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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
अंतरराष्ट्रीय मूकमाटी प्रश्न प्रतियोगिता 1 से 5 जून 2024 ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • ज्ञानधारा क्रमांक-85

       (0 reviews)

    अभी भी भीतर जाने की ही

    लौ लगी है

    परम पारिणामिक भाव-स्वरूप की

    निश्चय से निज परमात्मा की

    शाश्वत प्रतीति की आस जगी है...

     

    शहनाई की हल्की-सी आवाज़ सुन

    इंसान घर छोड़

    बाहर चला जाता है,

    तीखी-सी चीख सुनकर

    मानव मंदिर छोड़

    बाहर निकल आता है,

    किंतु स्वानुभूति की धुन सुनते ही

    संत बाहर से

    भीतर चला जाता है।

     

    चेतन पंछी को

    तन-पिंजर से

    उड़ने के मिलने लगे संकेत...

    चाहे कितनी लंबी हो यात्रा

    अंत उसका अवश्य आता

    जीवन की भी एक लम्बी यात्रा

    देह को ले देही करता रहता,

    मरण के समय लगता है।

    मानो क्षणिक कर रहा विश्राम,

    लेकिन पुनः

    नूतन यात्रा का करता आयाम

    नियत है जब मरण ।

    तो क्या खुशी क्या गम?

     

    देह छोड़े मुझे

    इसके पहले ही मैं छोड़ चुका उसे ।

    मेरी साधना का उत्कर्ष ही

    समाधिमरण है,

    समाधि से ही निश्चित होता

     

    शाश्वत सिद्धि का वरण है।

    यूँ चिंतन में गहराते जा रहे…

     

    आज सूर्य है अनमना

    कभी बिखराता प्रकाश

    तो कभी बादलों की ओट में आ जाता,

    किंतु ज्ञान प्रकाश पुंज

    पूरी तरह निभा रहे अपना दायित्व...

    इधर विद्यासिंधु आचार्य

    अपने ही विद्यागुरु को

    दे रहे संबोधन

    पूर्ण सजगता से

    न मे मृत्युः कुतो भीतिः

    न मे व्याधिः कुतो व्यथा''

     

    पूछा- हो आत्मस्थ?

    क्षपक मुनि ने पलक खोल

    कर दिया विश्वस्त...

    आत्म-ज्ञान रूपी वीणा के

    असंख्य प्रदेश रूपी तार से

    झंकृत हो

    शुद्धोपयोग के रस से भीगा

    निजानुभूति का स्वर गूंजने लगा...

    हृदय की धड़कनों का स्वर

    शनैः शनैः मंद होने लगा।

     

    क्षपक आत्मा अंतिम प्रयाण की तैयारी में

    ज्ञान-निधि समेटने लगे

    ज्ञान-चक्षु से आत्म विद्या को

    भीतर ही भीतर निहारने लगे...

     

    एक जून उन्नीस सौ तिहत्तर की

    ज्येष्ठ कृष्णा अमावस्या की

    प्रातः दस बजकर पचास मिनट की

    आ गयी वह घड़ी

     

    डूबती साँसें...

    बुझती निगाहें...

    अंतर्लीन हुई स्वयं में...

    चेतन निकल गया तन से...

    तत्क्षण थम गई हवाएँ

    बहते-बहते रूक गईं सरिताएँ

    अंतिम श्वास को देखने…

     

    शेष रह गई कीर्ति

    संयम साधना की स्मृति

    उन्हीं के संस्कारों की अनमोल कृति

    आचार्य श्री विद्यासागर”।

    ज्ञानसिंधु की अनमोल धरोहर

    सौंप गए समूची धरती को...

     

    फूट गया पानी का बुलबुला

    विघट गया बादल का टुकड़ा-टुकड़ा

    मुरझा गया सुमन, शेष रही महक

    बिजली की खो गई चमक,

    उड़ गया इन्द्रधनुष का रंग

    चल दिया चेतन, पड़ा रहा अंग…

     

    गुरु उत्तीर्ण हुए समाधि करके

    शिष्यत्व सार्थक हुआ समाधि कराके

    आनंद-विरह की वेला थी,

    भीतर से आँखें नम थीं।

     

    आनंद था इसलिए कि

    गुरु की श्रेष्ठ सल्लेखना हुई थी।

    विरह इसलिए कि

    गुरू का अब दर्शन संभव नहीं…

     

    भोगों के लिए

    रोता है भोगी,

    भगवान सम गुरु के लिए

    रोता है ज्ञानी।

     

    गुरू-विरह में बरसे आँसू

    मानो बसरा मोती हैं,

    गुरू-विरह में बरसे आँसू

    गुरु स्नेह की ज्योति है,

    वह मात्र नयन का नीर नहीं

    हीरे-सी उज्ज्वल कणिका है,

    वह मात्र हृदय की पीर नहीं

    गुरू-भक्ति की शुभ मणियाँ हैं।

    इस भाँति प्रकृति ने

    गायीं कुछ पंक्तियाँ...

     

    “अन्ते मतिः सा गतिः''

    अन्त में होती है जैसी मति

    वैसी ही होती गति,

    धन्य ज्ञानसिंधु यति!

    अन्त तक रहकर आत्मस्थ

    हो गये

    मुक्ति के निकटस्थ!!

     

    जन-जन की नज़रें

    ढूँढ़ रही थीं उन्हें

     

    शिष्य हृदय की धड़कनें

    पुकार रही थीं उन्हें,

    लेकिन

    रह गई शेष ज्योति,

    दीपक बुझ गया

    रह गई शेष चमक,

    नक्षत्र डूब गया

    रह गई शेष अरूणाई,

    सूरज ढल गया

    शेष रह गई शीतल पुरवैया

    नदी का जल आगे बढ़ गया…

     

    यही तो है प्रत्येक द्रव्य की स्वतंत्रता

    स्वयं द्रव्य ही है अपना नियंता

    किसी के परिणमन को

    कोई रोक नहीं सकता,

    लो

    ज्ञानधारा की गति मंद हो गई

    स्वयं बहते-बहते

    ज्ञानसागरजी की खोज में…

     

    कभी देखती पर्वत की चोटी पर

    कभी देखती गगन की ओर...

    कभी झरनों के प्रवाह में

    तो कभी प्रकृति की शांत आवाज़ में

    यूँ

    धरती के कण-कण में

    मार्तण्ड की एक-एक किरण में

    निहारती-सी ज्ञानधारा...

     

    दूऽऽऽ र बहुत दूऽऽऽर तक...

    बही जा रही...

    बहते-बहते कहती जा रही

    बीज वपन के उपरांत

    फूटता है अंकुर,

    बढ़ता-बढ़ता बनता तरुवर

    जिस पर खिलते हैं फूल।

    संत की संयम साधना से

    तपाराधना के

    महक रहे यहाँ सुमन,

    यही तो विकास का क्रम है...

    सम्यक् समाधि ही  

    समूचे श्रमण जीवन का श्रम है।

     

    सब कुछ जानती- समझती

    औरों को समझाती

    ज्ञानसिंधु की

    समाधि का संदेश देती...

    बीहड़ जंगलों से गुजरती

    तो कभी नगर-नगर,

    डगर-डगर घूमती

    प्राणी मात्र के भीतर बहती

    नित्य निरंतर प्रवाहिता

    आत्म तत्त्व अवगाहिता

    ध्रुव लक्ष्य की ओर...

    चली जा रही

    ज्ञा ऽऽऽ न धा ऽऽऽ रा ऽऽऽ


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