तभी अगले ही क्षण...
एक और अप्रत्याशित घटना
अकथनीय व्यथा के दौर से
गुजरना पड़ा,
गहन सन्नाटे में
सबने जो सुना
नहीं था वह झूठा सपना...
विनम्र स्वर में...
हाथ जोड़ प्रमुदित मन से
बोले मुनिश्री ज्ञानसागरजी
अंतिम समय जानकर अपना ।
लेना चाहता हूँ अब समाधि
अनुग्रह करें मुझ पर
याचना करता हूँ आपसे यतिवर!"
श्रुतिपुट में पड़ते ही यह शब्द
चकित हुए चिंतित भी
मानो कर्ण मृतवत् हो गये
अगाध ज्ञान होकर भी,
इतना निरभिमान!
सरल है कंचन कामिनी तजना
कठिन है यश ख्याति की लालसा तजना
सच! तुम विशेषणों के विशेषण हो।
श्रेष्ठों में श्रेष्ठ हो गुरू के सद्गुरु हो!!
अहा! धन्य! धन्य! धन्य!
अहं के विसर्जन की
अर्हं के सृजन की
अभूतपूर्व घड़ी है यह!!!
उपस्थित हुआ जो दृश्य
उसे देखते ही देखते
स्वयमेव झुक गई
पर्वतों की चोटियाँ
नम गई पेड़ों की डालियाँ,
स्वयं को सर्वोन्नत मानने वाला
गल गया गगन का कोना-कोना
श्रमण ज्ञानसिंधु के महान गुणों की
झग-झग करती अनगिन मणियाँ
मान कषाय की दिख रही
टूटती-बिखरती लड़ियाँ...
जनमेदनी की भीगती अँखियाँ
भाषा मूक हो आयी श
ब्दों की थम गई पंक्तियाँ!!
संयोग था प्रबल
नियति थी अटल
अपनी कामनानुसार
नियति नहीं करती प्रवर्तन,
कृत कर्मानुसार ही
चलती है क्षण-प्रतिक्षण
आखिर न चाहते हुए भी
होना पड़ा आचार्यपद पर आरूढ़...
मुखरित हुए प्रकृति से स्वर
जयवंतों जयवंतों श्री ज्ञानसिंधु गुरूवर…
ऐसी सम्यक् चर्या देख गूंथे गये ग्रंथ
शास्त्र तो गूंगे हैं।
बोलते हैं निग्रंथ,
भौतिकी इस युग का प्रथम चमत्कार!
प्रकाण्ड विद्वान् होकर भी
हुए श्रमण अनगार,
अपने ही शिष्य को गुरु मानना
यह दूसरा चमत्कार!
शिष्य के समक्ष नीचे आसन पर बैठ
प्रणाम करना नम्रता से शिष्य को
हर्ष भाव से त्याग कर उपाधि
याचना करना समाधि की
यह है तीसरा चमत्कार!
शब्द लगते बौने
ऐसे व्यक्तित्व को कहने
मानव-तन धर
तपोपूत ज्ञान से
मान पर विजय कर
मृदुता ऋजुता शुचिता की
त्रिवेणी बहाने वाले
होते हैं विरले संत
पाते हैं वे ही भगवंत-पंथ...
आज विशेषों में विशेष
अनेकों में एक
वीरों में वीर, धीरों में परम धीर
साबित हो गये श्री ज्ञानसिंधु श्रेष्ठ मुनिवर!
अब तक देखा सभी ने।
सरिता को सागर की ओर जाते
पर आज देखा सभी ने
सागर को सरिता की ओर आते...!!
गुरु-मुख से बात सुन समाधि की
आँखें नम हो गईं सभी की
श्रीमान् हो या श्रेष्ठी
विद्वान् हो या त्यागी
नयन की पलकें थम गयीं,
दिनकर भी चल पड़ा अस्ताचल की ओर
बिखर गई पश्चिम में विरह की ललाई
प्रकृति निस्तब्ध हो आई!
पवन का प्रवाह थम गया
पंछियों का कलरव बढ़ गया,
किंतु ज्ञानी गुरु के मुख पर
आध्यात्मिक अपूर्व आभा
हो रही प्रदीप्त,
ज्यों दीप बुझने से पूर्व
बढ़ जाती है ज्योत
अंततोगत्वा नवोदित आचार्य
श्रद्धा से हुए विनत
गुरु बिछोह की कल्पना से
हो गए द्रवित।
मानकर समाधिमरण को
संत का पंथ
बोझिल मन से किया प्रवचन
गुरू व्यक्तित्व का करके बखान
तीर्थंकरों की पावन परंपरा में
आपने जोड़ दी एक और कड़ी महान!
शीश पर रहे हाथ सदा आपका
तो निश्चित ही वरण कर लूंगा मुक्ति का
निर्वाह कर सकें इस गुरु-पद का
हे गुरुवर! वह युक्ति शक्ति व भक्ति देना।
बालक हूँ मैं आपका
था अनगढ़ पाषाण
तराश कर मूरत किया
है उपकार महान।
आत्म-कल्याण हो, सबका कल्याण हो
श्रमण परम्परा जयशील हो।
जिनशासन जयवंत हो,'
यह भावना भाते हुए
दिया प्रवचन को विराम
और विनम्र भावों से मन ही मन
गुरू को कर लिया प्रणाम।
सुनते ही प्रवचन, बोले श्री ज्ञानसिंधु
गुरु न कहो मुझे
आचार्य भी नहीं अब मैं
बस एक बार कह दो ‘वत्स' मुझे
पुकारो मुझे एक बार ‘वत्स' कहकर
मैं शिष्य हूँ आपका
समाधि की याचना कर
शरण लिया है मैंने आपका!
अहा! जिसने दी अब तक
चरणों में स्नेह-संयुत शरण
आज वे ही विनत माथ हो
निश्छल हृदय से
गुरू कहकर अपने ही शिष्य को
हाथ जोड़ कर रहे हैं नमन...
भाव भीना यह दृश्य देख
सभा में गहन सन्नाटा छा गया।
आचार्य श्री विद्यासागरजी के
श्वासों का प्रवाह मंद-सा हो गया...
बोले साहस जुटाकर
सार्थक हो समाधिमरण
अति शीघ्र हो मुक्ति का वरण।
ज्ञात इतिहास की प्रथम घटना थी यह
जीवित अवस्था में ही
अपने शिष्य को
अपने ही कर कमलों से
किया हो अपना आचार्यपद प्रदान
और उन्हीं की आज्ञा में रहकर
किया हो मुनि चर्या का परिपालन।
आज सूरज उदित होकर भी
लग रहा कांतिहीन
उसे भी हुआ आज यह एहसास
मुझसे भी अधिक प्रतापी है कोई,
राजस्थान की वसुंधरा पर आज
प्रकृति के विराट आँगन में
घटित घटनाएँ...
मात्र सर्वज्ञ के प्रज्ञा-दर्पण में
होती हैं प्रतिबिम्बित।