माता उपकारक तत्त्व है, यदि पुत्र भी उपकारक तत्त्व का परिपालन करता है तो उसका यह कर्त्तव्य बनता है, जो धर्म की डोर का काम करने लगता है। माँ, पुत्र के हित के लिए कष्टों के अम्बार को झेलने के लिए एक सैनिक के समान कटिबद्ध रहती है। ऐसी माता की बात को धर्मात्मा पुरुष अक्षरशः पालन के लिए तैयार रहता है। माँ की आज्ञा ही उसका धर्म होता है। ऐसे ही गुणों से आच्छादित बालक भूरामल छाबड़ा थे। उपनाम ‘शान्त कुमार' था। लेकिन धर्म का भाव/वैराग्य का भाव मन में उत्पन्न होने पर संसार के राग-रंग में नहीं फँसना चाहना तो माता जिनवाणी की सेवा में लगकर ग्रामीण बालकों को जैन तत्त्व से ज्ञात कराकर जिनवाणी के रस में डुबोने के कार्य में संलग्न हो गये और समय के खालीपन को कलम के द्वारा कागज पर जिनवाणी को भरने का काम कर नये ग्रन्थों के उद्भव में अपने को लगा लिया। नित्य श्रावक धर्म का पालन कर पिता से रहित माँ अर्थात् पति से रहित माँ की सेवा कर पति के वियोग को दूर कर मात्र प्रेम की ओर अग्रसर होते हुए भूरामल अपने उम्र की वृद्धि की ओर विहार करते रहे। माँ ने वचन ले लिया कि तुम तब तक यहाँ रहोगे जब तक में इस संसार में रहूंगी क्योंकि तुम्हीं मेरे सहारे हो, क्योंकि धर्मात्मा पुत्र ही धर्ममय मरण कराने की योग्यता का धारक तत्त्व हुआ करता है। माँ ने अपनी ममता में बाँधकर जिनवाणी का ऐसा रसिक बना दिया कि लौकिक जगत्, लौकिक शास्त्र, लौकिक व्यक्ति, नाते, रिश्ते से दूरी बढ़ती गई और जिनवाणी के करीब पहुँचकर अष्टप्रवचन मातृका का ज्ञान दिन-प्रतिदिन बढ़ता चला गया। सत्य है।
माता के प्रेम में इन अष्ट प्रवचन माताओं के प्रेम में बाँधकर आत्म सुधार में लगा दिया और जन्म दात्री माँ के वचन को पूरा कर भाव सुधार अपना भव सुधारने के लिए अणुव्रतों की दीक्षा को धारण कर क्षुल्लक ज्ञानसागर का पद प्राप्त किया।