विद्या और ज्ञान एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, कोई ज्ञान के आधार से चलता है तो कोई विद्या के आधार से चलता है, चलने की क्रिया दोनों में होती है रुका कोई नहीं दोनों ही गतिमान/प्रगतिमान हैं, ये तो व्यक्ति की रुचि पर आधारित है। आचार्य प्रवर ज्ञानसागरजी महाराज को ब्र. पं० भूरामल की अवस्था से ही ज्ञान अभ्यास के प्रति बड़ी रुचि थी। इसके लिए उन्होंने बनारस में गंगा के घाट पर गमछे बेचकर धनोपार्जन कर ज्ञान प्राप्तकर विद्याध्ययन करते थे। इसी बचपन की स्मृति के आधार पर उन्होंने एक बार कहा था कि आचार्य श्री कुन्दकुन्द को ज्ञान बहुत पसन्द है तो आचार्य समन्तभद्रजी को विद्या।" एक अध्यात्म ग्रन्थ के रचयिता थे तो दूसरे न्याय ग्रन्थों के।
Edited by संयम स्वर्ण महोत्सव