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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
अंतरराष्ट्रीय मूकमाटी प्रश्न प्रतियोगिता 1 से 5 जून 2024 ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • ज्ञानधारा क्रमांक - 96

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    योगी और भोगी में

    होता है अंतर

    अवनि-अंबर का

    इसमें फासला होता है।

     

    ऊषा और निशा-सा,

    भोगी भोगों के वश में जीता है।

    योगी भोगों को वश में करके जीता है।

     

    मालिक यदि हो जाये गुलाम के वश में

    तो व्यापार कैसे चले?

    पुलिस यदि हो जाये चोर के वश में

    तो कानून कैसे चले?

    सपेरा ही हो जाये सर्प के वश में

    तो खेल कैसे चले?

    गुरु यदि हो जाये शिष्य के वश में

    तो विद्या कैसे बढ़े?

    योगी ही हो जाये संयोगी भाव के वश में

    तो धर्म कैसे चले?

     

    नीति कहती है

    ‘‘पाना है यदि सत्ता

    तो इन्द्रिय विजयी बनना होगा

    ‘राज्यमूलं इंद्रिय जयः

    फिर यहाँ तो ।

    स्वात्म लोक का शाश्वत राज्य पाने

    चल पड़े हैं सद्योगी!

    स्वाभाविक गुण योद्धा ले साथ

    विकारों पर विजयी होने अंतर्यात्रा पर…

     

    पाकर प्रभु-सा मीत पूँजे जैनगीता के गीत ।

    एक ओर करूणा सागर का कवि-हृदय

    दूसरी ओर शांत-सुंदर

    कुण्डलपुर का दृश्य

     

    नये-नये छंद बनते जाते

    मदमाती बहती पुरवैया में गूंज उठते

     

    एक ओर बड़े बाबा का आकर्षण

    दूसरी ओर आत्मान्वेषी साधु का सम्मोहन!

    चौतरफा थी धर्म की धूम...

    धीमानों-श्रीमानों का

    आने लगा समूह,

    अग्रिम सतत्तर का चौमासा

    कुण्डलपुर में ही हुआ संपन्न।

     

    चित्त लगा चिंतन में

    मन लगा मनन में

    तन लगा लेखन में

    वहीं एक वृद्ध विद्वान् आये दर्शनार्थ

    किया निवेदन-गुरूवर्य!

    अल्पायु में कैसे हो गया वैराग्य?

    बोले गुरूदेव

    “परमात्मा के गुणों से हो गया अनुराग

    सो हो गया वैराग्य,

    संक्षिप्त किंतु सारभूत समाधान सुन

    पण्डितजी हुए गद्गद्।''

     

    विहार कर कुण्डलपुर से ।

    थम गये गुरु-चरण नैनागिर में,

    साहू श्रेयांसप्रसादजी आये दर्शनार्थ

    धर्म-चर्चा करते हुए पूछ लिया प्रश्न...

    क्या पड़ता है ग्रहों का प्रभाव?

     

    परिग्रहधारी पर पड़ता अवश्य,

    किंतु निष्परिग्रही पर नगण्य

     

    तनिक-सा पड़ता भी है असर

    तो वह भी तन पर

    चेतन पर नहीं।

     

    समाधान का साक्षात्कार हुआ

    नैनाशिर आते ही पुनः

    देह ज्वराक्रांत हुआ,

    प्रकृति पुरुष में ।

    बार-बार असाता कर्मप्रकृति उदित होने लगी...

    कहीं तजकर उन्हें

    मोक्ष न चले जाये इस संदेह से।

     

    किंतु संत थे शांत

    दर्पण की भाँति

    निश्चिंत थे वे,

    संयोग से स्वभाव में कुछ आता नहीं।

    वियोग में स्वभाव से कुछ जाता नहीं ।

    इसलिए

    ज्ञानधारा में बहे जा रहे...

    असाता को सहज भाव से सहे जा रहे...

    हर बार की अपेक्षा

    इस बार की असाता

    घातक व क्रूर थी भयंकर,

    किंतु मर्मज्ञ मनीषी, साहसी, सहनशील

    निर्भय थे अपने में गुरुवर!

     

    देख साधु की समता

    बदल गई असाता, हो गई साता।


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