वे पात्र कुपात्र के पारखी थे जैसे जौहरी हीरा पत्थर की पहचान कर लेता है ऐसे ही वे रागी और वैरागी की पहचान कर लेते थे। उन्हें विरोध से डर नहीं था बल्कि अपनी परख के ऊपर भरोसा था। व्यक्ति दो पैसे की हण्डी (मिट्टी का घट)भी ठोक बजाकर लेता। है वैसे ही वे ठोक बजाकर व्रत देते थे। जब आचार्य प्रवर श्री देशभूषणजी महाराज के संघ से ब्रह्मचारी विद्याधर आचार्य श्री ज्ञानसागरजी के संघ में प्रवेश पाने हेतु आये तब उन्होंने पूछा ? ब्रह्मचारी जी तुम्हारा नाम क्या है? तो उत्तर मिला महाराजश्री मेरा नाम विद्याधर है और मैं दक्षिण प्रान्त से आपके संघ में विद्याध्ययन हेतु आया हूँ। तब वे पारखी बोले ऐसे तो बहुत से विद्याधर आते हैं और विद्याध्ययन करके विजयार्द्ध की श्रेणी में उड़ जाते हैं।
तब विनीत स्वर में ब्रह्मचारी जी बोले मेरा आजीवन सवारी का त्याग। इस प्रकार के त्याग की भावना उनकी बचपन से ही थी। तब कहीं एक त्यागी को (ब्रह्मचारी विद्याधर को) महात्यागी (आचार्य श्री ज्ञानसागर) मिले (प्राप्त हुए) गये। ऐसे थे पात्र की गवेषणा करने वाले अनुभवी दृढ़ विश्वासी पूज्य गुरुदेव।