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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
अंतरराष्ट्रीय मूकमाटी प्रश्न प्रतियोगिता 1 से 5 जून 2024 ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • ज्ञानधारा क्रमांक - 76

       (0 reviews)

    चातुर्मास केसरगंज का ।

    था पूर्णता की ओर...

    तभी वृद्ध ब्रह्मचारी की

    देख अस्वस्थ अवस्था

    शिष्यमुनि ने दिया संबोधन,

    अंतिम लक्ष्य रहे सल्लेखना का

    सुनकर उल्लसित मन से

    बोले गुरू समीप जाकर

     

    हे ज्ञानसिंधु मुनिवर!

    देह से बहुत किया नेह

    फिर भी हो रहा कृश निरंतर

    शरण मुझको आपकी है

    आप ही सर्वस्व गुरूवर!

    पाने को शाश्वत शांति अ

    ब दीजिए समाधि...

    आधि-व्याधि-उपाधि से परे

    दूर कर सर्व उपधि

    मुझ जड़ धी की करिये समधी!!"

     

    कहकर झुका मस्तक

    हो गए गुरु-चरणों में नत

    निश्छल भाव की सच्ची भाषा सुन

    परम ज्ञानी गुरु ने दी 'समाधि

    परिचर्या-प्रभारी बने

    मुनि श्री विद्यासागरजी

    समझाते समय-समय पर...

     

    हे क्षेपक आत्मन्!

    यदि करना है सम्यक् समाधि

    तो सोचो! कुछ प्रतिकूल नहीं है

    यदि भटकना ही है भव-वारिधि

    तो सोचो! कुछ अनुकूल नहीं है।

     

    प्रतिकूल-अनुकूल का मूल

    अपना मन है,

    और मन का आधार

    अपना चेतन है;

    चेतन पर टिकाओ दृष्टि

    करो स्वयं पर आनंदवृष्टि।

     

    चर्चा सुनकर भेदज्ञान की

    त्याग की भावना हुई बलवती

    लेकर मुनि दीक्षा

    हो गई उत्तम सल्लेखना...।

     

    पलक झपकते ही

    वर्ष दो हो गये पूरे

    तृतीय दीक्षा दिवस है कल

    प्रमुख भक्तगण गुरू ज्ञानसिंधु-शरण में जा

    कहने लगे- हे गुरूवर!

    आज्ञा दीजिए

    दीक्षादिवस मनायें धूमधाम से।''

    पाते ही आशीर्वाद

    लग गये तैयारी में

    ज्ञात हुआ जब शिष्य मुनिवर को

    उस दिन उपवास कर लिया।

    सुनते ही भक्तों का

     

    उत्साह ठंडा पड़ गया।

    ‘‘मौनं मुनीनां प्रशमश्च धर्मः'

    इस उक्ति को विचार कर

    मुख किया दीवार की ओर

    ध्यान लीन हो गये मुनिवर,

    अगले दिन लोगों ने की शिकायत

    मनाने क्यों नहीं दिया दीक्षादिवस?

     

    बोले मधुर मुस्कान ले

    तुम सब मना न पाये तो क्या

    मैंने अपना मना लिया

    सर्वप्रथम नाम जप गुरूवर का

    गुण गाया प्रभु का,

    स्वयं बेनाम सुखधाम

    ध्यान किया निजातम का;

    इस तरह मना लिया

    दीक्षा का उत्सव भीतर ही भीतर…

     

    बाहर में बजाते शहनाईयाँ अन्यजन

    भीतर में बजाता है भेदज्ञान की बंसी स्वयं मन,

    बाहर में थकान है।

    खोलकर नयन देखना पड़ता है बाहर।

    भीतर में आनंद है,

    नयन मूंदकर भी दे

    खा जा सकता है भीतर

    बाहर में संसारी जीवों से

    मिलकर मिलेगा क्या?

    भीतर में अनंत सिद्धों की भेंट से

    मिलता है परमानंद!

     

    अहा! सुखकंद, महिमावंत

    मनाता रहूँ ऐसा ही दीक्षोत्सव सानंद...।

     

    अनंतकाल से परिभ्रमण कर

    सौभाग्य से अब संयम धर

    मानव की देह पाकर

    हो गया शरीर वृद्ध,

    ज्ञानी गुरु विचारते यों...

    अष्ट कर्मों को करने जर्जर

    चउ आराधना आराध कर

    रहते सदा सजग,

    किंतु जग के साथ नहीं

    अपने आप में ही रहते सदा जागृत।

     

    समझ लिया था उन्होंने कि

    प्रमाद मृत्यु है।

    जागृति है जीवन

    नव जीवन संजीवन,

    पल-पल शिष्य मुनि भी

    धर्मचर्चा, चर्या, आत्मिक क्रिया

    गुरुसेवा, परिचर्या

    करते आचरण सावधानी पूर्वक

    हुआ गौरवान्वित 'चरणानुयोग' स्वयं इनसे..

     

    समय निकलता जा रहा है।

    अंजुलि के जल की भाँति

    जल का प्रवाह कौन रोक पाता?

    छिन-छिन छन-छनकर

    बस निकलता जा रहा है...

     

    न जाने क्या खोने वाला है यहाँ?

    बहुत कुछ घटित होने वाला है यहाँ…

     

    नसीराबाद में चातुर्मास

    चल रहा था पूर्णता की ओर...

    ज्ञानी गुरुदेव की देह

    कभी भी अलग हो सकती है देही से

    सो बचाकर स्वयं को

    चौरासी लाख योनि से

    ले जाना चाहते ध्रुवधाम की ओर

    पाना है जिन्हें संसार का छोर,

    सो करते निरंतर आत्मसाधना...

     

    मात्र स्व के अस्तित्व का अनुभव

    यही है उनका विभव ।

    एकत्व की अनुभूति हो रही

    आत्मीय प्रतीति हो रही।

     

    करके दोषों का भाग, गुणों का गुणा

    विकारी भावों के प्रति राग घटाना

    जिनदेव के प्रति भक्ति जोड़ना

    निजात्म में निज जागृति रखना

    पर को प्रभावित नहीं करना,

    धन्य हैं रूग्ण दशा में भी

    स्वयं को सावधान रखना

    परिणामों को परखते रहना

    यही था उनका दैनिक कार्य।

     

    अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगी

    ‘तीन दशक से अधिक ग्रंथों के सजेता

    नूतन चिन्मय विद्यासागर'' ग्रंथ के प्रणेता

     

    जिन्हें देख सकता सारा जहान

    अंधा हो या आँखों वाला

    पढ़ सकता इन्हें हर कोई इंसान…


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