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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. ग्रन्थ की उपयोगिता के लिए उसकी भाषा के रूपांतर की भी कभी आवश्यकता हो जाती है, विषय को समझने के लिए भाषांतर की आवश्यकता पड़ सकती है। लेकिन सभी ग्रन्थों का भाषांतर हो ऐसा कोई जरूरी नहीं है। इससे मूलभाषा के प्रति लोगों में अनास्था का भाव उत्पन्न होगा, मूलभाषा अर्थ की विशालता को लेकर चलती है। यही ग्रन्थ की गरिमा का कारण हुआ करती है। इसलिए आचार्य ज्ञानसागरजी सभी ग्रन्थों के भाषांतर के लिए तैयार नहीं होते थे। वे कहते थे-न्याय और व्याकरण का भाषांतर नहीं होना चाहिए। यह अनुचित कार्य है। इससे मूलधन खो जायेगा। आचार्यश्री के श्री मुख से १९.१२.२००३, शुक्रवार कसायपाहुड तीसरी पुस्तक वाचना, बिलासपुर (छत्तीसगढ़)
  2. जिनवाणी विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार https://vidyasagar.guru/quotes/anya-sankalan/jinavaanee/
  3. व्रतों के पालन से व्यक्ति में बड़प्पन आता है। व्रतों के प्रति भीति से ओछापन आता है वे इस ओछापन से बचने का संकेत दिया करते थे। व्रतों के प्रति बहुमान रखना ही व्रती की निष्ठा/प्रतिष्ठा का कारण बनता है। गर्मी, सर्दी, वर्षा ये तो बाह्य हैं, लेकिन अंतरंग साधना के लिए पाँच अणुव्रत तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत इस प्रकार १२ व्रत, १२ तप के समान हैं फिर नौ तपा से क्या डरना ? ऐसी व्रतों के प्रति निष्ठा रखने वाले तपोनिष्ठ आचार्य श्री ज्ञानसागर महाराजजी कहते थे।९ तपा से १२ तप बड़े हैं।
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