एक होता है भिखारी
दूसरा होता है साधु अविकारी,
धन नहीं दोनों के पास
फिर भी ए
क उपहास का पात्र
दूजा होता उपासना का पात्र
कारण?
माँगता हुआ हाथ सीधा रखता है।
भिखारी
आशीष देता हुआ हाथ ऊपर रखता है।
अविकारी
आसीन होकर भी पद पर
इच्छा नहीं पद पाने की
उदासीन है अविकारी शिष्य का मन
गंभीर मुद्रा में
बैठे रहे सिर ही झुकाए...
आशीष पाकर भी गुरु का
बोझिल है आज तन
अवसाद से भरा है मन;
क्योंकि जानता है उनका चेतन...
स्वयं के वैभव को भूलने वाला
पद की चाहत में अटक जाता है,
प्रसिद्धि की चाह में
सिद्धि को भूलने वाला
मद की घनी तामसता में भटक जाता है।
परिग्रह मान पद को भी
गुरू हो रहे आज निर्भार
अंतर्यात्रा करके
पाने सिद्धों का परिवार,
जनता जनार्दन का तो
कहना ही क्या!
कार्यक्रम के प्रवाह को
ताक रही अपलक...।
पूर्ण होते ही संस्कार-विधि
पूर्व स्थान पर ज्यों ही लगे बैठने
नवोदित आचार्य श्री विद्यासागरजी
तभी स्नेह-मिश्रित वचन से बोले श्री ज्ञानसागरजी
रुको!
आचार्य का आसन रिक्त है
इस पद का त्याग कर चुका हूँ मैं
गुरु स्वयं शिष्य को बिठाते हैं अपने आसन पर
परिक्रमा लगा बैठ गये गुरू, शिष्य के आसन पर।
देखते ही देखते यति की नियति ने
कर दिया अभूतपूर्व परिवर्तन
पल भर में मुनि से आचार्य
और आचार्य से मुनि का ।
सहज शांत, शुद्धोपयोगी संत का
करा दिया साक्षात्कार!
जन-जन के नयन हो गए आर्द्र
शिष्य के प्रति स्नेह की पराकाष्ठा देख,
योग्य शिष्य को गरिमामय महिमा से ।
कर दिया मण्डित...
नूतन आचार्य का
भले ही बैठा था तन आसन पर,
किंतु मन तो था गुरु चरणों में समर्पित।
दिख रही थी सभी को चेहरे की चमक
देख न पाया कोई नयनों के अश्क,
हृदय भर आया
भीतर ही भीतर स्वयं को समाते गये
स्वयं की वेदना को छिपाते रहे...