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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. व्यवहार रत्नत्रय तत्त्वार्थ में रुचि हुई, दृग हो वहीं से, सज्ज्ञान हो मनन आगम का सही से। सच्चा तपश्चरण चारित नाम पाता, है मोक्ष मार्ग व्यवहार यही कहाता ॥२०८॥ श्रद्धान लाभ, बुध दर्शन से लुटाता, विज्ञान से सब पदार्थन को जनाता। चारित्र धार विधि आस्रव रोध पाता, अत्यंत शुद्ध निज को तप से बनाता ॥२०९॥ निस्सार है चरित के बिन, ज्ञान सारा, सम्यक्त्व के बिन, रहा मुनि भेष भारा। होता न संयम बिना तप कार्यकारी, ज्ञानादि रत्नत्रय हैं भव दुःखहारी ॥२१०॥ विज्ञान का उदय हो दृग के बिना ना, होते न ज्ञान बिन मित्र! चरित्र नाना। चारित्र के बिन न हो शिव मोक्ष पाना, तो मोक्ष के बिन कहाँ सुख का ठिकाना ॥२११॥ हा! अज्ञ की सब क्रिया उलटी दिशा है, भाई क्रिया रहित ज्ञान व्यथा वृथा है। पंगू लखें अनल को न बचे कदापि, दौड़े भले ही वह अंध जले तथापि ॥२१२॥ विज्ञान संयम मिले फल हाथ आता, हो एक चक्ररथ को चल ओ न पाता। होवे परस्पर सहायक पंगु अन्धा, दावाग्नि से बच सके कहते जिनंदा ॥२१३॥ निश्चय रत्नत्रय सूत्र संसार में समयसार सुधा-सुधारा, लेता प्रमाण नय का न कभी सहारा। होता वही दृग मयी वर बोध धाम, मेरा उसे विनय से शतशः प्रणाम ॥२१४॥ साधू चरित्र दृग बोध समेत पा लें, आत्मा उन्हें समझ आतम गीत गा लें। ज्ञानी नितांत निज में निज को निहारें, वे अंत में गुण अनंत अवश्य धारें ॥२१५॥ ज्ञानादि रत्नत्रय में रत लीन होना, धोना कषाय मल को बनना सलोना। स्वीकारना न करना तजना किसी को, तू जान मोक्षपथ वास्तव में इसी को ॥२१६॥ सम्यक्त्व है वह निजातम लीन आत्मा, विज्ञान है समझना निज को महात्मा। आत्मस्थ आतम पवित्र चरित्र होता, जानो जिनागम यही अयि! भव्य श्रोता ॥२१७॥ आत्मा मदीय यह संयम बोध-धाम, चारित्र दर्शनमयी लसता ललाम। है त्याग रूप सुख कूप, अनूप भूप, ना नेत्र का विषय है, नित है अरूप ॥२१८॥
  2. वैराग्य से विमल केवल-बोध पाया, ‘सन्मार्ग’ ‘मार्गफल' को जिन ने बताया। ‘सम्यक्त्वमार्ग' जिसका फल मोक्ष न्यारा, है जैनशासन यही सुख दे अपारा॥१९२॥ चारित्र बोध दृग है शिवपंथ प्यारा, ले लो अभी तुम सभी इसका सहारा। तीनों सराग जब लौं कुछ बंध नाता, ये वीतराग बनते, शिव पास आता ॥१९३॥ धर्मानुराग सुख दे दुख मेट देता, ज्ञानी प्रमादवश यों यदि मान लेता। अध्यात्म से पतित हो पुनि पुण्य पाता, होता विलीन पर में, निज को भुलाता ॥१९४॥ भाई अभव्य व्रत क्यों न सदा निभा लें, ले लें भले ही तप, संयम गीत गा लें। औ गुप्तियाँ समितियाँ कुल शील पा लें, पाते न बोध दृग ना बनते उजाले ॥१९५॥ जानो न निश्चय तथा व्यवहार धर्म, बाँधो सभी तुम शुभाशुभ अष्ट कर्म। सारी क्रिया वितथ हो कुछ भी करो रे! जन्मो,मरो,भ्रमित हो भव में फिरो रे ॥१९६॥ सद्धर्म धार उसकी करते प्रतीति, श्रद्धान गाढ़ रखते रुचि और प्रीति। चाहे अभव्य फिर भी भव भोग पाना, ना चाहते धरम से विधि को खपाना ॥१९७॥ है पाप जो अशुभ भाव वही तुम्हारा, है पुण्य सौम्य शुभ भाव सभी विकारा। है निर्विकार निजभाव नितांत प्यारा, हो कर्म नष्ट जिससे सुख शांतिधारा ॥१९८॥ जो पुण्य का चयन ही करता रहा है, संसार को बस अवश्य बढ़ा रहा है। हो पुण्य से सुगति पै भव ना मिटेगा, हो पुण्य भी गलित तो शिव जो मिलेगा ॥१९९॥ मोही कहे कि शुभ भाव सुशील प्यारा, खोटा बुरा अशुभ भाव कुशील खारा। संसार के जलधि में जब जो गिराता, कैसे सुशील शुभ भाव, मुझे न भाता ॥२००॥ दो बेड़ियाँ, कनक की इक लोह की है, ज्यों एक सी पुरुष को कस बाँधती है। हाँ! कर्म भी अशुभ या शुभ क्यों न होवें, त्यों बाँधते नियम से जड़ जीव को वे ॥२०१॥ दोनों शुभाशुभ कुशील, कुशील त्यागो, संसर्ग राग इनका तज नित्य जागो। संसर्ग राग इनका यदि जो रखेगा, स्वाधीनता विनशती दुख ही सहेगा ॥२०२॥ अच्छा व्रतादिक तया सुर सौख्य पाना, स्वच्छन्दता अति बुरी फिर श्वभ्र जाना। अत्यंत अंतर व्रताव्रत में रहा है, छाया-सुधूप द्वय में जितना रहा है ॥२०३॥ चक्री बनो सुकृत से, सुर सम्पदायें, लक्ष्मी मिले अमित दिव्य विलासतायें। पै पुण्य से परम पावन प्राण प्यारा, सम्यक्त्व हा! न मिलता सुख का पिटारा ॥२०४॥ देवायुपूर्ण दिवि में कर देव आते, वे दैव से अवनि पै नर योनि पाते। भोगोपभोग गह जीवन हैं बिताते, यों पुण्य का फल हमें गुरु हैं बताते ॥२०५॥ वे भोग भोग कर भी नहिं फूलते हैं, मक्खी समा विषय में नहिं झूलते हैं। संस्कार हैं विगत के जिससे सदीव, आत्मानुचिंतन सुधी करते अतीव ॥२०६॥ पाना मनुष्य भव को जिनदेशना को, श्रद्धा समेत सुनना तप साधना को। वे जान दुर्लभ इन्हें बुधलोक सारे, काटे कुकर्म मुनि हो शिव को पधारे ॥२०७॥
  3. अनवरत बहना ही है प्रयोजन जिसका चराचर को जानना ही है कार्य जिसका स्वच्छ दर्पण की भाँति धारा में झलक आयी संत की अंतिम परिणति धन्य है यति की नियति, प्राप्त कर ली जिनने लक्ष्यभूत पंचमगति ज्ञानधारा ने कथानायक की शुद्ध स्वात्म ज्ञायक की जानकर भावी सिद्धावस्था अभिभूत होकर की प्रार्थना जितने भी जीवात्मा हैं जग में सभी दुख मुक्त हों यही है अंतर्भावना अनंत अव्याबाध सुख युक्त हों। जिस तरह, विद्याधर ने… समकित धर्म बीज का वपन कर पावन किया जीवन का प्रथम अध्याय, ज्ञान अंकुर को प्रगट कर पा लिया जीवन का द्वितीय अध्याय, चारित्र रूपी पौधे को पल्लवित कर सार्थक किया जीवन का तृतीय अध्याय, तपाराधना के सुमन खिलाकर महका दिया जीवन का चतुर्थ अध्याय, और आनंद के फल दोलायित कर सफल किया जीवन का पंचम अध्याय इसी तरह सभी का पूर्ण हो जीवन अध्याय। इधर... ज्ञानधारा और विद्याधारा एकमेक होती-सी गतिशीला हैं निरंतर संत चरण-स्पर्श से पुलकित है धरा इधर गुरू के अमरकीर्ति के गीत हवाएँ गा रहीं उधर, संयमित जीवन के वर्ष पचास बीतने जा रहे... पर सदलगा के संत अभी तक जन्मस्थली की ओर कदम न बढ़ा रहे पल-पल कर रही