इस तरह शिष्य मुनि की।
निज साधना में जिन उपासना में
चौमासे बीते चार
अजमेर दो बार
किशनगढ़ दो बार
विराजे हैं नसीराबाद अबकी बार
महत्त्वपूर्ण यहाँ कुछ होने को है।
सब कुछ रहस्य की कोख में है...
विद्यासिंधु मुनिवर के गुरूवर हैं।
पंच पदों में तृतीय पद धारी
महिमा मण्डित मुक्ति के अधिकारी,
श्रमण संस्कृति की दिव्य धरोहर
प्रत्यक्ष परमेष्ठी लगते मनोहर,
पद भी परिग्रह लगा इन्हें
मुनि होकर भी मुनित्व विस्मृत करना है जिन्हें।
अनगार चर्या के अनुकूल है।
संपूर्ण चर्या जिनकी
कोई थाह नहीं पा सकता
इन स्थितप्रज्ञ सूरि की...
निर्विकल्प होना चाहते हैं।
पद से परे परम में खोना चाहते हैं।
स्वयं में स्वयंमय होना चाहते हैं...
सो गंभीरता से विचार कर,
ज्ञान, चारित्र, वक्तव्य कला की
कसौटी पर कसकर
अपने ही शिष्य को योग्य समझकर
कह दी मन की बात..
सुनते ही शिष्य-हृदय में
मानो हो गया वज्रपात!
कि देह का पिंजड़ा टूटने वाला है।
साँसों का पखेरू उड़ने वाला है,
जीर्ण पात तरूवर से बिन आहट टूट जाते हैं।
पेड़ के सिवा आवाज़ को कौन सुन पाते हैं?
सुनते ही निर्मम स्वर
शिष्य के नयन झरने से
अश्रु बहते रहे झर-झर...
ज्यों वीर के विरह से
गौतम हो गये मन से दुखी ।
दुख सच्चा था शिष्य पक्का था,
सो शाम ढलते ही ।
हो गये गणी गौतम अनंत सुखी
त्यों शिष्य सच्चे थे मुनि श्री विद्यासागरजी।
पद देकर जब अपना
दायित्व से चाहते थे मुक्त होना
आचार्य गुरु ज्ञानसागर,
सुनते ही तब गुरु-वचन
चरणों में शीश टेककर
अविरल अश्रुजल से कर दिया प्रक्षालन,
उठाकर गुरु ने अपने हाथों से
देखा शिष्य की आँखों में
छा रही है ललाई
अश्रुधारा अभी भी बंद न हो पायी...
भर्रायी आवाज़ में
प्रकट करते हुए असमर्थता
वचनों में ले अति विनम्रता
बोले शिष्य मुनिवर
मीन को नीर चाहिए
पंछी को अपना नीड़ चाहिए
रहने दो मुझे इन चरणों की छाँव में
इसी के सहारे पा लूंगा शिवधाम मैं।
सुनकर हृदय की भाषा
जीवन में पहली बार गुरु भी हार गये
पद के प्रति निर्लिप्त देख
पल भर सोच में पड़ गये
फिर अहोभाव से भर गये…
सोचकर कुछ बोले पुनः
आज्ञा है जिनागम की
छोड़कर पद
जाओ अन्य की शरण
वहीं करो सम्यक् समाधिमरण।"
अन्यत्र योग्य आचार्य के निकट जा सकूँ
सामर्थ्य नहीं वह मुझमें,
अतः सँभाल कर आचार्यपद
सहायक बनो मेरे कल्याण में..."
शिष्य ने कहा विनम्रता से
अन्य शिष्य को
बना दीजिए आचार्य
मुझे तो चाहिए
गुरु-चरण और मुक्तिद्वार,
सुनकर गुरू ने
निज ज्ञान से जाना था
इसी शिष्य में योग्य आचार्य को पहचाना था
भारतः प्रतिभारतः का यह संवाहक होगा।
जिनधर्म का यही सच्चा प्रभावक होगा,
अथक प्रयास किया
शिष्य को मनाने
पर गुरु न हो पाये सफल।
तब स्वीकृति नहीं मिलने पर
आखिर रख दी कुछ ऐसी बात
कर दिया मजबूर सोचने को...
बीत गये वर्ष चार पढ़ाते हुए
गुरु दक्षिणा माँगता हूँ तुमसे
सहर्ष स्वीकार कर आचार्यपद
निर्भार करो मुझे पद के परिग्रह से''
निरूपाय हो तकते रहे...
मन ही मन रोते रहे...
घड़ी थी समर्पण के परीक्षा की
दक्षिणा देना भी अनिवार्य थी
सही शिष्य की यही पहचान थी
शीश झुकाए रहे...
नयन-नीर से गुरू-चरणों को पखारते रहे…
चिर ऋणी हूँ गुरु का
ज्ञानदान का प्रतिदान नहीं होता
अनमोल का कोई मोल नहीं होता
चुका नहीं सकता ऋण गुरु का,
प्राण समर्पण करने पर भी
निर्णायक क्षण था वह जीवन का।
हृदय का कोना-कोना अंतर्द्वन्द से भरा
भाव और भाषा स्तब्ध हो गई।
दृष्टि ज्यों की त्यों थम गई।
समर्पण के साथ टेक दिया माथा
गुरु चरणारविंद में...
पर अभी भी शिष्य के मनो-मस्तिष्क में
चल रही विचारों की श्रृंखला…
सोने, उठने, देखने, खाने का
होता है समय निश्चित
यह सब होते हैं समय-समय पर
पर ऐसे नहीं हैं मेरे लिए गुरुवर
वह तो हैं श्वास जैसे
सतत चलती रहती है अंदर...।
आचार्य पद नहीं
चाहिए मुझे हर पल गुरु-पाद
नहीं... नहीं... मेरी आत्मा
उसे स्वीकारने तैयार नहीं है,
किंकर्तव्यविमूढ़ होकर
गुरु के तर्क के आगे चेतना विवश हो रही है…
शिष्य के चेहरे की भाव-भंगिमा देख
पूछा- “क्या सोच रहे हो?"
कर जोड़ करने लगे निवेदन
कीजिए अपने निर्णय में परिवर्तन
अनुभवहीन हूँ मैं श्रमण...
गंभीर वाणी में समझाते हुए बोले गुरू
“आशीर्वाद है सदा मेरा
समय स्वयं एक दिन कहेगा
‘विद्यासागर' नाम धरा गगन में गूंजेगा
संतों के सरताज हैं यह
शांति की ठौर
और आनंद की भोर हैं यह,
समंतभद्र, अकलंकदेव, कुंदकुंदाचार्य
सबकी गाथा दुहराओगे होकर महान आचार्य
निर्भय हो, निश्चित हो
भविष्य तुम्हारा मंगलमय हो, उज्ज्वल हो!!"
यही है भावना मेरी…
सुनकर गुरु की अंतरवाणी
मौन रहकर ही
शिष्य ने गुरु को मानो आश्वस्त कर दिया
गुरु ने शीघ्र ही स्नेह भरा हाथ
शिष्य के शीश पर रख दिया।