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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
अंतरराष्ट्रीय मूकमाटी प्रश्न प्रतियोगिता 1 से 5 जून 2024 ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • पंचम खण्ड निजानंद फलास्वादन ज्ञानधारा क्रमांक - 86

       (0 reviews)

    पुण्य भूमि नसीराबाद की

    समाधिस्थली ज्ञानसागरजी की,

    चल दिये वहाँ से...

    अर्पित कर प्रणामाञ्जलि

    साथ में दो क्षुल्लक ब्र

    ह्मचारी था एक

    एक-एक कदम चलते-चलते

    हो रहे थे दू...र इस नगरी से…

     

    भक्तों का समूह भी चल रहा साथ-साथ...

    किंतु किधर जा रहे

    किसी को नहीं यह बात ज्ञात

    राह अनिश्चित है गंतव्य असूझ,

    किंतु गुरू-स्मृति के साथ

    अकंपित चरण बढ़ रहे।

    प्रतिपल अग्रपथ की ओर...

     

    दूसरे ही दिन अंतर्भावों को

    ओढ़ाकर शब्दों के परिधान

    और लिख दी स्तुति

    अपने दीक्षा गुरु ज्ञानसागरजी की,

    आ गया दिवाकर बड़े सवेरे

    एकाकी संतमना का मन बहलाने

    ज्ञानदाता की स्मृति न सताये

    इस भावना से स्वयं देने लगा प्रकाश।

     

    लेकिन गगन सूरज के जड़ प्रकाश

    और ज्ञान-सूरज के चिन्मय प्रकाश में

    अंतर है जमीं-आसमान सा...

    प्रखर प्रखरतम अपनी किरणावलियों से ।

     

    विरह-वेदना से रिसते अश्रु बिन्दुओं को

    स्वेद कणों के बहाने

    बाहर निकाल रहा है,

    दिन में दिवाकर साथी बन

    संत को साथ दे रहा है,

    तो रात्रि में निशाकर

    चाँदनी छिटकाकर

    गुरु के अभाव में शिष्य की

    देखभाल कर रहा है।

     

    इस तरह प्रकृति- पुरूष को

    सँभाल रही प्रकृति  

    ज्यों सँभालती माँ सुत को

    बेटे ने तजी एक माँ श्रीमंति,

    तो बन गई माँ सारी प्रकृति

    कर रही परवरिश जगती के वंशज की!

     

    शीत ऋतु में काला-सा कवच पहनाकर

    अपने सुत की करती रक्षा  

    ग्रीष्म में पसीने के रूप में,

    निष्कासित करती देह की कलुषता

    तो बारिश के दिनों में

    तन को नहलाकर करती तरोताजा।

     

    यूँ सब ऋतुओं में सजग हो

    प्रकृति करती रही श्रृंगारित

    कभी शीत तो कभी उष्ण पवन बहाती

    तरह-तरह की स्वाद वाली  

    घ्राण की ओर सुरभि सरकाती,

    चक्षु के लिए रम्य

     

    श्रवण को लगे मधुर श्राव्य

    ऐसे भाँति-भाँति के पंचेन्द्रिय विषयों से

    रिझाना चाहती प्रकृति

    जितमना जितेन्द्रिय संत को।

     

    जो करते रहते प्रतिपल ‘आत्म-शृंगार

    वे कहाँ चाहेंगे इन्द्रिय विषय?

    जो लगते हैं इन्हें दहकते अंगार,

    श्रमण करते मुक्ति पाने का श्रम

    मिटाने को भव का भ्रमण

    मन विकार को चूर करते

    तन श्रृंगार से दूर रहते

    नित नवीन आनंदानुभूति से

    आत्मा की प्रतीति से

    उभरती है अदभुत आभा

    सहज सौन्दर्य संयुत है चिदात्मा!!

     

    ऐसे चेतन की गहराई में डूबे संत का

    मुखरित हुआ वीर रस

    मुझे नहीं आवश्यक

    प्रकृति की सहानुभूति

    होने नहीं देती जो स्वानुभूति

    यदि है आत्म प्रकृति तो  

    सुख की कारिका है

    वरना कर्म प्रकृति

    दुखकारिका सुखहारिका है।

     

    यूँ वीर्य गुण से निःसृत

    ‘वीर रस' ने कहा

    अपनी वीरता के अंदाज में

     

    जो वीर्य गुण से है वीर

    उसमें है रवि-सा पराक्रम

    वीर्य गुण के बिना

    जानन-देखन होता है कहाँ ?