प्रतीक्षा वहाँ की धरती । कब आयेगा दक्षिण का देवता फैल रही जिनकी जगत में कीर्ति रोती हुई वहाँ की धरा सुबकते-सुबकते उसका आँसू एक गिरा । जहाँ बह रही ज्ञानधारा, तब से अब तक संदेश देने गुरु को सरपट भाग रही वह धारा, किंतु संत के शिवपथगामी चरण की गति अति तीव्र है। एक ओर धरा की अनमोल धरोहर बह रही चिन्मयी विद्याधारा साथ ही विद्याधर की कथा कारिका सरक रही बोधमयी ज्ञानधारा एक मुनि में समायी है। दूसरी मौन स्वरूपा विज्ञजनों के मन में भायी है। कहते हैं पूर्णज्ञानी कि ज्ञानधारा से ही बना ज्ञान का सागर ज्ञानसागर से ही बना विद्या का सागर जहाँ-जहाँ विचरते हैं चरण इनके वहाँ-वहाँ लगता स्वर्णिम काल है ये संयमोत्सव का लगता नज़ारा मिट जाता मिथ्या अंधियारा ऐसे विराट व्यक्तित्व को कुछ पृष्ठों में आँकना ज्यों आकाश को आँचल में बाँधना कैसे संभव है? भाँति-भाँति से स्वयं को समझाती भव्यों के लिए भावना भाती उपयोग की गति पूर्णमति की ओर हो सबकी प्रगति पंचमगति की ओर हो… ज्ञानधारा के लहर रूपी नयन देखते रहे अतीत को मुड़कर अनागत को आगे बढ़कर और वर्तमान में रहकर विद्याधर से विद्यासागर को उनके आगमानुसार रत्नत्रय आचरण को देखते ही देखते इस माया लोक से बहुत दू… र भीतर चेतना लोक में समाती ज्ञाऽ ऽ ऽ न धा ऽ ऽ ऽ रा ऽ ऽ
  4. सुना है जब कंस करता है अत्याचार तब धरा पर आता है कोई कृष्ण बनकर, जब हिंसा का तांडव नृत्य हो रहा था तब भू पर आया कोई वीर बनकर, रावण के आतंक से मुक्ति दिलाने आये मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम बनकर, जब संस्कृति पर हो रहा कुठाराघात तब दक्षिण से उत्तर में आये । गुरुवर विद्यासागर बनकर… कुंठित होती प्रतिभाओं को देकर अपना जादुई आशीर्वाद प्रतिभास्थली का रूप देकर जगाया जन-जन का सौभाग्य, किया संस्कारों का शंखनाद... जहाँ शिक्षिकाएँ हैं उच्च शिक्षा संपन्न बाल ब्रह्मचारिणी द्वारा होता अध्यापन, सर्वाङ्गीण होता यहाँ विकास देख जबलपुर, रामटेक, डोंगरगढ़ की प्रतिभास्थली आती है तक्षशिला और नालंदा की याद। प्राचीन गुरुकुलों की पवित्र जीवनशैली इन विद्यालयों में झलक रही... कन्याएँ पढ़ने को यहाँ ललक रहीं! अन्य दिल्ली इंदौर मढ़ियाजी वहाँ भी समुचित व्यवस्था है विद्यार्जन की, यह सब गुरु-कृपा का फल है। अन्यथा लोगों के विचारों में क्या बल है? मन में विचार मकड़ी के तंतु से भी अधिक हैं कोमल उसे टूटते देर नहीं लगती, फहराती पताका के समान हैं अस्थिर उसे दिशा बदलने में देर नहीं लगती बहते स्पंदन” की भाँति हैं तरल उसे गति बदलने में देर नहीं लगती समुद्र की लहरों के समान हैं चंचल उसे उसी के अंदर समाने में देर नहीं लगती। जानते हैं यह गुरूवर कि खाली दिमाग शैतान का घर ज्ञान से भरा दिमाग भगवान का घर। कोई न रहे बेरोजगार स्वाभिमानी बन पाये स्वरोजगार इस हेतु गाँधी का हथकरघा चलायें स्वाधीन अहिंसक पद्धति अपनायें। परापेक्षी पराधीन हो जीता है दीनहीन-सा । स्वावलंबी निजाधीन हो जीता है मालिक-सा । प्राचीन भारतीय अर्थव्यवस्था के प्रमुख घटक कृषि व हथकरघा थे, इसी से भारत था सोने की चिड़िया रोटी, कपड़ा और मकान मूलभूत थी आवश्यकता ये। रोटी पाते कृषि से कपड़ा हथकरघा से । मकान गाँव की माटी से, यों स्वदेशी वस्तुएँ अपनाते भारत का भाग्य चमकाते, भारतीय हथकरघा ब्रांड है। आज भी इसकी बहुत माँग है, किंतु भारत को इंडिया बनाने की चाह में पाश्चात्य विकृति के दुष्प्रभाव में अपने ही पैरों पर मारी कुल्हाड़ी जिससे तेजी से फैली भुखमरी बेरोजगारी... आज लोकतंत्र में पल रहा लोभतंत्र लोकतंत्र में दृष्टि होती चेतन की ओर किंतु लोभतंत्र में होती है अचेतन की ओर... वर्तमान प्रधानमंत्री का कहना है गुलामी से मुक्ति के लिए। हथकरघा एक सशक्त हथियार था। तो आज़ाद भारत में गरीबी से मुक्ति के लिए आज भी यह हथियार बन सकता है। आचार्य भगवंत की दूरदर्शिता ने आर्थिक सुरक्षा के साथ नैतिक हो उन्नति सं स्कृति, चारित्र व धर्म हो सुरक्षित यह विचार कर हथकरघा का दिया उपदेश, जाति, संप्रदाय से परे संत का पाकर संदेश कई ब्रह्मचारी गुरु भक्त बड़े-बड़े पदों का कर त्याग गाँव, नगर, घर-घर खुलवाने लगे हथकरघा। इस योजना में लाभ ही लाभ है। इससे आर्थिक सशक्तता घर-घर रोजगार की उपलब्धता झालधारा राष्ट्र निर्माण में सहभागिता कार्य-प्रणाली में स्वाधीनता आत्म-निर्भरता भारतीय संस्कृति की सुरक्षा, साथ ही कौशल का विकास आर्थिक गुलामी का विनाश हो जाता है स्वयमेव। धन्य हैं महासंत! जिन्हें अपनी-सी लगती समूची वसुधा भारत की धरा पर विहार करते गुरुवर... न जाने कब पहुँच जाते। अपने अंतर्जगत् में, वैसे बाहर का विहार-पथ तय किया जाता है चलकर, लेकिन आत्म विहार-पथ तय करते हैं उपयोग को स्थिर कर। बाह्य विहार में थकते हैं चरण, किंतु अंतर्विहार में सुख पाता है चेतन... यूँ अनुभव कर निजात्मा को निहारते हैं। जनमानस की सुषुप्त चेतना को जगाते हैं। कहते गुरूदेव-अरे प्राणियों! खानपान यदि करोगे दूषित तो मन कैसे होगा पवित्र? जैसा करोगे भोजन वैसा होगा भजन इसीलिए शुद्ध पद्धति से उत्पन्न हो छने जल से खाद्य-पेय का निर्माण हो। भारत स्वाधीन बने जिससे ‘पूरी मैत्री' नाम दिया इसे पूरे जीवों से मैत्री भाव हो । एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक किसी का न घात हो अहिंसा की बात हो निश्छल मन से अर्थ कमाये । बच्चों को शुद्ध शाकाहारी बनाये… क्योंकि अब तो बच्चों के बिस्कुट गोली में मिलावट जहाँ देखो वहाँ... खाद्य पदार्थों में मिलावट पानी से वाणी तक दूषित अन्न से मन तक दूषित, कहीं सुअर की चर्बी, । तो कहीं गाय की चर्बी, मांस भक्षी निर्दयी जीव नभ के सब जीव खा गये बच गया हवाईजहाज! जल के सब जीव कर गये भक्षण बच गया केवल जहाज! थल के सब चौपाए खा गये बच गई मात्र चारपाई। हाय! कैसी दुनिया में हिंसा की मची तबाही!! कुछ कहा नहीं जाता इन मूक