गुरु के गुण में डूबते गहराई से
पहुँच जाते स्वयं तक
और स्वयं की गहराई में डूबते
तो बाहर आ जाते गुरु-तट तक,
विद्या और ज्ञान में अंतर
कहाँ रह गया था!
जो ज्ञान था वह विद्या में
प्रवेश कर चुका था,
तभी तो जनता ने एक कंठ से कहा
विद्यासागर भी यही हैं
ज्ञानसागर भी यही हैं
सिर्फ कुण्ड बदला है
पानी तो वही है!!
परिवर्तनशील है समय
फिसलता जा रहा है रेत की भाँति वह
मनुज अपने नाजुक कर से
काल की सरकती प्रकृति को
कहाँ थाम पाता, कितना पराधीन है वह?
या यूँ कहें कि
वास्तव में स्वाधीन ही है यह
तभी तो परद्रव्य का मनाक्” भी
कुछ कर नहीं सकता,
जिसने संयम की श्वास दी
उसे शिष्य भूल भी नहीं सकता।
जिसने बनाया विद्याधर को विद्यासागर
उन्हें कैसे बिसराया जा सकता?
अतः शिष्य ने
हृदय-पुस्तिका पर धड़कन की टाँकी से
श्वासों का रूप दे उभार लिया,
इस तरह गुरू-सा बन
गुरु का ऋण उतार दिया।
ज्ञानधारा ज्यों-ज्यों बढ़ती गई आगे
त्यों-त्यों धरा पर उकेरती रही यादें
उभरती गयीं अंतर की कुछ बातें
और लिखती गयी...
जब तक रवि-शशि गगन में, तब तक हो गुरू नाम।
भावी भगवन् शिष्य-गुरू, द्वय को नम्र प्रणाम।"
जब-जब पथिक गुजरते
गुरू-शिष्य की कथा पढ़ते...
अद्भुत संबंध की सराहना करते
ज्ञानधारा के लिखे लेख से कुछ सीखते
यूँ गुजर रहा था काल…
कि
सन् चौहत्तर सोनीजी की नसिया में
हो रहे चौमासे में
निज श्रामण्य के अनुभव से
जो लखा सो लिखा
रचा ‘श्रमण शतकम्
प्रथम संस्कृत रचना के रूप में
विमोचन के समय
प्रकाण्ड विद्वान् जगन्मोहनलाल जी शास्त्री ने
किया अवलोकन कृति का
जब समझ न पाये शब्दार्थ
तब ज्ञानी आचार्य विद्यासागरजी कृत
पढ़कर हिन्दी अनुवाद
ज्ञात हुआ अर्थ,
बोले वे
“संस्कृत पढ़ते पढ़ाते हो गए मुझे पचास वर्ष
फिर भी समझ नहीं पाया मैं अज्ञ!"
‘कन्नड़ भाषी' होकर भी
कितनी परिष्कृत है इनकी संस्कृत!
नूतन आचार्य धनी हैं।
विलक्षण प्रतिभा के,
अनूठे संगम हैं
ज्ञान व साधना के,
स्वनाम धन्य, विद्वत् मान्य
प्रबुद्ध चिंतक हैं निज शुद्ध आतमा के।
मैं श्रेष्ठ हूँ यह सिद्ध करने
अज्ञ करता साधना
मैं सिद्धसम हूँ यह अनुभवने
विज्ञ करते आत्म-आराधना।
नहीं है चाहत चित्त में
स्वयं को सच्चा मुनि सिद्ध करने की
चाहत है चेतन में एकमात्र ।
सिद्धिवधू वरने की,
सो पहुँच गये ‘श्मशान घाट'
‘छतरी योजना' नाम से प्रसिद्ध है जो।
एकांत में निर्मोही संत ने किया केशकुंचन
सहज हुआ क्लेश का विमोचन
लगा आसन बैठ गये ध्यान में...
जलती है धू-धू जहाँ देह की चिता...
जलने लगी वहीं विकारों की चिता,
चेतन में लीन होने लगा मन
धाराप्रवाह पवित्र ऊर्जा का
होने लगा आगमन
पूर्वदिशा में सम्मेदशिखर से
पश्चिम में गिरनार से
उत्तर में विदेहक्षेत्र से द
क्षिण में गोम्मटेश्वर से
नैऋत्य से मूलभूत नायक ज्ञायक तत्त्व रूप
निज को निज में थिर करने वाली,
वायव्य से प्रभावित हुई वायु
पाप धूल को उड़ाने वाली,
ईशान से देवाधिदेव के देवत्व की
विकारों को शांत करने वाली,
आग्नेय कोण से पराकर्षण को निस्तेज कर
तप तेज को बढ़ाने वाली,
ऊर्ध्व से अनंत सिद्धों की
पवित्र ऊर्जा का वर्षण
संकल्प-विकल्प का गमन
अधो से मूलाधार की शक्ति प्रदाता
यों दसों दिशा से बहती ऊर्जा…
ज्यों-ज्यों दिखने लगे निज दोष
त्यों-त्यों बढ़ने लगा गुणकोष
अनेक प्रतिकूलताओं में भी
दिखने लगा भव का कूल
आत्मिक सुख का मूल।
जितना-जितना उपयोग गहराया
उतना-उतना आत्मानंद उछल आया,
ज्ञान ने ज्ञान को जाना
अहा! अपूर्व था वह क्षण
दृष्टि ने निज दृष्टा को पहचाना
परमार्थ स्वरूप की ओर दृष्टि होते ही
मिट जाती है सर्व निमित्ताधीन वृत्ति
शुद्धात्म धरा पर ज्ञान वृष्टि होती है।
दिख जाती है अनंत गुण संपत्ति!!
निजात्म तत्त्व की कमनीयता
निहारते-निहारते बीत गये
एक दो नहीं पूरे छत्तीस घंटे
मानो
आचार्य के छत्तीस गुणों को पार कर
जाना चाहते हैं शिवधाम को,
लेकिन
निश्चय के उपरांत
आना पड़ता है व्यवहार में,
संत अभी संसार में हैं।
पर संसार नहीं रखते स्वयं में
धन्य है आपका श्रामण्य।
यूँ कहने लगा धरा का कण-कण
जन-जन का अंतर्मन...