धर्म का मार्गदर्शन, धर्म का उपदेश एक व्यक्तिगत विचारधारा को लेकर चला करता है, दूसरा सामूहिक विचारधारा को लेकर चला करता है, दूसरा सामूहिक विचारधारा को लेकर चला करता है, धर्म का उपदेश सबके हित के लिए होता है और धर्म का मार्गदर्शन व्यक्ति की योग्यता के अनुसार हुआ करता है। उपदेश को आदेश समझ कर यदि सुनने की योग्यता मनुष्य में आ जाये तो फिर बिना मार्गदर्शन के काम चल जायेगा।
बात उस समय की है-आचार्य ज्ञानसागरजी चर्चा के दौरान कह रहे थे, यदि व्यक्ति-शिष्य उपदेश को ही आदेश माने तो आदेश देने की आवश्यकता नहीं पड़ती। यदि उपाध्याय परमेष्ठी का उपदेश ही आदेश मानकर ग्रहण करे तो आचार्य महाराज को आदेश नहीं देना पड़ेगा। यह सुनकर लगा वह उपाध्याय परमेष्ठी को आचार्य पद पर स्थापित होकर भी बहुमान की दृष्टि से देखा करते थे, क्योंकि आदेश को शत्रुवत् कहा है। इसलिए बहुत आवश्यक होने पर आदेश की प्रक्रिया का प्रयोग किया जाता है।
आचार्यश्री के मुख से