जीवों का दर्द सहा नहीं जाता... फिर भी बैठे सब हाथ पर हाथ धरकर तभी गुरूवर आये धर्मदूत बनकर जिनकी हर श्वास में दया की आहट है। जिनकी हर धड़कन में करुणा का प्रवाह है। जिनकी हर सोच में सागर से अधिक गहनता परमाणु से अधिक सूक्ष्मता । इसीलिए मिल रही अब शुद्ध भोजन की सामग्री खुल गई है पूरी मैत्री। लक्ष्य है भोजन शुद्धि का आत्मा में विशुद्धि हो, उद्देश्य है भाग्योदय का प्रत्येक मानव निरोगी हो, इस हेतु गुरु आशीष से । ‘सागर' में हुआ भाग्य का उदय जनसंकुल से भक्ति-भरा पूँजा स्वर जयवंत हो गुरू करूणाम! पद प्रतिष्ठा पैसा परिवार इन सबसे थक हारकर इंसान पाना चाहता है शरण भगवान की भगवान हैं तो भक्त है। धार्मिक हैं तो धर्म है। संस्कार हैं तो संस्कृति है। सन्मति है तो सद्गति है। जिनसंस्कृति की हो चिर सुरक्षा यही है आचार्यश्री की भावना इस हेतु बुंदेलखंड का प्रधान । कुंडलपुर में हुआ विशाल मंदिर का निर्माण पाषाण से जो निर्मित है। बड़े बाबा की जहाँ अप्रतिम मूरत है। और भी अनेकों हैं जिनालय निर्माणाधीन हैं सहस्रकूट आदि चैत्यालय। अमरकंटक क्षेत्र सर्वोदय सुंदर छटा मनहर प्रकृतिमय ऋषभदेव का मंदिर उन्नत बारीक शिल्पकला को लखकर दर्शक का मन होता हर्षित जय-जय गुरुवर जन-जन वंदित, नेमावर सिद्धोदय भू पर त्रिकाल चौबीसी जिनगृह सुंदर त्यागी व्रतीजनों का आश्रम, चंद्रगिरि डोंगरगढ़ प्यारा- बनी विशाल पत्थर की प्रतिमा हैं जिनभवन त्रिकालचौबीसी सब निर्माणाधीन अभी भी, । रामटेक में मन रुक जाता जो भी जिनगृह दर्शन पाता... नगर नागपुर, सागर में भी भाग्योदय के प्रांगण में भी जबलपुर की मढ़ियाजी में जिला रायसेन सिलवानी बीना बारहा, कोनी, पाटन और अन्य भी कई जिनभवन... । गुरूदेव के आशीर्वाद से कुछ बने कुछ बन रहे हैं, इस तरह स्वयं शिवपथिक बन औरों को भी पथ दिखा रहे हैं। यदि गुरु को मार्ग दिखाने का राग नहीं आता । तो हमें राग-रहित तत्त्व कौन समझाता? अनुभूत हुआ ज्ञानधारा को... कि गुरु नाव नाविक गुरू, गुरु बिन तिरा न जाय। गुरु-कृपा से प्रभु मिले, गुरु बिन मुक्ति न पाय॥ जैसा गुरू को लखा, सो ही लिखा स्वर्ण-सम निरखते देखा चन्दा-सा दमकते देखा। सूरज-सम चमकते देखा सुमन-सा महकते देखा; क्योंकि स्व-पर कल्याण करते हुए भी पर का कर्तृत्व भोक्तृत्व भाव नहीं पर से एकत्व ममत्व राग नहीं, जो होता है सो होने दो ज्ञान को ज्ञाता रहने दो इसी सूत्र के बल पर- कर्तव्य करते हुए भी गुरूवर अन्य पर अधिकार नहीं रखते देह में रहते हुए भी देह से ममकार नहीं धरते पग-पग पर प्रसिद्धि पाते हुए भी पुण्य का अहंकार नहीं करते; क्योंकि अध्यात्म योगी यतिवर जानते हैं कि जो मुझे चाहिए वह सब मुझमें ही है, अनंतज्ञान किसी ग्रंथों में नहीं निज-ज्ञाता में ही है, अनंतदर्शन किसी दृश्य में नहीं स्वात्म-दृष्टा में ही है, अव्याबाध सुख पर के भोगों में नहीं शुद्ध चेतन के भोग में ही है, अनंतवीर्य देह की अस्थि में नहीं चिन्मय अस्ति शक्ति की व्यक्ति में ही है। जो जगत को जाने ज्यादा से ज्यादा भले ही मान ले दुनिया उसे ज्ञानी, किंतु जो जान ले केवल अपने को वही है सच्चा ज्ञानी। ऐसे आत्मज्ञानी, सद्ध्यानी आचार्य श्री जी महादानी, अपने शिवगामी चरणों से चरैवेति चरैवेति' शब्दों को कर रहे सार्थक... । उधर समय भी निःशब्द, अपनी चाल से चल रहा अनवरत… इधर ज्ञानधारा भी अविरल बहती गयी भू पर विद्यासिंधु की कहानी उकेरती गयी, तूफानी हवाओं ने कई बार धरा पर लिखे लेख को हटाना चाहा पर वह हटा न पायी, ज्ञान की टाँकी से टाँके अक्षरों को मिटा न पायी, संत के जीवन की कविता यह मात्र पढ़ने या जानने की ही नहीं वरन् स्वयं को पाने की प्रक्रिया भी है। निज को पाना कहें या स्व को जानना कहें, बात एक ही है। ज्ञानधारा की कविता महज़ रचना नहीं प्रमाण है उसके पास कि गुरू को हर-पल निहारा है उसने हर पल हर जगह से निरख सकती उन्हें हो गयी वह ऐसी मगन साक्षी भाव से समझ सकती उन्हें ऐसी धारा को सौ-सौ नमन्। धारा के स्वच्छ ज्ञान जल में झलकी संत की भावी परछाई यद्यपि संत हैं विरत, किंतु कभी प्रमत्त कभी अप्रमत्त कभी गुप्ति कभी समिति, कभी प्रभु रूप कभी चिद्रूप निरख कर यो संख्यात हज़ार बार परिवर्तन कर, पा रहे गुणस्थान अष्टम।। क्षपक श्रेणी का सोपान प्रथम अपूर्व-अपूर्व परिणामों का संवेदन कर । नवमें अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में जाकर निवृत्त हो कषाय और वेद से सूक्ष्मसाम्पराय में सूक्ष्म लोभ के उदय से मोह राजा जीवित रहता यहाँ तक, यह जानकर प्रथम शुक्लध्यान के बल पर सीधे पहुँचे क्षीणमोह गुणस्थान हार गया मोह रिपु बलवान, तभी द्वितीय शुक्लध्यान के प्रभाव से शेष तीन घाति कर्म का घात करके प्राप्त की अरहंत अवस्था, घातिया कर्म से मुक्त दशा अनंत चतुष्टय वान जयशील हो केवली भगवान। यों तीन लोक के स्वामी पूज रहे उन्हें पपीहे की भाँति दिव्य वचनामृत पी रहे ज्ञानधारा ने सब देखा परछाई में यह पूर्व में जो विद्याधर से हुए 'विद्यासागर यतिराज' । आज वे ही हो गये पूर्ण ज्ञानसागर मुनियों के नाथ देखकर अरहंत अवस्था परमानंद से लहरों के बहाने अर्घ्य चढ़ाकर प्रफुल्लित हो आयी।
