वे साधना के साथ शब्दों के खेल के भी बादशाह थे। वैसे शब्द को ब्रह्म कहा है। शब्द ही उनकी खुराक थी, शब्द से उनके चिंतन को बल मिलता था। वे इस शब्द बल के आधार पर साहित्य का सृजन किया करते थे। वे मौलिक रचना के एक धनी सम्राट थे। संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश उनके लिए बोलचाल की भाषा जैसी थी।
वे एक बार मुनि विद्यासागरजी को पढ़ा रहे थे तब उन्होंने शब्दों का एक खेल दिखाया और कहा “ये साक्षराः भवन्ति ते विलोम रूपेण राक्षसाः भवन्ति।” यहाँ आचार्य महाराज का यह भाव था कि साक्षर यानी पढ़ा लिखा जो इससे हटकर चलता है वह ठीक इसके उल्टे शब्द का वाचक अर्थात् राक्षस बन जाता है तब शिष्य विद्यासागर शब्द वैचित्र्य देखकर गुरु का यह साहित्य शब्द खेल देखकर प्रसन्न हो उठे।
इसी क्रम में एक बार उन्होंने शिष्य को सम्बोधन करते हुए कहा था कि संस्कृत विद्वानों की भोग्य वस्तु है शब्दालंकार यह एक गणित है एवं अर्थालंकार में शब्द कैसे भी हों, फिर भी उसमें गूढ़ता रहती है। तब शब्दों के खिलाड़ी को इसमें आनंद आता है। ऐसे शब्दों के साथ खेलने वाले आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज थे।