एक दिन ढलती शाम में देखा
शिष्य के नयन में
झलक रही ललाई
नीर से भर आई।
छिपा न पाये गुरु से।
गुरु से बढ़कर शिष्य तपस्वी हो सकता है।
गुरु से बढ़कर शिष्य शब्दों से ज्ञानी हो सकता है,
पर लाख प्रयत्न करने पर भी
गुरू से बढ़कर अनुभवी नहीं हो सकता
आखिर पूछ लिया
क्यों हो रहे अधीर?
क्या है मन में पीर?
गर्दन हिलाकर कहा- 'कुछ नहीं...
पर सुन ली अंदर की सिसकियाँ ।
जल भरी छलकती अँखियाँ,
गुरु बढ़कर हैं माँ से
क्या छिपा सकता है भला शिष्य गुरु से।
जननी देती है मात्र
पल-पल मौत की ओर ले जाने वाला जनम
गुरु माँ देती है।
पल-पल मोक्ष की ओर ले जाने वाला जीवन।
सस्नेह हाथ का स्पर्श पाकर
खोलकर भीतर का अवगुंठन
बोले
आप ही हैं एकमात्र सहारा मेरे जीवन का
आप बिन कैसे रह पाऊँगा?
अनाश्रित लता-सा टूट जाऊँगा
धरा-बिन सब यूँ ही धरा रह जायेगा
मूल बिन चूल कहाँ टिक पायेगा?
सुनकर वेदना के स्वर
गंभीर मुद्रा में कहा शिष्य से
यह राग भी बाधक है वीतरागता में
अवरोधक है शुद्धात्मानुभूति मय साधुता में
क्या रेत की दीवार बन सकती है आधार?
पराश्रित होकर ही तो बढ़ाया है संसार
खायी है कर्मों की मार ही मार…
पर का सहारा है जब तक
जीव हारा हुआ है तब तक,
सारा मत मानो सहारा को
आनंददायिनी पीयूषपायिनी
आत्मसात् कर ज्ञानधारा को
साधक होता है कर्मजयी
अनंत अव्याबाध सुख गुणमयी।
सुन अमृत वचनावली गु
रु मूरत में निज सूरत निहार
सुमेरु सम अकंप निश्चल ज्ञानसिंधु को
अंतर्मन से किया प्रणाम बार-बार,
किंतु दूसरे ही क्षण
सल्लेखना का आते ही विचार
सिहर उठी फिर से शिष्य की आत्मा…
गहन वेदना से पिघलती अश्रुधारा को ।
नहीं मिल रहा बाहर निकलने का मार्ग
तब भीतर ही भीतर नहा उठे अश्रु निर्झर से,
प्रभाव दिख रहा स्पष्ट देह से
स्वेद-कण से भीग गया समूचा बदन,
फिर भी सजग हैं आचार्य भगवन्
बोध है दायित्व का
आचार्य की गरिमानुरूप
बढ़ गई और सजगता
जो कभी चलते थे गुरु का हाथ थामे
आज स्वयं थामे हैं हाथ गुरु का!
सेवा ही आवश्यक बन गया जिनका
और परिणामों को सँभालना
लक्ष्य है क्षपक का।
मौलिक है हर पल
नहीं आँवाना है निराशा व अवसाद में क्षण।
निर्विकल्प समाधि हो गुरु की,
संयमित जीवन की अंतिम घड़ी हो निजानुभूति की ।
विचारकर यह
समाधिस्थ अनंत उपकारी संत को दिया संबोधन
“समाधिसौख्याच्चपरं च सौख्यम्”।
आत्म स्थिरता में सुख है जो
नहीं है परद्रव्यों में वो
हे आत्मन्! कमजोर हो रहा देह पिंजर
पर तुम हो आनंदमयी ज्ञान निर्झर!
विदेह स्वरूप है तुम्हारा ब
हती जहाँ चैतन्य धारा
फिर भय किस बात का?
निर्भय हो तुम, निर्द्वन्द हो तुम!
बस यूँ ही स्वरूप गुप्त रहना बा
हर कर्म लुटेरे हैं।
अपनी निधि सँभालकर रखना!!