  5. यह कैसी देश की आजादी? फट गई धोती खो गई खादी, माँ, मातृभूमि और मातृभाषा इन तीनों का कोई विकल्प नहीं होता... सच्ची सुंदर भाषा हिंदी है। भारत माता के भाल की बिंदी है, हिंदी कृति है, प्राकृत प्रकृति संस्कृत संस्कृति तो अंग्रेजी विकृति। अंग्रेजी बोलते समय होता मात्र बायाँ मस्तिष्क सक्रिय हिंदी बोलते समय होता सारा मस्तिष्क सक्रिय भाषा की नींव दृढ़ किये बिना स्वराज्य की नींव दृढ़ हो नहीं सकती, ज्ञान का लक्ष्य चारित्र निर्माण होना चाहिए और चारित्र का लक्ष्य एकमात्र निर्वाण होना चाहिए। शिक्षा के क्षेत्र में संस्कार की मिश्री अवश्य घोलना चाहिए। क्योंकि आचरण के बिना व्यर्थ है बोलना और ज्ञान के बिना व्यर्थ है औरों को समझाना। व्यवसायिक हो गई शिक्षण व्यवस्था जहाँ देखो वहाँ स्पर्धा ही स्पर्धा... भले ही जान लें यंत्रों से जगत को, किंतु नहीं जानते बेचारे ये अंतर्जगत् को दूसरों को पहचाने वह शिक्षित है। स्वयं को पहचाने वह समकित है। ज्ञानधारा की उछलती एक लहर भी बोल पड़ी। शिक्षा के विषय में कि एक हकीम की गलती ढक जाती है। किसी कब्रिस्तान या श्मशान में, एक इंजीनियर की गलती ढक जाती है। ईंट पत्थर या सीमेंट के मकान में, एक अपराधी की गलती ढक जाती है। झूठे बयान में, किंतु गलती एक शिक्षक की झलकती है समूचे देश में... शिक्षक कभी साधारण नहीं होता। प्रलय और निर्माण पलते हैं। उसी की गोद में... एक ओर बुद्धि का हो रहा विकास दूसरी ओर हृदय की भावना का हो रहा विनाश तभी तो उच्च शिक्षा पाने में स्पर्धा के बाजार में आकर सदमे में आये दिन कई विद्यार्थी कर रहे अकालमरण... कई माताएँ हो गईं निःसंतान… जीवन की सबसे बड़ी कायरता है। आत्महत्या करना, जीवन की सबसे बड़ी कर्मठता है कर्महंता बनना। चा हे कितनी भयंकर हो वेदना प्रतिकूलता पर प्रतिकूलता, पर पशु कभी आत्महत्या का निकृष्ट मार्ग अपनाते नहीं। फिर आज के शिक्षित । क्यों स्वयं को अकालमौत से बचाते नहीं? शिक्षा के दुष्प्रभाव से कई बूढ़े माँ-बाप का आशियाना बन रहा वृद्धाश्रम, अंतिम श्वास तक तड़पते हैं मिलने को मलचते हैं संतान को देखने नयन... अरे! शिक्षा तो समाज परिवर्तन का प्रभावशाली साधन है, किंतु शिक्षा के साथ संस्कार न हो तो होता धर्म विराधन है। शिक्षा में विदेशी भाषा का देख बढ़ता हुआ प्रभाव कराह उठी भारतीय संस्कृति... क्योंकि भाषा प्रभावित करती भावना को । उस देश की संस्कृति और पहनावे को, भाषा और समाज का संबंध है निकटतम भाषा और आचरण का संबंध है गहनतम... तभी तो आज अपना देश, धर्म, माता-पिता को छोड़ नौकर बनने को लगा रहे दौड़, कोई नहीं बनना चाहता इंसान वकील, इंजीनियर, डॉक्टर बनने की लगी होड़... अपनों से दूर रहकर अंतर्जातीय कर लेते विवाह विषयों में चूर होकर कर रहे संस्कृति का विनाश! नहीं रहे विद्या के आलय हो रहा विद्या का लय विद्यालय कारोबार के बन गये केन्द्र शिक्षक हो गए स्वतंत्र... जबकि विश्व गुरु भारत पुरातन से शिक्षा का रहा प्रथम केन्द्र।
  6. देश के कुछ नेता आये दर्शनार्थ... दर्शन कर कहा दयासिंधु गुरु से दीजिए कोई आज्ञा हमें कहा विश्व संत यतिवर ने देश में शांति हो, कोई भी जीव दुखित न हो भारतीय संस्कृति सुरक्षित हो, सुनते ही यह कहा एक नेता ने संतों में महासंत हैं आप! एक ऐसे संत का दर्शन किया आज जो सोचते हैं समूचे विश्व के लिए, जानी जायेगी सदी ये ऐसे संत के नाम से... साम्य दृष्टि कहती है जिनकी एक तवे की रोटी क्या मोटी क्या छोटी? सभी जीव एक समान हैं जिन्हें प्यार है प्राणी मात्र से उन्हें। माना कि आदमी की हैं आवश्यकताएँ । किंतु जब बन जाती हैं वही आकांक्षाएँ तब वह रहता नहीं मानव बन जाता है दानव; क्योंकि तन की होती आवश्यकताएँ लेकिन मन की होती आकांक्षाएँ तन की भूख में पर्याप्त है रोटी मन की भूख को चाहिए पराठा, पूड़ी जब तक आकांक्षा पनपती रहेगी इष्टानिष्ट कल्पना चलती रहेगी। जो प्राप्त हो उसमें लगे तृप्ति वह है आवश्यकता, जो प्राप्त है वह कभी पर्याप्त न लगे वह है आकांक्षा। साक्षर होकर भी आज का इंसान राक्षस बन अपनी इच्छा पूर्ति हेतु कर रहा घोर हिंसा... वीर, नानक, गाँधी के देश में सिसक रही अहिंसा! तभी आशा का एक दिनमान बन धरा पर आये गुरुवर मूक प्राणियों के लिए वरदान बन बचाने आये यतिवर… गुरु उपदेश से- खुल गई ‘शांति दुग्धधारा' एक तरफ होती पशुधन रक्षा दूसरी अनेकों परिवारों की आजीविका, बाजार से जो लाते दूध-दही । उसमें कितनी मिलावट रही शैम्पू निरमा, यूरिया से नकली दूध बनाकर के पिला रहे विष के प्याले अमृत-रस गौदुग्ध छोड़कर, इसीलिए तो भयंकर रोग पल रहे घर-घर। यह शांति दुग्धधारा आचार्य भगवंत के चिंतन का प्रसाद है सारा, जिनने रक्त रंजित माहौल से दूर कर दिखाया दुग्ध की भाँति श्वेत शांति का नज़ारा, चाहते वे- जग सारा बँधे अहिंसा की डोर में । दूर हो बेरोजगारी लाचारी । जीये सब दयामयी भारतीय संस्कृति की भोर में। आचार्यों ने बताये चार पुरुषार्थधर्म, अर्थ, काम, मोक्ष किंतु आज के धनांध मानव को दिख रहा मात्र अर्थ ही अर्थ! यदि धर्म पुरुषार्थ की नींव ही नहीं। तो अर्थवान कहलाता परिग्रही। नहीं है अर्थ और काम पुरूषार्थी वह कामी भोगी है व्यभिचारी वह, मोक्ष पुरूषार्थ की तो बात ही नहीं; क्योंकि प्रथम धर्म पुरूषार्थ ही नहीं। घर-घर में पहले सुना जाता था गौरव अब गृह आँगन में भौंकते हैं श्वान इसीलिए तो इंसान भी हो गया शैतान, जिस आँगन में रहे गैया। वास्तु-दोष वहाँ न रहता गोघृत के दीप जहाँ जलते बाधा संकट सब मिट जाते, गोबर की गंध जहाँ रहती रोग भागते व्याधि न पनपती, एक गाय ही है ऐसी जो ऑक्सीजन लेकर ऑक्सीजन छोड़ती भी है। प्रत्येक पहलू से है गाय उपकारी सुन लो हे मरतन धारी! जा सकते सोलह स्वर्ग तक देशव्रती बनकर गौ आदि जानवर कहते हैं महा मनीषि ऋषिवर इसीलिए तुम जीवों को न मारो न इनके मन को दुखाओ। ज़रा उर में दया लाओ मानव जीवन व्यर्थ न गवाओं; क्योंकि प्राणी मात्र के कल्याण की कामना ही कामधेनु है, जीव मात्र के लिए सुख की कल्पना ही कल्पवृक्ष है, और प्राणी मात्र के हित का चिंतन ही चिंतामणि है।
  7. गुरु के हृदय-हिमगिरि से बहती पल-पल करूणा-धारा इसीलिए तो नगर-नगर में खुलवा दीं गुरु ने गौ शाला, पल रहीं लाख से अधिक गैया बंद हो जिससे गौ-वधशाला, मालवा, राजस्थान, निमाड़ बिहार, छत्तीसगढ़, गुजरात हरियाणा, उत्तरप्रदेश में दिल्ली, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश में लाखों गायों का रक्षण कर पर की पीड़ा को समझकर करा दी सजग संत की पहचान ऐसे ही थे पहले भगवान! वृक्ष यदि फल से भरा ही चाहिए नदी का जल मीठा ही चाहिए तो मनुष्य के हृदय में दया भी अवश्य चाहिए। धन्यास्ते हृदये येषामुदीर्णाः करुणाम्बुधिः ‘दया मूलो धम्मो'' कहा है। बिना मूल के फूल कहाँ है? ईर्ष्यालु किसी को देख नहीं सकता सुखी तो दयालु किसी को देख नहीं सकता दुखी।