    भले ही प्राप्त हो केवलज्ञान,

    लेकिन बिना अनंतवीर्य के

    लोकालोक जान पाते कहाँ?

     

    वैसे प्रत्येक आत्मा

    वीर्यत्व गुण के कारण है वीर

    फिर भला पराश्रित हो क्यों सहता है पीर?

    द्रव्य की महानता रखना है लक्ष्य में

    निमित्ताधीन दृष्टि छोड़

    स्वयं की स्वतंत्रता रखना है स्मरण में।

     

    इस तरह

    पर आकर्षण में न अटककर

    शील शिरोमणि विद्या के सागर

    रखते स्वयं को सावधान

    अवधान अर्थात् ज्ञान से करते समाधान

    फिर ‘भय' का क्या काम?

    जब पर का मुझमें वास नहीं

    पर का मैं दास नहीं

    पर के स्वामित्व से होता भयवान

    पर के ईश बनने से होता परेशान!

     

    स्वभाव से सुभट हूँ मैं

    निज चिन्मात्र धर्मी की शरणागत हूँ मैं

    इसी से हैं निर्भय, परमानंदमय...

    इसी के रसास्वादन में हो रहे थे लीन

     

    कि अचानक...

    बाहर से अट्टहास किया 'हास्य' ने

    ‘‘यदि है निर्भय आत्म स्वभाव

    तो कर्मों से भयभीत हो

    इधर से उधर नाना योनियों में

    क्यों हो रहा भटकाव?''

     

    हास्य रस की बात श्रवण से सुन

    कहा श्रमण ने हास्य से

    किसका इतिहास नहीं रहा हास्यमय?

    पूर्व का जीवन सबका रहा दुखमय

    अति हास्य अच्छा नहीं होता

    इसमें भी दूसरों पर जो हँसता

    वह आत्मा के शक्ति अंश को खोता'

     

    ‘बीमारी की जड़ खाँसी।

    और लड़ाई की जड़ हाँसी'

    इसीलिए हँसे तो फंसे

    हँसोगे जितना रोओगे उतना

    कहते हैं- विद्वत्जन

    हँसमुख रहना अच्छा है,

    लेकिन हँसते ही रहना

    है मूर्खता की निशानी…

     

    हास्य है मोह की प्रकृति  

    जब तक रहेगी हँसी, नहीं होता पूर्णज्ञानी,

    गांभीर्य वृत्ति वालों की बात मानी जाती है वजनदार,

    दिखाकर बत्तीसी

    हँसते-हँसते बोलने वालों की बात

    नहीं रहती असरदार।

     

    मेरा हो रहा अनादर

    यूं समझकर, व्यंग से हँसकर

    फिर विकराल रूप धारण कर

    ‘रौद्र' ध्यान मय होकर

    भद्रता खोकर

    रूद्रता प्रकटकर

    वह तमतमाने लगा

     

    पहुँचाता जो नरक द्वार

    होता है जहाँ क्रूरता से वार ही वार

    सहता है मार ही मार

    फिर भी विस्मय इस बात का

    कि जीव डरता नहीं दुर्गति से!

    क्यों नहीं करता मनन मति से?

    विचार नहीं जिसे निज हित का

    ज्ञान का सदुपयोग नहीं जिसका

    वह है जड़ सम,

    चैतन्य सत्ता का अपमान है यह

    स्वयं का ही विराधक है वह!!

     

    पर की विराधना करने वाला

    पाता है दण्ड

    आजीवन कारावास

    स्वभाव की विराधना करने वाला

    पाता है अनंत संसार वास,

    बनकर पर का दास

    भूल कर अपना भान

    करता है मान

    यही है विस्मय की बात!

     

    स्मय अर्थात् मद है और

    वि अर्थात् विशेष मान होने से

    कर नहीं पाता ज्ञान का सदुपयोग

    मद का विलोम रूप है दम

    म...द...द...म...

