इधर अंतेवासिन्” भी स
वेरा हो या शाम
पल-पल अनुभवते आनंद ही आनंद
करते चार बार स्वाध्याय;
स्वात्म परिणाम को पकड़ना
स्वात्म चिंतन करना
स्व का विस्मरण नहीं करना
स्वयं को समझाते रहना
और स्वात्म चतुष्टय में रमना
यही कार्य चलता रहता…
ज्ञानी गुरु की कृपा है यह
उन्हीं का अनंत उपकार,
इसी से कर सका मैं स्व-संवेदन
उन्हीं का है यह सत् संस्कार।
नजदीक आ गया है समय
गुरु के महाप्रयाण का,
जानकर यह
सावधानीपूर्वक
कर रहे सत् शिष्य अपना कर्तव्य;
तन से क्रियात्मक
मन से भावात्मक
और वचनों से मृदुल अध्यात्म युत विवेकात्मक,
करते सेवा तीनों ही रूप में
और गुरू निश्चले रहते निज चिद्रूप में।