  8. सन् उन्नीस सौ छियानवें में गिरनार यात्रा के दरम्यान मांस-निर्यात रोकने का किया आंदोलन कहा गुरु नेसंविधान की डायरी में दया, करुणा, अनुकंपा प्रमुख हो, ‘जीओ और जीने दो' वीर का नारा सार्थक हो। यदि अर्द्धरात्रि में भी ज्ञात होगा मुझे, कि मांस निर्यात बंद हो गया भारत से, मौन खोलकर तभी बोलूंगा मैं जय... हर्ष भाव से ‘अहिंसा परमोधर्म' की । यों बोले आचार्य श्री विद्यासागरजी।
  9. कहना है गुरू का कि जड़ के बिना वृक्ष नहीं दया के बिना धर्म नहीं, पशुओं पर करुणा करना मानव का धर्म है, दया, प्रेम, अनुकंपा रखना यह व्यवहारिक धर्म है। पापों की शुद्धि करने आचार्यों ने गौदान कहा फिर गायों की हत्या करना निश्चित महापाप माना, पशु-वध से आ रही । प्राकृतिक आपदाएँ। नष्ट हो रहीं नैतिक संपदाएँ, रक्षक ही भक्षक बना मालिक ही मारक बना भंडारी ही लूट रहा खजाना देख यह देश की दुर्दशा संत की रो पड़ी आतमा...
  10. चहुँ ओर दूर-दूर तक आध्यात्मिक संत की फैलती हुई ख्याति... अंतर के स्वचतुष्टय में ज्ञानदीये की बढ़ती गई ज्योति... ज्ञानधारा ने देखा प्रत्यक्ष नज़ारा प्रकृति ने अपना आँचल पसारा, सूरज इनसे तेज माँगता यश की गंध सुमन चाहता कलियाँ कोमलता को तरसी गुरू-सी क्षमा धरा ने चाही निर्ग्रंथ संत होकर भी जाति, धर्म या संप्रदाय से परे जीव मात्र का उद्धार चाहते हैं ये जैनों के ही नहीं जन-जन के गुरु हैं ये! मूल में है दया जिनकी चूल में है चारित्र ध्वजा जिनकी अहिंसा धर्म के जो मसीहा हैं कर्तृत्व की दुर्गंध से परे प्रसिद्धि की किञ्चित् न ईहा है वर्तमान कलिकाल में यथार्थता से कर रहे जो तीर्थंकर-सी भूमिका का निर्वहन अहिंसा व जीवदया का कर रहे प्रचार गहन, घनघोर हिंसामय वातावरण में मूक पशुओं का अस्तित्व जान खतरे में विदेशी मुद्रा पाने के खातिर जीवों को मार कर शासन कर रहा कमाई, पिंक क्रांति के नाम पर हाय! कैसी मची है विश्व में तबाही… सच ही कहा है- “जिन नयनों ने करुणा छोड़ी उनकी कीमत फूटी कोड़ी।" अहिंसा प्रधान देश है हमारा बहा करती थी जहाँ घी-दूध की नदियाँ वहीं बह रही आज रक्त की धारा! जहाँ नेमिप्रभु ने पशु बंधन तोड़ विषयों से मुख मोड़ लिया, पार्श्वप्रभु ने जलते नाग-नागिन को बचाकर महामंत्र का सार सुना दिया… तीर्थंकरों के कई चिह्न हैं पशुओं के हो रहा उन पर अत्याचार हिंसा के तांडव से धरा पर हो रहा सर्वत्र हाहाकार... अरे! यहाँ तो श्वान को भी सुनाया णमोकार दयालु जीवंधर ने, न्याय के लिए लड़ पड़ा जटायु भी रावण से, आवास दान दिया शूकर ने भी संत को, श्रीराम ने भी सुनाया मंत्र । मरणासन्न बैल को, पिंजड़े में पंछी को ना कैद करो अपनी स्वतंत्र सत्ता पहचानो, जीवों में यूँ ना भेद करो। क्षुद्र प्राणी मेंढक प्रभु-भक्ति से देव बन गया, रात्रि अन्न-जल त्यागी सियार भी सेठ पुत्र प्रीतिंकर बन गया, कौन जानता था चाँदनपुर के वीर को झराया दूध गैया ने प्रकट किये टीले से प्रभु महावीर को, अपनी आँखों में मिर्ची भरवाना किया स्वीकार पृथ्वीराज चौहान ने किंतु गाय को मारना स्वीकार नहीं कहने को जीत गया मोहम्मद गौरी पर धर्म से चौहान हारा नहीं। आज भी इतिहास के पृष्ठों पर लिखा है उसका नाम स्वर्णाक्षरों में... वोट नीति ने आज कर दी मानव की भ्रष्ट मति... जैसे तैसे कैसे भी चाहिए। हाय! उन्हें तो पैसे चाहिए… पेट नहीं, पेटी भरना है। अपनी स्वार्थ पूर्ति के लिए न जाने कितने बेजुबानों को मारना है, खाने के लिए ही नहीं । उन्हें समूचे खानदान के लिए चाहिए, पेटी की चिंता नहीं उन्हें पीढ़ी दर पीढ़ी तक के लिए चाहिए। ऋषि बनो या कृषि करो' यह वृषभदेव का है उपदेश... ‘भरत चक्रवर्ती से ही नाम पड़ा है भारत देश... षट् आर्य कर्म हैं श्रावक के ‘जिनसेन यतिवर' का कहना... कुलधर्म कहा 'आदिपुराण' में गो पालन और कृषि करना, श्री ‘वीरसेनयति' ने 'धवला' में या श्रीः सा गौ''शुभ सूत्र रचा जो लक्ष्मी है वह गाय रूप ऐसा महान गुरू ने सोचा। कन्यादान में दी जाती गौ गर्भवती को भी दान में गौ गौ दुग्ध से होता है निरोग मिलती है धन-संपदा करूणा की कविता है गैया इसके पालन से मिटती विपदा ‘परस्परोपग्रहो जीवानाम् इसीलिए कहा ‘आचार्य उमास्वामी ने, करुणा की स्याही से लिखा गौ-संस्कृति का पाठ 'विद्यासिंधु गुरु' ने।
  11. आत्म-हित समन्वित अनेकों लिख दिये साहित्य संस्कृत में शारदास्तुति, श्रमणशतकम्, निरंजन शतकम् भावना, परीषहजय, सुनीतिशतकम् धीवरोदय चंपू काव्य, चैतन्य चन्द्रोदयशतकम् हिंदी मातृभाषा में मूकमाटी महाकाव्य, तोता क्यों रोता, चेतना के गहराव में, हाईकू कविता,डूबो मत लगाओ डुबकी, नर्मदा का नरम कंकर, अध्यात्म भक्ति गीत, मुक्तक शतक, श्रमण शतक, निरंजन शतक निजानुभव, परीषहजय शतक भावना, सुनीति शतक, दोहा-दोहन शतक सूर्योदय शतक, पूर्णोदय शतक सर्वोदय शतक, जिनस्तुति शतक विज्जाणुवेक्खा प्राकृत, कन्नड़ कविता अंग्रेजी कविता, बंगला कविता। कई ग्रंथों का किया अनुवादन त्रियोग से उनका अभिवादन निजामृत पान, कुंद-कुंद का कुंदन नियमसार, स्वरूप संबोधन आचार्य पूज्यपाद कृत भक्ति पाठ, योगसार आप्तमीमांसा, प्रवचनसार एकीभाव स्तोत्र, जैन गीता गोम्मटेश अष्टक, समंतभद्र की भद्रता कल्याण मंदिर स्तोत्र, रयणमंजूषा इष्टोपदेश, द्रव्यसंग्रह, आप्तपरीक्षा बारसाणुवेक्खा, गुणोदय, पंचास्तिकाय समाधिशतक, अष्टपाहुड को शीश नवाय। यह महासंत, भावी अरहंत मुक्ति-वधू के होंगे कंत, भावना यह उभरी ज्ञानधारा से… जो लिख रही कविता स्वयं महामना पे वे अध्यात्म क्षेत्र के रवि हैं वीतराग रूप छवि है, लिखी कविता हो उठी जीवंत ऐसे संत पर; क्योंकि काव्य-नायक स्वयं विद्यासागर कवि हैं!!
