साधक आलम्बन से नहीं, बुद्धि के बल से, क्षयोपशम के आधार पर, युक्तिपरक नीतियों के द्वारा कार्य के आयाम को गति प्रदान करती है। यही उनकी प्रगति का कारण हुआ करता है।
बात उस समय की है-जब आचार्य ज्ञानसागरजी स्वाध्याय कराते थे, उस समय मुनि विद्यासागरजी उनसे बिना ग्रन्थों के पढ़ा करते थे, जब वे एक बार अष्टसहस्री पढ़ा रहे थे, तब उनके हाथ में ग्रन्थ नहीं था, उन्हें श्लोक और विषय याद रहते थे; पूर्व स्मृति के अभ्यास के कारण, इसलिए वे आलम्बन से बचते थे, क्योंकि आलंबन लेने से वस्तु का रखरखाव करना पड़ता है, टूटने-फूटने, फटने, गलने, जीर्ण-शीर्ण होने का भय बना रहता है, इसलिए वे आलंबन नहीं निरालम्बनता के धनी थे। वैसे भी वृद्धावस्था के कारण चश्में का प्रयोग करते थे, मोतियाबिंद का आपरेशन होने से दृष्टि भी कमजोर हो गयी थी। इस कारण भी वस्तुओं के उपयोग से बचना चाहते थे।
आचार्य श्री जी के श्री मुख से
१८.०५.२००३, रविवार
कुण्डलपुर सिद्धक्षेत्र (मध्यप्रदेश)