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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
अंतरराष्ट्रीय मूकमाटी प्रश्न प्रतियोगिता 1 से 5 जून 2024 ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • ज्ञानधारा क्रमांक - 84

       (0 reviews)

    देख आज नवाचार्य के

    उदास नयन

    नीरस वदन

    देह की ओर इशारा कर

     

    बोले क्षपक उद्घाटित कर अधर

    यह तो नश्वर पर्याय है।

    कर्म आधीन होने से,

    पर आय है।

    आयु की आय है।

    जब हो जायेगी व्यय आयु

    पर्याय नष्ट हो जायेगी

    धड़कनें रूक जायेंगी

    तब श्वास खो जायेगी;

    क्योंकि

    जहाँ आय है वहाँ व्यय है।

    जिसका होता है उत्पाद

    उसका होता है नाश

    फिर पाने में हर्ष क्यों?

    और खोने में विषाद क्यों?

     

    करना है प्रतीति राग से भिन्न ज्ञान की

    आत्म रसिक बन ।

    करनी है अनुभूति अंतध्र्यान की।

    आतम के ही आत्मीय बन,

    निश्चय से ज्ञान राग से भिन्न है।

    तुम राग नहीं राग के ज्ञायक हो

    यही तो तुम्हारा स्वरूप है।

     

    ज्ञान से ज्ञान में देखो ज्ञान को ही

    इस प्रशस्त राग का भी

    हो जायेगा अभाव सहज ही

    बिखरना स्वभाव है देह का,

    इसे शाश्वत कोई टिका नहीं सकता

     

    अमिट स्वभाव है आतम का

    इसे कभी कोई मिटा नहीं सकता,

    बढ़ा नहीं सकता कोई जीवन की लंबाई

    चाहे कितना कर ले पुरुषार्थ!

    हाँ, बढ़ा सकते गुणों की ऊँचाई

    भेदज्ञान की गहराई...

    आप तो जानते हो ना यह सत्य

    फिर क्यों उद्विग्न हो आचार्य?

     

    अधखुले होठों से

    कह पाये अस्पष्ट कुछ ही

    ‘अब संसार शेष रहा है स्वल्प ही,

    मुझे विश्वास है आपकी आगमानुकूल चर्या से

    शीघ्र सिद्धि पायेंगे अवश्य ही।''

     

    कैसे सहूँ मैं आपके विरह को?

    मेरे तो एक आप ही आधार हैं।

    सब कुछ सौंप दिया है आपको

    एक आप ही तारणहार हैं।

    आपके गुणों का ‘अनुरागी हूँ मैं

    स्वीकारता हूँ इसे मैं,

    क्या सवेरे की लाली

    होती है शाम की लाली-सी ।

    क्या विरागी के प्रति राग की

    और रागी के प्रति राग की ।

    हो सकती है बराबरी कभी?"

     

    तभी बीच में ही मुखरित हुए

    क्षपक ज्ञानसागरजी

    मैं जानता हूँ गुरु के प्रति अनुराग तुम्हें बुलवा रहा है।

     

    मैं मानता हूँ

    शुभोपयोग का अपराध है यह

    जो तुमसे कहला रहा है,

     

    ज्यों कहा मानतुंग स्वामी ने

    कोयल के कुहकने में

    आम्र मंजरी कारण है।

    और मुझे स्तुति करने में

    प्रभु आपकी भक्ति कारण है...

    तुम तो हो विद्या निधि

    जिनवाणी की मिली सन्निधि

    जानते हो ना तुम?

     

    की

    ‘‘चौरे गते वा किमु सावधानम्

    निर्वाण दीपे किमु तैल दानम्"

    चोर भाग जाने के बाद ।

    सावधान रहना किस काम का?

    दीपक बुझ जाने के बाद

    तेल डालना किस काम का?

    आयु पूर्ण होने पर

    संभव नहीं उसे जलाना...।'

     

    इस तरह गुरु-शिष्य की

    वीतरागता से भरी

    गुणानुराग की सुन वार्ता

    दुनिया के सारे दैहिक प्रेम

    लगते हैं स्वार्थी, नीरस से

    गुरु का आत्मिक प्रेम

    पहुँचाता है मुक्ति मंज़िल पे...

     

    जब कर दिया त्याग

    आसन बदलने का भी

    आये कुछ लोग

    ‘आचार्य श्री शिवसागर स्मृति ग्रंथ' हेतु

    लेने कुछ स्मृतियाँ

    क्षपक महामुनि श्री ज्ञानसागरजी से...

    थे जो प्रथम शिष्य श्री शिवसागरजी के

    डरते-डरते आये समीप वे

    सुनते ही बात स्मृति-ग्रंथ की

    बोले- आये हो मेरे गुरू के लिए

    इसमें डरने की बात क्या थी?