  12. बहते-बहते ज्ञानधारा ने सुनी अचानक कुंडलपुर में एक पाषाण खंड के गिरने की आवाज़, नीचे बैठा था एक युवा गिरी जोर से सिर पर खाने लगा वह चक्कर... तभी पहाड़ चढ़ते गुरू की पड़ी उस पर एक दृष्टि, युवा ने जोड़े हाथ झुका लिया सिर दर्द हुआ पल भर में छूमंतर गुरु की करुणामयी एक नज़र पा असाता भी पलट कर हुआ साता, ज्यों ही युवा ने झुकाया माथा यही तो महिमा है वास्तविक संत की प्राणी की तो बात ही क्या पाषाण भी हो जाता मृदुः! कठोर पाषाण भी हो जाता मोम-सा! सच है गुरु बिन हो जाता है जीवन रूक्ष रेगिस्तान-सा तुच्छ तिनके-सा, क्षुद्र धूल के कण-सा। दमोह से सागर विहार में चल रहे थे अनेकों भक्त साथ में तभी गुजरे नागरवेल के नीचे से कहा एक विद्वान् ने धीरे से इसके पत्तों का रस तो केवल आँखों को ही करता निर्मल, किंतु आपके ज्ञान का रस अंतर्दृष्टि को कर देता निर्मल। चलते-चलते बैठ गये एक शिला पर कुछ पल.. उठकर जाने लगे जब गुरु से स्पर्शित शिला को तब ले जाने की लगी होड़ भक्तों की बोली पर बोली लगने लगी पाँच लाख तक आ पहुँची। सूरि जब मंत्र फूँक बना देते पाषाण को भगवान तब जिस पाषाण पर बैठे सूरि भगवान क्यों न हो उसका मूल्य महान? समीप ही थी चाय की दुकान मालिक था उसका बलराम उसी की थी वह शिला देख भक्तों का समुदाय उसका हृदय खिला... उठाकर शिला ले गया घर बोला लोगों से हाथ जोड़कर चाहे पाँच करोड़ रुपये भी दो फिर भी नहीं दे सकता यह शिला प्रस्तर लगाकर गुरु की तस्वीर पूजने लगा उसे… लिखते-लिखते लेखनी थम गई शब्दों की श्रृंखला कम पड़ गयी आखिर कहाँ तक लिखें बाह्य चमत्कार! संतात्मा की चैतन्य सत्ता में होते नित नवीन स्वानुभूतिमय चिन्मय चमत्कार। "दीवसमा आइरिया अप्पं परं च दीवदि'' कहती-कहती रुकती नहीं बहती जा रही ज्ञानधारा... गुरू की सातिशय पुण्य वर्गणाओं का पाकर निमित्त अनेकों कार्य होते जाते सहज नित, किंतु पर कर्तृत्व से रहते हैं परे जीवन के सत्य को पहचानने स्वातम को जानने जीवन को संयमित रखने देते हैं जन-जन को संदेश। कुंदकुंद यतिवर के समयसार वट्टकेर मुनिवर के मूलाचार समंतभद्र की तार्किक टंकार रूप त्रिवेणी का देते हैं उपदेश। जो पर्वत-सम अचल जल-सम विमल पवन-सम निस्संग सिंह-सम निर्भय चन्द्र जैसे सौम्य, सूर्य जैसे दिव्य अवनि जैसी सहिष्णुता अंबर जैसी विशालता वचन और वृत्ति में एकरूपता। जिनके दर्पण सम जीवन में... भीषण गर्मी हो या सर्दी पंखा, कूलर, घास, चटाई नहीं करते उपयोग कदापि चलना न पड़े कभी रात में इसीलिए सीमित आहार ले दाल, रोटी, भात गर्म पानी, छाँछ नमक, मीठा पूरा त्याग फल, मेवा न कोई साग। निर्जल किये नौ उपवास रहे नित्य स्वातम के पास पाटे पर ही शाम से हो जाता सवेरा दिन में सोते नहीं रात में भी अल्प निद्रा, शेष काल ज्ञान ध्यान में रत अनुकंपा अनुशासन की मूरत मानो मुक्ति का वायुवेग-सा रथ विलोम शब्दों के विशेषज्ञ दाक्षिणात्य होकर भी उत्तरापथ के हिंदी भाषियों से कहीं अधिक निष्णात, शब्दार्थ में हासिल है महारत वे स्वयं हैं विद्या के सागर और उनका शब्द-शब्द विद्या का सागर!! दीक्षित शिष्य समुदाय है भारी तीन सौ साधु साध्वी पिच्छीधारी कई दशक ऐलक-क्षुल्लक आठ सौ ब्रह्मचारी, ब्रह्मचारिणी अणुव्रती हजारों व्यसन-त्यागी अनेकों साहित्य के क्षेत्र में गुरूदेव ने वही लिखा जो लखा वही कहा जो रस चखा; क्योंकि पहले अनुभव की आँख से देखते हैं। फिर वे जुबाँ से यथार्थ बोलते हैं।
  13. स्वातम को निरखते लखते गुरूवर आये लखनादौन विहार करके सर्दी का समय था वैय्यावृत्ति करने शिष्यगण खड़े थे शीत के कारण शरीर में काँटे उठ रहे थे, विराग भाव से बोले गुरुदेव चाहे कितना देह को खिलाओ-पिलाओ इसकी सुरक्षा करो, फूल-सा रखो फिर भी यह नहीं देता फूल देता है शूल ही शूल फूल भी इसके संपर्क में आ मुरझा ही जाते हैं आखिर इसकी क्यों सेवा करते हैं? सुनते ही भेदज्ञान की वार्ता शिष्यों का शीश गुरुपद में झुक गया। एक शाम चलते-चलते आचार्य श्री पधारे गैरतगंज ‘विद्यासागर' नाम के वाहनों की देख कतार एक अजैन भाई रह गया दंग पूछने लगा लोगों से कितने बड़े सेठ हैं ये इतनी सारी मोटर, कार और क्या-क्या है इनके पास? एक भक्त ने इशारा किया गुरु की ओर... देख निर्वसन श्रमण, हो गया विभोर समझ गया वह श्रद्धा से भक्त लिख देते गुरू का नाम वाहन पर और गुरू संयम वाहन ले जा रहे मोक्षनगर...।
  14. बहती-बहती ज्ञानधारा कभी देखती नहीं पीछे मुड़कर, किंतु शेष रह जाती कुछ स्मृतियाँ उसके मानस पटल पर… एक आराधिका कर रही पद विहार अनायास चलते-चलते हो गई बीमार, संघस्थ सभी पहुँच गये गंतव्य तक रह गई एकाकी वह! गंतव्य था बहुत... दू...