँव में तीन चातुर्मास किये तभी एक चातुर्मास के समय वर्षा नहीं हुई तब ग्रामवासी कुछ घबड़ाये उस समय ब्रह्मचारीजी ने धैर्य बँधाते हुए अपने नाम को सार्थक करते हुए कहा शांति रखो पानी अवश्य बरसेगा। ठीक ऐसा ही हुआ क्योंकि त्यागियों के वचन खाली नहीं जाते। १६ दिन का पक्ष आया जब शान्तिविधान का ब्रह्मचारीजी ने आयोजन रखवाया और घंटे पर मंत्र लिखा गया घंटा बजते ही जल की वर्षा होने लगी। वहाँ के अन्य मतावलम्बियों में ऐसी धारणा थी कि ब्रह्मचारी बाबा आये हैं पानी रोक दिया है, पानी गिरते ही गलत धारणाओं का खण्डन हुआ और जिनशासन की प्रभावना हुई।
इसी ग्राम के मंदिर में अक्षयतृतीया को भगवान् के सामने क्षुल्लक दीक्षा ली और क्षुल्लक ज्ञानभूषणजी नाम रखा। इसी मंदिर में एक बार एक चोर घुसा था। वहाँ पं० भूरामल ब्रह्मचारी का हस्तलिखित साहित्य का बक्सा रखा था, उसे धन का बक्सा समझकर चोर ले गये बाहर जाकर खोलकर देखा तो मात्र कागज ही कागज मिले। क्रोध के वशीभूत होकर मंदिर जी में रखे लालटेन से मिट्टी का तेल निकाल कर उस बक्से पर डाल दिया और उसमें आग लगा दी पूरा साहित्य जल गया, उसमें से कुछ साहित्य बचा, जिसमें मानव धर्म की प्रति मिली जो आज सबको पढ़ने मिल रही है | सच्चे-अच्छे त्यागी चातुर्मास की साधना से प्रभावना तक पहुँच जाते हैं, ऐसे प्रभावना के प्रभावक साधक आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज थे।