    तत्क्षण आशु कवि ने लिख दिए दो श्लोक

    जो आज भी हैं स्मृति ग्रंथ में

    दर्शाते हैं जो गुरु के प्रति अमरभक्ति को

    प्रकट करते हैं जो अंतर शक्ति को…

     

    तन लेटा है क्षपक का

    चेतन जागृत है।

    कर्म द्वारा आवृत है व्यवहार से

    निश्चय से आतम अनावृत है,

    डूबे हैं सुदू...र गहन चिंतन में

    अकृत्रिम जिनालय के दर्शन में…

    मात्र हो गया है शिथिल

    सामर्थ्य भी नहीं इसमें

    सो निहार नहीं सकते चर्म नैनों से,

    लेकिन निहार सकते हैं ज्ञान नयनों से

    स्वाधीन है ज्ञान चक्षु

    कर्माधीन है चर्म चक्षु।

     

    कहता है जैनागम

    जो निज में रत हो गये

    वह भव से तर गये

    र... त... त... र

     

    मग्न हो गये स्वयं में

    अवगाहित हो गये।

    स्वानुभव के समंदर में

    तभी अंदर ही अंदर में...

    झलकने लगा विशाल चैत्यालय

    ऊपर अधर से

    हौले-हौले आ रहा धरती पर

    कि

    अचानक बज उठे सुमधुर वादित्र...

     

    मंद-सुगंध पवन बहने लगी...

    दिव्य रत्नवृष्टि होने लगी...

    पारिजात, नमेरू, मंदार

    घ्राणप्रिय सुगंध भरे सुमन सुंदर-सुंदर

    बरसने लगे...

    नर सुर मुनिवर के हृदय हरषने लगे

    लो! देखते ही देखते

    अनुपम अद्वितीय अकृत्रिम जिनालय

    स्थापित हो गया हृदय-धरा पर

    दोनों कर जोड़े हैं मुनिवर

    और डूब गये चिंतन की गहराई में…

     

    परमानंदी दृश्य देख

    लगा पल भर कि

    नंदीश्वर में आ गये हों

     

    इधर...

    उत्तर में बना है सेतु स्फटिक मणि का ।

    पहुँचाता है जो सरवर मध्य जिनालय तक,

    कई योजनों का विशाल

    हीरे-सा चमकता

    बाहर में बारीक है नक्काशी...

    वर्गों से वर्णन संभव नहीं इसका

    अंतर्नयन विस्फारित किये

    बस देख रहे हैं, देख ही सकते हैं।

     

    आतम आकुल है प्रभु दरश पाने

    चेतना आतुर है परम का परस पाने...

    ज्यों ही रखा चन्द्र स्वर के साथ बायाँ चरण

    सरवर के तट पर, पलक झपकते ही

    आ गया मंदिर का मुख्य प्रवेश द्वार

    विशालता, पवित्रता, स्वच्छता

    अद्भुत है सिंहद्वार की रमणीयता।

    ध्वनि हुई- ओम्... जय-जय-जय,

    निःसहि-निःसहि-निःसहि की

    प्रभु दर्श से प्रभु होने की

    प्रार्थना चल रही है क्षपक संत की…

     

    कि

    ज्यों ही देखा ऊपर की ओर

    दिख गया गगन चूमता शिखर

    राजाओं के मुकुट की भाँति,

    शिखरों का महाशिखर

    देखकर जिसे नृपतियों का भी

    मान हो जाता तितर-बितर

     

    अभिमान गलकर जाता है बिखर

    अपलक निहार स्फटिक मणि का शिखर...

     

    ज्यों ही झुकी पलक

    दिखा इधर नीचे जहाँ प्रवेश द्वार है,

    उसके चारों ओर रत्न चूर्ण से निर्मित

    नानारंग युक्त वलयाकार कोट है,

    चौदिश में स्वर्णिम स्तंभ वाले ।

    चार तोरणद्वार हैं,

    मंगल द्रव्य रखे हैं द्वार के बाहर

    धूपघट भी हैं,

    भीनी-भीनी महक आ रही नासा पुट पर,

    किंतु घ्राणेन्द्रिय जयी संत गंध से परे ।

    लीन हैं अगंध स्वरूप में…

     

    कि

    अचानक लगा

    कोई रोक रहा है मुझे द्वार पर

    तभी संयत स्वर में पुकारा

    हे नाथों के नाथ!

    हे मेरे हृदय प्रकाश!

    हे वीतरागी जिनराज!

    दर्शन पाना चाहता हूँ आपके

    मृत्युजयी बन मिलना चाहता हूँ निज से।

     

    अंतर्मन से की प्रार्थना

    कभी नहीं जाती व्यर्थ

    दूर कर देती सब अनर्थ

    लो !

    पल-भर में ही

     

    मुख्य प्रवेश द्वार के खुल गये कपाट...

    असली रत्नों के प्रकाश की दमक

    अद्भुत सघन पवित्र ऊर्जा से पूरित

    देख अकृत्रिम चैत्यालय की चमक य

    ह मध्यलोक है या ऊर्ध्वलोक

    या है साक्षात् सिद्धलोक!!

