गर्भ में रखा जिसे नौ माह
वह क्षेत्र की अपेक्षा दूर है बहुत,
लेकिन मन से दूर कैसे हो सकता?
रह-रहकर याद सताने लगी
भूख जाती रही
राते उनींदी बीतने लगीं।
आखिर एक दिन बोली- स्वामी!
पुत्र दर्शन बिन रहा नहीं जाता
अब अधिक विरह सहा नहीं जाता
आत्मीय निगाहों से निहार
बोले मल्लप्पाजी
अब नहीं वह पुत्र हमारा
दीक्षा के पूर्व तक था विद्याधर हमारा...
तुम्हें जाने से रोकता नहीं मैं,
किंतु जा नहीं सकता अभी मैं..."
हास्य-विनोद में कह गई वह
कहीं श्रमण न बन जाओ
क्या इसी भय से जाना नहीं चा...
वाक्य पूर्ण होने से पूर्व ही
कहने लगे मल्लप्पाजी
गृहस्थ जीवन के दायित्व से
करके पलायन
आगम भी नहीं देता अनुमति दीक्षा की, ब
दल जाए बाहर से भेष भले ही
पर भीतरी भावना बदलती नहीं।
दो पुत्रों में अभी प्रौढ़ता आयी नहीं
दोनों पुत्रियों का भी है विकल्प,
मुनि होने का मन में है विचार
पर कर नहीं पाता संकल्प।
इसी वार्तालाप में
स्वामी से ले अनुमति
आखिर श्रीमति और अनंतनाथ
शांता, सुवर्णा को ले साथ
चल पड़ी दर्शनार्थ…
यात्रा के दौरान
सोच रही शांता शांत मन से...
यदि संख्या से निकाल दें।
मूल एक का अंक
तो गिर जाती है गणित की इमारत
शून्य को निकालते ही
ढह जाती है भूगोल की इमारत
और अध्यात्म के हटाते ही
बिखर जाती है आनंद की इमारत।
मैं प्रवेश पाना चाहती हूँ।
परमानंद के महल में,
जड़ महल में होती चहल-पहल बहुत
पर स्वातम का अनुभव कहाँ?
परेशानियों का हल कहाँ?
भोगों के भग्न भवन में
दुखों का आसव रूकता कहाँ?
अंतहीन अतृप्ति रूप-वासना में
एक ही आत्म पदार्थ पर
वास रहता कहाँ?
अतः किसी से ऐसा राग करना नहीं
कि वह न रहे तो मैं रह ना सँकू,
और किसी से ऐसा द्वेष करना नहीं
कि वह रहे तो मैं रह ना सँकू,
यों शांत निःशब्द भावात्मक
विरक्ति के दुर्गम पथ पर
कल्पना से विचर रही थी...
‘सुवर्णा' भावों से भीगी
कहे बिना कुछ भी वर्ण
साथ दे अंतस् से बहन का
साधना-पथ पर
चाहती है अविराम चलना
भावों की आहट को कोई सुन न ले
इस शंका से रास्ते भर रही मौन।।
किंतु साथ थे अनंतनाथ
बचपन से ही मेधावी
कार्य में कर्मठ योगी
अकथ ही हृदय के समझ गये भाव
बोले- व्रत लेने की भूल मत करना
बहुत कठिन है संयम-पथ अपनाना।
उल्लास उर्मियाँ उठ रही हैं।
चित्त में नूतन अंगड़ाई है ।
दोनों के उमंगित हैं तन
उल्लसित हैं कदम, पुलकित है मन।
मनोरथ पर सवार
देखा दोनों बहनों ने
आ गया है अजमेर
वहाँ से पहुँच कर सवाई माधोपुर
अभिभूत हुए दर्शन कर,
ब्रह्मचर्य व्रत लेने की भावना व्यक्त कर
आशीर्वाद मिला ‘देखो
आहारोपरांत प्रार्थना करने पर
आजीवन व्रत ब्रह्मचर्य प्रदान किया
ब्राह्मी, सुंदरी की
परंपरा का निर्वाह किया।
ज्ञात हुई जब यह बात
बहुत रोये अनंतनाथ...