र... आराधिका थी मजबूर दिन ढल रहा था अंधेरा घिर रहा था साथ ही रुक गईं चार बहने संग में चल रहे दो श्रावक रूक गये वे कुछ दूरी पर जहाँ थी सड़क। प्रतिक्रमण संपन्न कर देव, गुरु-वंदन कर ज्यों ही सामायिक को हुई तत्पर चुपके से कहा किसी ने मन में “यह स्थान अनुकूल नहीं है किंतु अब कहीं जा नहीं सकते; क्योंकि रात घिर चुकी है। सोचकर यह सिद्धशिला पर विराजमान अनंत सिद्धों को वंदन कर त्रियोग से गुरु को नमन कर समर्पण भाव से सर्वस्व अर्पण कर स्मरण कर सबका, प्रत्येक दिशा में एक सौ आठ बार महामंत्र का भक्ति से जाप कर मंत्र से मजबूत दीवार बना की गुरु से प्रार्थना हे नवजीवन दाता! दीक्षा-प्रदाता इस सुनसान वन में मेरे शील की रक्षा करना यहाँ कोई नहीं मेरा सहायक आप मेरे हृदय में विराजमान रहना उपासिका ने मन-वचन-कायिक भावों से की छह घड़ी सामायिक, उस दिन था शनिवार अमावस्या का घना अंधकार ज्यों ही सामायिक के उपरांत पैरों को किया लंबायमान... त्यों ही कई लोगों के आने का हुआ आभास अचानक बिजली चमकी... प्रकाश में कई मानवाकृति झलकीं... लाल वस्त्र, मोटा-सा तन सबका एक-सा बदन अपने पैरों पर मानव छाया देख सिकुड़ लिए झट पैर। सभी ने देखा यह दृश्य... तभी कर्णपटल को चीरते से गूंजे शब्द मारो... मारो.... मारो... सुनते ही तत्काल उपासिका ने करके मन में सर्वस्व समर्पण कर जोड़ किया गुरु से निवेदन ग्रहण करती हूँ उत्तमार्थ सल्लेखना अब चाहे छिन्न-भिन्न हो जाये तन विकल्प नहीं मुझे किञ्चित् मैं हूँ मात्र चेतना, चारों बहनों ने डरकर पकड़ लिया साधिका को कसकर बचाओ... बचाओ... बचाओ... यूँ जब पुकारा... तभी आकाश से हुई मेघ गर्जना साथ ही विद्युत का हुआ उजाला देख उपासिका को गुरु-भक्ति में लीन सभी अचानक हो गये विलीन... आते वक्त आहट नहीं आई जाते वक्त पदचाप नहीं सुनी गुरु-कृपा का ही है यह जीवंत चमत्कार बार-बार कर रहे प्रयास करने को शस्त्र प्रहार, किंतु गुरु मंत्र के घेरे में बनी थी जो सशक्त दीवार! आश्चर्य यही रहा कि कर न सका उसमें शस्त्र प्रवेश वज्र से भी वह अधिक मजबूत थी; क्योंकि गुरु-कृपा की विशेष ऊर्जा थी तेरह मिनट की घटना थी यह ज्ञानधारा को कुछ पल विस्मित कर गई आखिर कौन थे वह? यह बात समझ नहीं आई, किंतु इस घटना में हुआ जो चमत्कार इसमें गुरु का ही था पूर्ण आशीर्वाद। संकटों की बरसात में भी सम्यक् चिंतन की धारा बहती रहती... स्वयं के प्रति कठोर औरों के प्रति मुलायम ऐसी गुरु की है जीवनशैली समझ में आया है यह! खड़ी रख नहीं सकते खाली बोरी को झुका सकते नहीं भरी बोरी को इसीलिए इतने भी मत होना दीन कि अपने पैरों पर खड़े न हो सकें, इतना भी मत करना मान कि गुरु के चरणों में झुक न सकें, फसल पाने जमीं चाहिए नरम गुरू-कृपा पाने व्यवहार चाहिए विनम्र जिसका हृदय है निष्कपट उसके निश्चित मिट जाते संकट। सार्थक हो रही पंक्तियाँ यह इस घटना से एक गुरु-भक्त पथिक शिखरजी वंदना को जा रहा था रेल से... पानी बरस रहा था जोर से... शांत मन से करने लगा गुरु-नाम का जाप निर्विघ्न रास्ता हो पार, तभी रेल में मच गई हलचल, जिस लंबे बाँध पर चल रही रेल टूट रहा वह पुल सभी अपने-अपने बचाव का सोच रहे साधन, किंतु भक्त, मन में आस्था ले कर रहा आराधन। निश्चिंत था उसका मन; क्योंकि गुरु-भक्ति में डूबा था चेतन देखते ही देखते गाड़ी पहुँच गई उस पार इधर पुल गिरने की आई आवाज़ सबके बच गये प्राण यह सब प्रभाव था गुरु नाम का! जो उपयोग रूपी गाड़ी को बचा लेते हैं विकार की खाई में गिरने से, भक्ति से भरे भक्त रूपी वाहन को बचा लेते हैं संसार-समंदर में गिरने से, तो फिर जड़ वाहन को गुरु का नाम बचा ले यदि बहती सरिता से इसमें अचरज ही क्या? कर्तव्य करते हुए जो कर्तृत्व नहीं रखते बाहर में रहकर भी अंतर में रमते; क्योंकि देह का राग प्रारंभ में लगता लुभावना लेकिन अंत है उसका डरावना.. इसीलिए देह राग से उपरत निराले संत हैं ये विरत! बात उन दिनों की है गुरूवर जब पेन्ड्रा में थे असाता ने दिखाया अपना रूप, किंतु निर्मोही साधक जानते थे। निजातम स्वरूप, लाल-लाल दाने उभर आये पैर पर वेदना थी भयंकर, चाकू से घाव को कुरेदने पर डाला जाये उसमें नमक पीड़ा होती जितनी या घाव में चुभाने पर सुई पीड़ा होती जितनी उससे भी कई गुना अधिक वेदना हवा के स्पर्श मात्र से होती... किंतु कभी आह नहीं भरी मुख से किसी से कुछ कहा नहीं वचन से, ज्ञात हुआ अनेकों वैद्य चिकित्सकों से रोग है यह भयंकर अग्निमाता कहते हिंदी में हरपिस कहते अंग्रेजी में देख तन की पीड़ा करुणा को भी आ गई करुणा, किंतु दारुणिक देह-वेदना में भी सत् की स्वात्म संवेदना में किञ्चित् भी कमी नहीं आई आत्म-आराधना में सम्यक् संयम की साधना में कहीं से अरुचि नहीं आई। रात-भर करवट बदलते रहे.. किंतु थे पूर्ण सजग हर बार परिमार्जन करते थे एक तो भयानक असाता का संकट दूसरी ओर चौमासा का समय था निकट, जो चल नहीं पा रहे पचास कदम वो कैसे चल पायेंगे पैंतीस मील, किंतु अमरकंटक की प्रकृति पुकार रही थी प्रकृति पुरुष को... हो गये परिचित जो अमर तत्त्व से फिर भला क्यों डरे वे क्षणभंगुर असाता के कंटक से? बुलाकर समीप शिष्य गणों को दिया आदेश कि- जो भी साधु हैं बीमार कर लें कच्चे रास्ते से शीघ्र विहार, ज्यों ही चले आचार्य भगवंत जोरों से हुआ जल वर्षण अनिल-सलिल का योग बढ़ा देता है यह रोग। एक तरफ मौसम की प्रतिकूलता दूसरी असाता से तीव्र वेदना, भक्त-नयन से बहने लगा झर-झर नीर प्रकृति के अंत से भी फूट रही पीर... पार कर पैंतीस मील जलवृष्टि के साथ ही आ पहुँचे गंतव्य तक। सैकड़ों बिच्छू एक साथ काटने पर होती है जो वेदना तन पर पीड़ा है ऐसी भयंकर... किंतु अपूर्व चमक है चेहरे पर देख संत की अस्वस्थ दशा धरा का कण-कण रो पड़ा... आचार्य श्री पहुंचे सीधे मंच पर कहा संचालक ने बहुत मुश्किल से आये गुरु यहाँ तक बोले गुरु महाराज “चल नहीं रहा था मैं चला रहे थे गुरू मुझे, ये पैर क्या चढ़ते इरादों ने चढ़ाया पहाड़ मुझे।” जलते-जलते अगरबत्ती छोटी होती जाती है, परंतु अंत तक सुगंध नहीं घटती है कष्टों की भरमार में भी संत की अनुभूति गहराती गयी आखिर असाता भी हरती गयी... और कुछ ही दिनों में गुरूदेव का तन स्वस्थ हो गया भक्तों का मन प्रशस्त हो गया।
