ग्रन्थ की उपयोगिता के लिए उसकी भाषा के रूपांतर की भी कभी आवश्यकता हो जाती है, विषय को समझने के लिए भाषांतर की आवश्यकता पड़ सकती है। लेकिन सभी ग्रन्थों का भाषांतर हो ऐसा कोई जरूरी नहीं है। इससे मूलभाषा के प्रति लोगों में अनास्था का भाव उत्पन्न होगा, मूलभाषा अर्थ की विशालता को लेकर चलती है। यही ग्रन्थ की गरिमा का कारण हुआ करती है। इसलिए आचार्य ज्ञानसागरजी सभी ग्रन्थों के भाषांतर के लिए तैयार नहीं होते थे। वे कहते थे-न्याय और व्याकरण का भाषांतर नहीं होना चाहिए। यह अनुचित कार्य है। इससे मूलधन खो जायेगा।
आचार्यश्री के श्री मुख से
१९.१२.२००३, शुक्रवार
कसायपाहुड तीसरी पुस्तक वाचना, बिलासपुर (छत्तीसगढ़)