    मद से सुख का निकल जाता है दम

    फलतः जीव पाता है दुख ही दुख...

     

    श्रमण के सधे ज्ञान ने

    समझाया 'विस्मय' को सहज भाव से

    अहो विस्मय! जग में होते हैं कई जीव

    कोई ज्ञानी, कोई अज्ञानी

    कोई आत्मध्यानी, कोई दुर्ध्यानी

    कोई सुखी, कोई दुखी

    कोई धनी, कोई निर्धन

    कोई श्रमिक, कोई श्रमण

    इसमें आश्चर्य की क्या बात?

    प्रत्येक द्रव्य परिणमते हैं स्वतंत्र

    एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का देता नहीं साथ।

     

    फिर भी आश्चर्य है

    अज्ञ चाहता है पर से सुख पाना

    ज्ञानी को कभी विस्मय नहीं होता;

    क्योंकि उनके ज्ञान में युगपत् सब झलकता

    शेष कुछ रहता नहीं

    इसीलिए विशेष कुछ होता नहीं,

    सहज सामान्य रहते वह

    जैसा स्वरूप है स्वातम का

    वैसा ही परिणमते वह...

     

    विस्मित होना तुच्छता है ज्ञान की

    शाश्वत सहज रहना पूर्णता है ज्ञान की,

    आत्मस्थ चर्या होने से रहता नहीं आश्चर्य

    ‘बीभत्स देह की ओर दृष्टि होने से

    पा नहीं सकता व्रत ब्रह्मचर्य।

    भटकाती दैहिक दृष्टि

    तारती है आत्मिक दृष्टि

    सूर्पनखा की थी दैहिक दृष्टि

    तभी तो कोई नहीं रखती माँ

    अपनी सुता का नाम ‘सूर्पनखा'।

     

    सीता की थी आत्मिक दृष्टि

    इसीलिए पूजित हुई वह सर्व जगत से

    आदर से कहते सभी ‘जय सियाराम',

    देह-दृष्टि के कारण।

    तन को धोता है मल-मल कर

    नाजुक-सा मलमल पहनाकर।

     

    रूप को सजाता है।

    दुख-कूप में गिरता है।

    अनूप चिद्रूप को निहारने वाला

    स्वरूप में रमता है।

    वही स्वयं का भूप बनता है।

     

    आज की युवतियाँ

    आधुनिकता की दौड़ में

    आध्यात्मिकता तजकर

    लाज लज्जा छोड़कर,

    संस्कृति को भूलकर

    कर रही देह प्रदर्शन,

     

    देश हो या विदेश

    गाँव हो या नगर क्षेत्र

    अमीर हो या गरीब

    खूबसूरत हो या बदसूरत

    सभी हैं इस होड़ में

    किसे है स्वरूप रमण की सुध?

    रूप ही रूप के नशे में धुत्त!!

     

    देह में ही लगा उपयोग जिनका

    वे एक श्वास में अठ-दस बार

    तन पाते हैं बार-बार,

    जिस इन्द्रिय के विषय को

    जो चाहता है जितना

    भोग करता है आसक्त होकर जितना

    करता उसमें क्रीड़ा उ

    तनी ही पाता पीड़ा।

     

    बीभत्स तन में ब

    हते रहते नव मल-द्वार

    पिटारा है यह मल का

    बुलबुला है जल का,

    फिर भी करते यारी

    यही तो है दुख भारी!

    घृणित देह से क्या प्रीत?

    ज्ञानधन देही को बनाते मीत

    युगों-युगों से यही रही है।

    श्रमणों की रीत...

     

    कहते-कहते यूं

    श्रमण के उन्नत हृदय-पर्वत से

     

    फूट पड़ी 'करुणा' की धारा

    देह श्रृंगार करने वाले

    अभक्ष्य भक्षण कर

    तन को तंदुरुस्त कर

    स्वयं को वीर कहने वाले,

     

    किंतु रहते भयभीत वे पल-पल

    मात्र है उनके पास छल-बल

    हास्यास्पद है जीवन उनका...

