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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
अंतरराष्ट्रीय मूकमाटी प्रश्न प्रतियोगिता 1 से 5 जून 2024 ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • भाषाविद्

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    भाषा अपने रूप को रंग को लोक जगत् में प्रसारित करती है। भाषा की कमी, भाषा पर प्रश्न चिह्न लगा देती है। शुद्ध-विशुद्ध भाषा, भाषा के मनीषियों की चहेती बन जाती है। सीधी भाषा, सरल भाषा, बोलचाल की भाषा हुआ करती है। कुछ भाषाएँ कठिनता को लेकर शब्द की गहनता में डुबा कर साहित्य को परिपक्व बनाती हैं। पण्डित भूरामल ने ऐसी शुद्ध-विशुद्ध भाषा संस्कृत को, हिन्दी को अपने साहित्य का आधार बनाया। भाषा ज्ञान को प्राप्त करने के लिए श्रम की साधना के द्वारा अर्थ को प्राप्त कर भाषा को हासिल करने में निर्लोभ प्रवृत्ति के कारण सुगमता प्राप्त की। वे भाषा के दोष को अपनी प्रज्ञा की छैनी के द्वारा तोड़ देते थे। उनके साहित्य में छन्द भाषा के दोष से रहित अपने शुद्ध-विशुद्ध भाषा के मनीषीपने को प्रकट करती है। आज चोटी के विद्वान् उनके साहित्य पर कलम चलाने के पहले चिन्तनशील धारा में बहना प्रारम्भ कर देते हैं। वे शुद्ध बोलते थे तो शुद्ध ही लिखते थे। बिना आलम्बन के मौखिक शुद्ध पाठ, पाठकों को विशुद्ध परिणामों की ओर गमन करने के लिए मजबूर कर देता था। वे संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, मारवाड़ी, हिन्दी, ढूंढारी भाषाओं के क्रमशः जानकार थे।

     

    वे भाषा के दोष को नहीं, उसके विशुद्ध रूप से, रंग से, प्रयोजन रखते थे। भाषा को कण्ठ में धारण कर मुख से उच्चारित कर गुनगुनाना, उनके जीवन की आधारशिला जान पढ़ती थी। वे भाषा के मूलरूप से छेड़छाड़ पसंद नहीं करने के पक्षधर मनीषी थे। टिप्पण के माध्यम से अपनी बात को स्पष्ट करने के समर्थ साहित्य साधक थे। कम शब्दों में अधिक रहस्य को प्रकट करने की क्षमतावान श्लोकों का निर्माण कर साहित्य को, जैन साहित्य को समृद्ध बनाने वाले बाल ब्रह्मचारी पण्डित भूरामल को भुलाया नहीं जा सकता है। भाषा साहित्य पर जो भी कार्य उनके द्वारा हुआ है। वह दिगम्बर दीक्षा के पहले का ही जानो।


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