विनय मोक्ष का द्वार है, ऐसा शास्त्रों की भाषा से ज्ञात होता है। आगम सूत्र भी इसी बात को प्रदर्शित करते हैं। विनयशीलता भी शीलव्रत से कमजोर नहीं मानी जाती है। विनय माया भाव से रहित होती है तो शुद्धता की, पवित्रता की, निर्मलता की जननी बन जाती है। जैसे नारी, बिना बिंदिया के शोभा को प्राप्त नहीं होती, वैसे ही मनुष्य का आभूषण विनय हुआ करता है। ब्रह्मचारी भूरामल, पण्डित भूरामल ने विनय को आत्मसात किया। विनय के बलबूते पर जिनवाणी का श्रवण प्रारम्भ हुआ। जिनवाणी को देखकर जिसका माथा झुक जाता है। यह ऊपर उठने की शुरूआत का प्रथम सोपान हुआ करता है। जिनवाणी को सुनना, पढ़ना ही महत्त्वपूर्ण नहीं माना जाता। उसके अनुसार चलना हो तदनुरूप विनय मानी जाती है। जिनवाणी के शब्द का परिवर्तन नहीं करना, न करवाना, जैसा है वैसा प्रकट करना, यही विनय की धारा हुआ करती है। उन्होंने जिनवाणी को हमेशा अपने से ऊपर रखा। जैसे सोलहकारण भावनाओं में तीर्थंकर प्रकृति के बंध के कारणों में विनय सम्पन्नता के गुण को मुख्यता प्रदान की गई है। यह मुनियों के अधिकार की वस्तु हुआ करती है। मुनि जीवन को प्राप्त कर मुनि ज्ञानसागर नाम की संज्ञा को प्रकट किया। मुनि जीवन में विनयशीलता इतनी बढ़ती चली गई कि जिनवाणी सरस्वती माता उठते-बैठते जागते समय भी जिनवाणी को नमन कर मंगलाचरण कर अपने स्वाध्याय और लेखन को प्रारम्भ कर लिखने के बाद कभी भी छपने की, प्रकाशन की बात नहीं करते थे, क्योंकि उस समय प्रिंटिंग व्यवस्था शुद्ध नहीं थी। इसलिए भी मन नहीं होता था। कहीं जिनवाणी का अनादर न हो जावे। जब आचार्य धर्मसागरजी से मिलना हुआ तब भी ज्ञान वृद्ध होने पर भी तपोवृद्ध आचार्य के प्रति विनय भाव यथाविधि बना रहा। अहंकार से कोसों दूर थे। जिनवाणी के ममकार से भरे हुए थे। इसलिए विनयाचार का सदा पालन करते हुए हमारी आँखों को दृश्यमान होते थे।