    रौद्र भाव से रौंद कर

    औरों का जीवन

    सुख नहीं पा सकता सच्चा,

    विस्मय की बात नहीं

    ऐसा ही इतिहास रहा सबका...

     

    कैसी विडम्बना है?

    फूलों की भीनी-भीनी महक तज

    बीभत्स मल पर बैठती मक्षिका,

    आत्मस्वभाव का परमानंद तज

    घृणित भोगों में मन जाता अज्ञ का

    यूँ सातों ही रस हैं वैभाविक

    संयोग जनित होने से हैं सांसारिक।

     

    सभी को हेय दृष्टि से निहारते

    करूणा-पूरित हृदय नयन संत के च

    लते-चलते रुकना नहीं चाहते।

    बढ़ते-बढ़ते पथ पर थमना नहीं चाहते...

     

    करुणा भी पड़ाव है

    मंज़िल नहीं मार्ग है...

    औरों के आँसुओं को पोंछकर

     

    अनुकंपा की पगडंडी से चलकर

    स्वयं भीगती है करुणा;

    अन्य को भी भिगोती है।

    औरों का दुख मिटाने

    हो जाती दुखी स्वयं

    यही है सुख का प्रथम सोपान।

     

    निज पर करुणा किये बिना

    अन्य पर करुणा हो नहीं सकती

    स्वयं रोशन हुए बिना

    औरों को रोशनी दी नहीं जाती,

    धर्म का मूल दया मान

    ऋषि मनीषियों ने

    करुणा रस की गायी है महिमा।

     

    क्योंकि

    दया के बीज से ही

    अंकुरित होती करुणा ।

    फिर वही वृद्धिंगत होती-होती

    विशाल संयम तरु बन

    दस धर्मों के सुमन खिलाती

    अंत में वही पुष्पवती हो

    शांत रस भरित फल के रूप में

    दोलायमान होती।

     

    करुणा है मंदिर की नींव स्वरूपा

    तो शांत रस है कलश उसका,

    श्रमण समग्रता पाता है यहाँ

    स्व में बसता है।

    पर से हटता है।

     

    तभी आत्मानंद का रस आता है।

    ‘शांत रस' का कस मिलता है।

    इतना करो तो बस होता है।

     

    करुणा की जाती है।

    ‘डुकृञ् करणे' धातु का प्रयोग करते इसमें,

    किंतु शांत रस होता है।

    ‘भू' धातु का प्रयोग रहता इसमें

    हटते ही विकारों की चट्टान

    शांत रस का झरना दिखता है,

    स्वच्छ झरने के जल में

    शुद्धातम का स्वरूप झलकता है।

     

    जितना-जितना होता है शांत

    उतना-उतना होता सच्चा संत,

    पर से दृष्टि हटती है ज्यों ही

    स्व सन्मुख हो जाती है त्यों ही

    विकारों की घटाएँ फटती हैं।

    कर्मों के बंधन काटती हैं।

     

    उन क्षणों में

    अपूर्व निराकुलता मिलती है।

    सर्व आकुलता मिटती है।

    जब शांत रस की धारा

    अंतर में बहती है,

    यही है पुरूषार्थी वीरों की साधना

    यही है आत्मार्थी धीरों की आराधना

    सर्व रसों का सरताज

    जान लिया है।

    शांत रस का राज़।

     

    तभी तो गुरू वियोग में भी

    शांत हैं संत महाराज!

    जिस दिशा में भानु हो उदित

    उसी दिशा में उसका अस्त असंभव

    जिस दृष्टि में पाप हो

    उस दृष्टि से प्रभु का दर्शन असंभव,

    जिस चित्त में हो संयोग-वियोग की आकुलता

    उस चित्त में शांत रस है असंभव।

     

    इसीलिए तो समाधि को

    नियति मान यति की

    अपनी मति को गुरू-स्मृति में डुबोये

    प्रथम शतक के रूप में

    “उन्नीस सौ तिहत्तर ब्यावर में

    रच दिया 'निजानुभव शतक'

    पद्य की प्रत्येक पंक्ति में

    उभर आये अनेक रूप

    अपने गुरु की भक्ति में

    सो गुरु की असंख्य तस्वीर सजा दीं

    स्वातम के असंख्य प्रदेश में।


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