साधक साधना करे साधन की चिंता के परे शरीर भी साधना का एक साधन है। लेकिन उसके अनुसार नहीं चलना, आत्मभावों के अनुसार चलना, साधक की साधना का कमाल है।
बात उस समय की है, जब मुनि ज्ञानसागरजी का साधना काल चला करता था, तब वे शरीर के अनुसार अपनी क्रिया नहीं करते थे, आत्म परिणामों की विशुद्धि के अनुसार लब्धि स्थानों को प्राप्त करते हुए प्रमाद रहित क्रिया-चर्या के धनी सम्राट् थे, इसलिए वे हमेशा यह मारवाड़ी शब्द बोलते हुए नजर आते थे, यह शरीर तो टट्ट है, कितना ही खिलाओ, पिलाओ, बैठाओ, लेकिन मानता नहीं है और ऊपर से तानता और है। तब सुनकर लगा कि उन्हें शरीर की नौकरी पसंद नहीं थी आत्मगत साधना ही पसंद थी।
आचार्यश्री मुख से