     

    बुद्धि काम नहीं कर रही

    मात्र श्रद्धा ही बोल रही ।

    सारी कमनीयता तीन लोक की

    मानो सिमट कर आ गयी हो यहीं,

    प्रथम 'कोली' मण्डप में

    एक सौ आठ स्तंभ में

    सुंदर उकेरे हुए चित्र हैं।

    मानो जीवंत हो बोलने ही वाले हैं।

    फर्श माणिक मणि का

    देखते ही बनता है।

     

    द्वितीय ‘पूजा' मण्डप का

    पुखराज से मण्डित है आँगन

    बारीक कलाकृति से सज्जित,

    यहाँ भी हैं एक सौ आठ स्तम्भ

    मर्त्यलोक” के कृत्रिम जिनगेह में

    भला कौन कर सकता है ऐसी कलाकृति?

    जान सकता है इसे वृहस्पति।

     

    ये आ गया तृतीय श्रृंगार' मण्डप

    यहाँ एक सौ आठ स्तंभों पर

    हैं पंच परमेष्ठी का चित्रण

    चौक ‘चन्द्रकांतमणि' से जडित,

     

    मन आगे बढ़ने को है लालायित

    गर्भगृह में जाने को प्रतीक्षित

    बाहरी परिवेश जब है इतना मनोहर

    तो भीतर भगवान होंगे कितने मनोरम!

    अहा! आनंद! परमानंद!

    जिसके लिए चिर प्रतीक्षित थे नयन...।

     

    आ गया वह गर्भगृह

    परस पाते ही यहाँ का कण-कण

    स्मरण आता है निजगृह...

    शांत अलौकिक वातावरण

    सुगंधित सुवास,

    गर्भगृह का आँगन जगमगा रहा है।

    समूचा 'नीलमणि' से!

    ज्यों ही पड़ी अंतर्दृष्टि प्रथम वेदिका पे…

     

    अकल्पनीय है इसकी कलाकारी

    अनिर्वचनीय है महिमा इसकी,

    प्रतिमा है पाँच सौ धनुष की अविकारी

    अपनी अपूर्व ऊर्जा से । स

    म्पूर्ण वेदिका को आप्लावित कर रही!

    पाकर प्रभु का दर्शन

    हो गये मौन वचन...

    प्रत्येक वेदी पर हैं।

    एक-एक प्रतिमा विराजमान

    आगे-आगे बढ़ते गये...

    ज्यों-ज्यों दर्शन करते गये...

    त्यों-त्यों आत्मानंद में खोते गये…

    मानो अनंत सिद्धों के समीप आ गये!

     

    आँखों की कोर में मूरत समा गई

    कोई हीरे की, कोई स्फटिक की।

    कोई नीलम की, कोई माणिक की

    कोई पन्ना की, कोई पुखराज की

    कोई गोमेद की, कोई गरूड़ मणि की

    कोई चन्द्रकांतमणि की, कोई वैडूर्य मणि की

    कोई स्वर्ण की, कोई चाँदी की

    भाँति-भाँति की जिन प्रतिमाएँ

    दर्शन करते ही जिनके

    मिट जाती हैं भव-भव की पीड़ाएँ…

     

    जो स्वयं रचनाकार हैं।

    विद्यासिंधु चेतन कृति के ।

    ऐसे कृतिकार यति की मति

    करके सबकी विस्मृति

    मूर्ति में ही खो गई है।

     

    आग्नेय कोण में एक रत्नदीप

    जगमगा रहा है संयमित लौ के साथ

    मानो वह अपनी नन्हीं-सी देह में

    समेट लेना चाहता है विराट प्रभु को,

    ऊपर अनेक स्वर्ण धुंघरुओं से

    नाना रत्नमयी नगों से जड़ित है चंदोबा,

    तीन छत्र नूतन स्वर्ण के

    प्रभु की सन्निधि से

    फूले नहीं समाये हैं

    सो झूम-झूम कर

    जिनराज के गुण गा रहे हैं...

     

    समाधि की वेला को सन्निकट जान

    अंतिम वेदिका के समक्ष

    भावों से उत्थित होकर

    लीन हो गये परम में

    जन्म-मृत्यु से परे...।

    निराकार निज चेतन में

    ज्ञान में ज्ञेय निजातम हो

    या प्रभु परमातम हो ।

    और कोई ज्ञेय न हो इसी भावना से...।

     

    अकृत्रिम जिनालय के

    डूबे गहन चिंतन में...

    बीत गया बहुत काल नयन मूंदें,

    तो आचार्य श्री विद्यासागरजी ने

    पूछा मंद ध्वनि से

    सावधान हो महाराज?

    सुनते ही यह आवाज़

    भीतर से बाहर आना पड़ा

    आँखों का कपाट खोलना पड़ा

    खुली पलकों ने

    बिना कहे ही सब कुछ कह दिया।

    ''मैं सावधान हूँ''  

    हौले से यह इशारा कर दिया।


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