Jump to content
नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • ज्ञानधारा क्रमांक - 92

       (0 reviews)

    कि इधर...

    चलते-चलते कदम संत के

    पहुँच गये कटनी नगर

    अचानक उदित हुई असाता

    देह की बढ़ गई उष्णता...

    बिगड़ गया मलेरिया

    ज्वर से तपा देह सारा

    आहार को भी उठ न पाये

    घबरा गये भक्तगण,

    देह की बढ़ती जा रही जलन

     

    पर भीतर ही भीतर चल रहा

    ज्ञायक स्वरूप का आस्वादन...

    भेदज्ञान पूर्वक मंथन-मनन

    चिन्मय चेतना का चिंतन।

     

    स्वरूप का लक्ष्य होने पर

    रूप की ओर ध्यान जाता नहीं ।

    विदेह पद का उद्देश्य होने पर

    देह से नेह रहता नहीं,

    अंतर्जगत् में विहार करने पर

    बाह्य जगत में उपयोग टिकता नहीं।

     

    एक तो चूने सीमेंट की नगरी कटनी।

    ऊपर से मच्छरों का प्रकोप!

    संत की देह काँपने लगी

    नाड़ी धीमी मंद पड़ने लगी

    इधर भक्तों की धड़कनें तीव्र होने लगीं।

    इस भाँति असाता दिखा रहा पराक्रम पूरा

    ज्वर की तीव्रता से देह होने लगा निष्क्रिय-सा,

     

    तभी अंतर्जागृति से बोले मंद स्वर में

    ध्यान से सुनो हे योगसागर!

    “आठ दिन तक मुझे कोई न पुकारे

    ‘आचार्य' कहकर..."

     

    अद्भुत थी काय की सु-दृढ़ता

    गुरू के मन की सरलता

    वचनों में सहजता, आत्मा में समता,

    तभी आचार्य श्री ने

    पण्डित जगन्मोहनलाल शास्त्री जी को

    लाने का

     

    कर दिया इशारा...

    सल्लेखना मरण की तैयारी में लग गया

    संत का चेतनात्मा।

     

    पूछा पण्डितजी ने- कैसे हो महाराज?

    सजग हूँ अंतर में स्वस्थ हूँ।

    देह काम नहीं कर रहा,

    पर विदेह का जानन-देखन कार्य

    चल रहा अनवरत।''

    सुनते ही पण्डितजी रह गये अवाक्

    यह सामान्य संत नहीं

    हैं संत भावलिंगी।

     

    श्रावक गण जाप करते रहे

    रातभर णमोकार मंत्र का

    बोर्डिंग के प्रांगण में,

    ले लो समूचा पुण्य हमारा

    पर स्वस्थ कर दीजिए मेरे गुरु को

    यूँ भावों से करने लगे प्रभु से प्रार्थना…

     

    कोई मौन तो कोई मुखर रूप में अ

    श्रु बहाते हुए प्रभु की शरण में,

    आखिर भक्तों की भावना से।

    और संत की सत्य साधना से त

    पस्वी के तप से कर्म काँपने लगे ज

    ड़ कर्म ढीले पड़ने लगे...।

     

    कर्मों की तुच्छ तपन पर

    संत की साम्य भावना के जलाशय का  

    प्रभाव पड़ा अद्भुत,

    ज्वर करने लगा पलायन

     

    जैसे विशल्या के समीप आते ही

    लक्ष्मण की मूच्र्छा दूर होने लगी

    वैसे ही निजानुभूति गाढ़ होते ही

    कर्म की उष्णता चूर होने लगी,

    भक्तों की व्याकुलता

    बदल गई निराकुलता में

    ढाई माह बीत गये यूँ

    असाता को करवट लेने में।

     

    मृत्यु को जीतने चले हैं जो

    मृत्यु की लघु सहेली असाता से

    पराजित कैसे हो सकते हैं वो!

    शिथिल शरीर से,

    किंतु दृढ़ मनोबल से

    संयमाचरण रूपी चरण से

    धरती नापते...

    राजस्थानी मखमली धरा छोड़

    चल रहे बुंदेली टीलों पर

    नदी-नाले, समतल, पहाड़

    तो कहीं बियावान जंगल, पठार

    पार करते युवा योगी

    आ पहुँचे कुण्डलपुर।


    User Feedback

    Create an account or sign in to leave a review

    You need to be a member in order to leave a review

    Create an account

    Sign up for a new account in our community. It's easy!

    Register a new account

    Sign in

    Already have an account? Sign in here.

    Sign In Now

    There are no reviews to display.


×
×
  • Create New...