क्षीण काय होकर भी
लीन रहते नित ज्ञान-ध्यान में
ज्ञानी गुरू के ज्ञान-गुण में
झर रहा 'समयसार' का रस
छलक रहा है जिनके आचरण से
अध्यात्म अमृत कलश।
बेजोड़ रत्न है यह जैनागम का
पवित्र यज्ञ है यह ज्ञान का
सिरमौर है यह आर्ष का ग्रंथ है यह सारभूत
निर्ग्रथों की अनुभूति का,
अनंत चिदाकाश की
सैर कराता है यह
निज का निज से
मेल कराता है यह
अति सरल है सुनने वाला समयसार' ।
कठिनतम है निजानुभव का सार
सुलभ है चर्चा का मूलाचार
दुर्लभ है भावलिंगी का आचार,
शिरोगम कर सकता कोई भी
पर हृदयंगम नहीं,
वाचन-भाषण कर सकता असंयमी भी
पर पाचन-संवेदन नहीं।
स्मृति रहे।
हो वह निग्रंथ,
किंतु विस्मृति हो निर्व्यथता की भी,
इस तरह गूढ़तम करते चर्चा
कभी शिष्य गुरू से
तो कभी गुरु शिष्य से,
‘समयसार' के आनंद प्रवाह में
बहते-बहते समय का पता ही न चला
दिख रही देह कुटी जीर्ण-सी
गुरु ज्ञानसागरजी की;
तन के हर जोड़ में ।
तीव्र वेदना होने पर भी
कमी न आयी तनिक भी
आत्म संवेदना में
इस वृद्धावस्था में भी
ज्ञानवृद्ध गुरूवर
साधन ले शुद्धोपयोग का
कर रहे प्रबल पुरूषार्थ।
पूरी लगन से
गुरु-सेवा में रात-दिन तत्पर
देख यह सेवा का दृश्य
गगन के तारे भी मुस्काते
काश! यह दृश्य आज के बेटे देख पाते!
आश्चर्य भी आश्चर्य से भर जाता
परमार्थ के लिए निःस्वार्थ
क्या कोई शिष्य ऐसी सेवा कर पाता?
पाकर अछूट धरोहर पुत्र भी
नहीं करता सुश्रूषा
कोई अपने जनक की...।
बढ़ती जा रही
अत्यधिक दिनों दिन पीड़ा
पर अंतर में चल रही
स्वानुभूति के साथ आत्म क्रीड़ा।
निकटस्थ भक्त श्रावक ने
तीव्र पीड़ा देख गुरू की।
रखने सिरहाने
चौकी बनवाई छोटी काष्ठ की,
मना करने पर भी रखने लगे तो
बोले सतेज
“ले आओ मुलायम मखमल की गादी
सुनते ही कजौड़ीमल
उठा चौकी
हो गये नौ दो ग्यारह...
हर आदर्श देख गुरुवर का
प्रेरणा ले उतारते जीवन में
शिथिलाचार से अति दूर
मूलाचार से भरपूर,
सजग रहते पल-पल
तन से निश्चल
मन से निश्छल।
जानते थे वे
दोष दृष्टि खाई-समान
पथ है अवनति का,
गुण दृष्टि तलहटी-समान
मार्ग है प्रगति का,
और गुरु के प्रति
श्रद्धा दृष्टि शिखर-समान
सोपान है उन्नति का।