दुर्लभ राजहंस की भाँति
गुरूवर का पाकर दर्शन
आबाल वृद्ध का
मुदित होता मन,
बाहर में चाहे कितना हो कोलाहल
भेदज्ञान के बल से कर लेते हर
समस्या का हल! हज़ारों-लाखों लोगों की भीड़ में
रह लेते सुरक्षित जो अपने ज्ञान नीड़ में।
शुभ से शुद्ध उपयोग के झूले में
आनंद से झूलते रहते सदा
अशुभ की ओर झाँकते नहीं कदा।
लो!
अचानक नैनागिर में,
संत के साम्य भाव की
कर्मों ने ले ली परीक्षा,
काली-घनी निशा में यतिवर बैठे
खुले मैदान में शिला तल पर अकेले!
‘दस्युराज मूरतसिंह' आया साथियों के संग
आभायुक्त देख गुरु की चमकती देह
झुक गया शीश, रह गया दंग
लख गुरु की सूरत
मूरतसिंह
भूल गया निज मूरत,
कुछ दूरी पर रख शस्त्र
निहारता रहा संत को
देख खनकते शस्त्र
अचल रहे निडर गुरुवर,
जो डरते नहीं जड़ कर्म-तस्करों से
वे क्यों डरें जंगल के लुटेरों से!!
बुदबुदाया डाकुओं का सरदार...
हे भगवन्! आये हो हमारी बस्ती में
लौटकर अब जाना नहीं ।
अब तक होते रहे दिन दहाड़े यहाँ कत्ल,
लेकिन अब तनिक भी किसी को
आँच आयेगी नहीं,
शपथ है यह सरदार की..."
चार माह निभाया नियम ।
किसी को आधी रात में भी
हुई नहीं परेशानी।
एक रात राजस्थान वासी
भटक गये पथ,
स्वयं सरदार ने बैठ बस में
दिखलाया पथ,
जिनकी चरण-छाँव सन्निधि पा
डाकू भी बन जाता साधु-सा।
धन्य! ये संयमित चरण
पतित को बनने पावन
मिलती है जहाँ शरण…
विहार की सूचना मिलते ही
पूरा परिकर ले साथ।
डाकू ने कर दिया आत्म समर्पण
संत समक्ष ले संकल्प।