कहते-कहते फिर एक बार
हो गया कंठ अवरूद्ध
नहीं होता संत का हृदय पाषाण का,
जगत के जीवों से भी
अनंत गुणा संवेदनशील होता हृदय उनका
सो दृश्य होता दिखा यहाँ...
पर से अनासक्त होकर भी ।
उपकारी के प्रति अनंत स्नेह की
निज की पीड़ा से विरत होकर भी
समूचे जगत की पीड़ा की
बन गये कल्पनातीत करूणा की किताब,
प्रेम की पुस्तक
उपकारों का उपन्यास
प्यार की पोथी
आचार्य श्री विद्यासागर
ज्ञान रत्नाकर…
सावधान थे गुरु ज्ञान दिवाकर
सुनते संबोधन ध्यान से...
करते स्वाध्याय उपयोग से
शिष्य कहीं कर जाते चूक तो
ठीक से पढ़ने का करते इशारा,
देह हो गया कृश इतना
खड़े होने को लेना पड़ता सहारा;
गर्दन में वेदना थी भारी
शिष्य रातभर तकिया लगाये रहते बाँहों का अपना
निश्छल मासूम बालक की भाँति
सो जाते क्षपक निश्चिंतता से
सुकून से तब स्नेह भरे नयनों से
अपलक निहारते रहते ये…
करते निर्दोष साधना
मानते यही परमागम की सही प्रभावना
यूँ गुजर गए माह पर माह
पूरे सात माह...
अन्न त्याग चल रहा है पूर्व से ही
छाँछ भी अब त्याग दी,
तत्त्व-ज्ञान का जल पी रहे हैं पल-पल में
मात्र दे रहे जल एक बार शरीर में ।
वह भी कर दिया त्याग
दिन बीते यूँ चार।
देह को कितना ही सँभालो
एक दिन नष्ट होना ही है।
चाहे कोई कितना हो अपना
आखिर एक दिन खोना ही है...
जीवन-नौका डूबने से पूर्व
तट पर पहुँचा देना ही ज्ञान है।
कहीं लूट न लें आत्मा को कर्म शत्रु ।
इससे पूर्व परमात्मा से मिल लेना ध्यान है।
यह जानकर ज्ञानी गुरू
सँभालते पल-पल निज परिणामों को
सीखे थे अक्षर जिसने ज्ञान की वर्णमाला के
परम शिष्य वह
डुबा रहे ज्ञान में ज्ञानी गुरू को!
आत्मा शाश्वत है।
अजर-अमर धर्मा है।
जो कुछ दिख रहा है।
वह सब कर्म की लीला है।
निश्चय से निष्कर्मा है।
विधि की परतों से ढकी।
चैतन्य निधि को
निहारो ज्ञान-चक्षु से
यही है ज्ञान का फल ।
कि ज्ञान अवगाहित हो जाये ज्ञान में
अन्य कुछ जानने में आये नहीं
चेतना को और कुछ भाये नहीं।
सँभाल लो अनमोल रत्नत्रय संपत्ति
चौतरफा खड़े हैं विकारी तस्कर
रहना है सावधान मुनिवर!
मृत्यु होती नहीं आतम की
मरता है तन,
मृत्यु शब्द कह रहा है स्वयं
तन को कि मरे तू!
विलग होता है
विनश्वर है तन
जानते हो ना आतम?
समाधिमरण से सुसज्जित मृत्यु-रथ पर
सँभालकर ले जाना है संयम की गठरी ।
अविराम चलते-चलते यों चारित-पथ पर
पाते ही नूतन भव
स्मृति आये संयम की
पानी है मंज़िल शाश्वत मुक्तिधाम की…
तैयार रखो अपने आत्मप्रदेशों को
जाना है सिद्धों के देश को
इस भाँति दे रहे उद्बोधन…
सुन अध्यात्म वचनावली
अभिभूत ही नहीं अनुभूत भी हुए,
थे अब तक जो संघ के नायक
वे अब होकर संघ के सदस्य
कर रहे अंतर अध्यात्म साधना
अभेद रत्नत्रय की उपासना
जो की जाती है स्वयं में स्वयं के द्वारा।
संबोधन तो है केवल निमित्त
जो है उपादान का मीत
देता है संबल
आतम को बल।