यदि होता मुझे पता
तो साथ में नहीं लाता,
जब तक नहीं होती
अध्यात्म की अनुभूति
तब तक नियम-संयम
लगते निरर्थक।
इधर मल्लप्पाजी शांतिनाथ के साथ
आ पहुँचे ‘सवाई माधोपुर
दोनों पुत्रियों को देख श्वेत शाटिका में
हुए चिंतातुर,
पूछा आचार्यश्री से
क्या आजीवन दिया है व्रत ।
या काल है नियत...?"
यतिवर रहे मौन;
क्योंकि जाना जा सकता है बिना बोले भी
शब्दानुच्चारणेऽपि स्वस्यानुभवनमर्थवत्’
क्षेत्र महावीर जी में आये दर्शनार्थ अ
नन्य भक्त कजौड़ीमल,
तभी निर्देश दिया उन्हें
पहुँचा दो दोनों ब्रह्मचारिणी को।
‘मुजफ्फरनगर' आचार्य धर्मसागरजी के संघ में।
देख अपनी सुता को
धवल परिधान में
माँ का मन हो गया विरत,
अनंतनाथ, शांतिनाथ
लेने गये आज्ञा घर लौटने की
तो वीतराग भाव से भरकर बोले मुनिश्री
‘पर घर का छोड़ो आकर्षण
निज घर में करो पदार्पण!
दुर्लभ मनुज जन्म रूपी रत्न को
मत फेंको वासना के गहरे समंदर में
जिस पथ का किया है अनुकरण मैंने
चल पड़ो इसी अनंत शांति के पथ पे..."
श्रुतिपुट में पड़ते ही सुमधुर शब्द
खो गई मति स्मृति में।
सुदू...र वर्षों पीछे कहते थे भैया विद्या
“बैठकर णमोकार की कार में
जाना है सिद्धों के दरबार में''
खेल-खेल में सिखाई जिन्होंने
धर्म की वर्णमाला,
प्रारंभ होती है जो दया से
दया होती है भरपूर उन्हीं में,
जो सिंहवृत्ति वाले होते साधु
महानता के होते मेरू
यही हैं हमारे आज से गुरू...।
यूँ ठान मन में
पूछ ली मन की बात,
गुरूवर! वैराग्य होता है क्या?
तत्काल दिया समाधान सधे शब्दों में
राग-आग सम है तो
वैर विकराल ज्वालामुखी-सा
है द्वेष स्वरूपा,
राग-द्वेष से रहित होने की
साधना है वैराग्य।
दृष्टि में विरक्ति है यदि
आत्म रुचि है यदि
तो मार्ग यह सरल है अत्यंत,
दृष्टि में आसक्ति है यदि
आत्म रुचि नहीं है यदि
तो मार्ग यह जटिल है निश्चित।
गहन भाषा कुछ उतरी भीतर
कुछ तिरोहित हो गई बाहर,
किंतु समझ में आ गई
भावों की भाषा
झट झुका दिया शीश
एक चरण में अनंत
तो दूसरे चरण में शांति।
दर्शनीय था दृश्य
मानो आदिप्रभु के चरणों में
विराजित हों भरत, बाहुबली
उन्नीस सौ पचहत्तर दो मई के दिन
दोनों भ्राता ने ले लिया ब्रह्मचर्य व्रत
संघ में ही रहकर हो गये साधना रत…
इधर वैराग्य के वेग को
रोक न पाये मल्लप्पाजी भी,
सो श्रुतसागर आचार्य के संघ में
रहकर करने लगे धर्म-साधना...
कुछ ही समय में
आचार्य धर्मसागरजी के संघ में
सम्मिलित हो बन गये
मुजफ्फरनगर में
विशाल जनमेदिनी के मध्य
‘मल्लप्पा' से 'मुनि मल्लिसागरजी
‘श्रीमंति' से हो गई ‘आर्यिका समयमति'
धन्य माता-पिता की मति!!
चल पड़े जिन-पथ पर
प्रशंसनीय है परिवार यह!
घर में एक सदस्य को छोड़
साथ चल पड़े सत्पथ पर
सप्तम परम स्थान को पाने,
युग के आदि में
आदिप्रभु के पूरे परिवार ने
ग्रहण की थी ज्यों दीक्षा
त्यों विलुप्त होती परम्परा को सं
यम की संजीवनी बूटी दे
पुनर्जीवित कर दिया।