यहीं से श्रमण संस्कृति की
ओजस्विनी गौरवशालिनी गाथा
पुनः प्रवाहित हो गई... ।
ज्ञानधारा आह्लादित होती हुई
त्वरित गति से आगे बढ़ गयी।
युवा मुनि को देंगे ‘आचार्यपद'
नसीराबाद में आचार्य श्री ज्ञानसागर...
फैल गए पवन संग घोषणा के स्वर
बिना प्रचार ही सर्वत्र।
हवाओं के हरहर करते स्वर कहने लगे
आचार-विचार उत्तम हो जिनके
मरण उनका अधम हो नहीं सकता,
दुराचार दुर्विचार हो जिनमें
मन उसका प्रसन्न रह नहीं सकता।"
लेकिन यहाँ निर्भार होने की प्रसन्नता
पद के प्रति निरीहता।
परिणामों में निर्मलता
होने से
आचार्य श्री ज्ञानसागरजी
अत्यधिक आह्लादित हैं आज...
उल्लसित था संघ व सारा समाज।
किंतु भावी संचालक संघ के...
श्री विद्यासागरजी मुनिवर के
अंतर्द्वन्द चल ही रहा था मन में…
कि...लो! आ गई घड़ी
बाइस नवंबर उन्नीस सौ बहत्तर की,
अपने चर्म चक्षुओं को सार्थक करने
उमड़ गया जन-सैलाब,
यत्र-तत्र सर्वत्र भक्त समूह से
भर गया नसीराबाद
बाह्य आडम्बर से रहित
सात्विक भाव-भीने समारोह की
शोभा थी दर्शनीय!!
सूर्य की गति
चाहती थी स्वयं थमना
आचार्य श्री ज्ञानसागरजी द्वारा प्रदत्त
श्रमण संस्कृति को अद्भुत उपहार
ठहरकर चाहती थी देखना।।
एक ओर विराजे थे शिष्य मुनिराज
करने वाले हैं आचार्य पद पर आरोहण,
दूसरी तरफ हैं गुरु महाराज
निर्मोही होकर कर रहे पद से अवरोहण
विधिपूर्वक संपन्न हुए।
आचार्य पद के संस्कार
दिए अपने पिच्छी-कमण्डल
स्नेह से शिष्य को निहार...
अभिनव आचार्य की
और उनके गुरु महाराज की मु
क्त कंठ से होने लगी।
जय-जयकार! जय-जयकार! जय-जयकार!
बहुत देर तक चलता रहा लगातार
जयकार का अखंड उद्घोष...।