लौकिक जगत कहता है
वह माँ क्या? जिसमें ममता नहीं
वह महात्मा क्या? जिसमें समता नहीं'
भेदज्ञान धर साम्यभाव से मं
द-मंद ध्वनि से
पढ़ने लगे ‘भक्तामर'
तभी प्रसिद्ध 'चिकित्सक निगम' ने
परीक्षण करके कहा
आश्चर्य!
इस दशा में रोगी होश में रह नहीं सकता।
कदाचित् होश में रहे भी तो
वचनों से कुछ कह नहीं सकता,
विवश हो कहा चिकित्सक ने
इनकी श्वासों का अब कुछ कहा नहीं जा सकता।
सुनते ही हैरत में आ
देकर पात्र पण्डितजी ने
अपने पुत्र के साथ
भेज दिया आचार्य श्री के पास,
पढ़ते ही बोले यतिवर श्रेष्ठ
कहना पण्डितजी से करवा दें समाधि
सक्षम हैं स्वयं आप ही।
सुनते ही आवेश में बोल पड़ा पण्डित पुत्र
बहुत कठोर हैं आप आचार्य श्री!
संघस्थ हैं वह क्षुल्लक जी आपके
रिश्ते में लगते हैं छोटे भाई आपके
आपको कुछ लगता नहीं,
हृदय पसीजता नहीं!''
थोड़ा शांत होकर फिर कहने लगा
आपको अवश्य पहुँचना चाहिए कटनी।
गंभीरता और समता से सुनते रहे यतिवर
फिर बोले संयत स्वर में
तुम्हारी क्रोध भरी भाषा है।
और तुम्हारे पिता पण्डित होने से
उनकी बोध भरी भाषा है,
लेकिन अर्थ दोनों का है एक
पिता-पुत्र की भाषा जानता हूँ मैं नेक
यदि लग रहा है समाधि-काल निकट
तो साथ में नियमसागरजी हैं वहाँ
ले जाइये स्वरूपानंदजी को भी वहाँ
करा दीजिए समाधि
पर
मैं आ नहीं सकता वहाँ।
अंतस् की बात यही थी ।
यदि मोह हो जाता उदित,
तो बिगड़ जाती समाधि
अतः जाना है अनुचित।
साधु और श्रावक की सोच का अंतर
समझ गये श्रावक
साता का उदय आते ही
श्री समयसागरजी हो गये स्वस्थ |