  15. कटनी की अस्वस्थ एक बच्ची की कुंडली देख दिल्ली के ज्योतिष ने बताया इसकी आयु ज्यादा नहीं अंतिम समय है आया, एक दिन माँ उसे ले गई श्री गुरूवर की शरण, शास्त्र की चौकी पर बँधी एक राखी देखते ही माँ के मन में आस एक जागी, खोलकर झट गुरु आशीष ले बाँध दी बेटी के गले में... पचास वर्ष की पुत्री उसकी जीवित है आज भी, ऐसे अलौकिक चमत्कार को भक्त आत्मा भूल सकती है कभी? विदिशा के जैन कुल का चिराग बीमारी थी उसे जान लेवा जिसका कोई नहीं दुनिया में इलाज खड़ा भी रह नहीं पाता था वह गुरू-दर्शन को लाये उसे जब करूणा उँडेलकर सस्नेह बोले गुरूवर ‘‘नित्य देव-दर्शन करना रात्रि भोजन कभी नहीं करना,” श्रद्धा से किया संकल्प छोटे से नियम से कुछ ही दिनों में हो गया कायाकल्प, बालक बिल्कुल ठीक हो गया सारा परिवार गुरु-भक्ति में खो गया। कैंसर से पीड़ित था नरसिंहपुर का एक श्रावक श्रद्धा से अभिभूत हो आया गुरुवर के निकट गुरू ने उसे ‘रात्रि जल’ का दिया त्याग उसने हाथ जोड़कर सविनय कहा- महाराज! “यदि ठीक हो गया मैं तो आजीवन ब्रह्मचर्य से रहूँगा।'' श्रद्धा से ग्रहीत व्रतों का कुछ ही दिनों में हुआ ऐसा असर भयानक रोग भी हो गया छूमंतर। आठ माह से मूर्छित थी बालिका... उसे लेकर आये बीना बारहा देखकर उसे करूणा से आचार्य श्री के हाथ उठे स्नेह से, पाते ही आशीर्वाद टूट गई तत्काल मूर्च्छा बोल पड़ी ‘नमोस्तु महाराज!’ दो नवम्बर का दिन था वह सारा परिवार झूमने लगा खुशी से गुरु-कृपा का प्रत्यक्ष चमत्कार है यह! जब-जब हुआ भक्त पर उपसर्ग सँभाला है गुरु ने, जब- जब भटका है भक्त पथ दर्शाया है गुरू ने, प्रभु के तो भक्त ही बन पाते शिष्य नहीं, किंतु गुरू के भक्त भी बन पाते। और शिष्य भी। तभी तो गुरु की महिमा गाते वेद-पुराण भी, बिना गुरु के अधोगामी हो गया बेचारा रावण भी, इसीलिए तो समूची प्रकृति गुण गाती है गुरू की...
  16. नगर था पनागर संघस्थ मुनि को खाँसी थी भयंकर तीन रात से सोये नहीं थे, गुरूवर धी...रे से उनके कक्ष में पहुँचे अपने ही हाथों से लगाई बाईस मिनट तक अमृतधारा... कहा मुझे देखकर करो अब कायोत्सर्ग तब आँखों से बह गई अश्रुधारा... फेफड़े ठीक हो गये गुरु की वरदानी कृपा छाँव से शिष्य मुनि निरोग हो गये। कुछ दिन के उपरांत एक कृषक आया गुरू के पास मेरी सबसे प्रिय गाय कई दिनों से बीमार आँखों से बहते उसके आँसू निरंतर... चिकित्सक ने बताया है कैंसर, एक बार आपका आशीष जो मिल जायेगा विश्वास है उसका रोग दूर हो जायेगा। इसी भावना से साथ लाया हूँ गैय्या एक नज़र कर दो इस पर बड़ी कृपा होगी मुझ पर। ज्यों ही करुणासागर ने डाली नज़र... गाय ने देखा सिर उठाकर बोली “माँ!'' मूक भाषा को समझ गये महात्मा अनुकंपा से भरकर दिया आशीर्वाद... किसान नित्य गाय पर हाथ फेरता गुरू महाराज का स्मरण करता देखते ही देखते अतिशय हो गया, सप्ताह भर में ही गाय का रोग दूर हो गया! किसान खुशी से नाचने लगा गुरू को भगवान मान पूजने लगा भक्त लोग गुरु की महिमा भले ही गायें, किंतु गुरु तो ‘निज लोक’ में समाये। ‘लुक’ धातु अवलोकने स्वयं को ही देखने में स्वयं को ही जानने में तल्लीन रहते जो माननीय महात्मा निज मनन में डूबे गहन चिंतन में, “कि एक द्रव्य दूजे द्रव्य का कुछ करता नहीं, यही एक द्रव्य का अन्य द्रव्य पर अनंत उपकार है सही।" यही तत्त्व दर्शन है जिनका सारभूत प्रवचन है इनका कि आत्मा की परख है यदि दर्शन तो आत्मा में विश्राम है अध्यात्म, दर्शन में मार्ग है अध्यात्म में मंज़िल है ठहराव है, समाधान है शांति है, विश्रांति है ऐसी ही गुरु की जीवन परिणति है। श्रद्धा से करने पर इनकी स्मृति हर एक बाधा टलती एक भक्तात्मा की अचानक रूकने लगी श्वास इचलकरंजी में था उन दिनों वास, तीस मिनट तक बिगड़ती रही स्थिति... कई वैद्य चिकित्सक आये पर किसी की काम न कर पायी मति, नगरवासियों ने शुरू किया जाप आसार न थे बचने के कोई हंसा उड़ने ही वाला है आज सबने तोड़ दी आस। पर भक्त मन में था पूर्ण विश्वास गुरू के चित्र की ओर किया इशारा... मिल जाये जो आशीष इनका तो जीवन छीन लेंगे मरण से बस थोड़ी-सी जगह देना चरण में.. फिर क्या था आराध्य गुरु तक पहुँचाया संदेश... पवित्र स्नेह से पूरित दोनों कर उठाकर दिया आशीष। ज्यों ही गुरु ने दिया आशीर्वाद त्यों ही यहाँ भक्त की सहज हो गई श्वास, बोले चिकित्सक ऐसा कौन-सा किया उपचार? कैसे बताये उन्हें चैतन्य चमत्कारी गुरु का है यह उपकार! जिन्हें शब्दों में बाँध नहीं सकते अमाप हैं इन्हें माप नहीं सकते, यह सूत्र भी दिया गुरू ने “आत्मा विश्वास ही श्वास है” हृदय से लगा उसे बोला भक्त ‘गुरु पर विश्वास ही श्वास है!!' बाहर में दुनिया कुछ नहीं कर पाती तब गुरु का संबल काम करता है जब स्वयं की देह भी साथ नहीं देती तब आत्मबल काम करता है, हुआ यह अनुभूत कि “मेरा जीवन गुरूवर तेरे चरणों की छाया है जीवित ही हूँ तुमसे वरना निर्जीव री काया है।”
  17. तत्त्वों, पदार्थ-निचयों, जड़ वस्तुओं में, है जीव ही परम श्रेष्ठ यहाँ सबों में। भाई अनंत गुण-धाम नितांत प्यारा, ऐसा सदा समझ, ले उसका सहारा ॥१७७॥ आत्मा वही त्रिविध है बहिरंतरात्मा, आदेय है परम आतम है महात्मा। दो भेद हैं परम आतम के सुजानो, हैं वीतराग ‘अरहंत सुसिद्ध' मानो ॥१७८॥ मैं हूँ शरीरमय ही बहिरात्म गाता, जो कर्म-मुक्त परमातम है कहाता। चैतन्यधाम मुझसे, तन है निराला, यों अंतरात्म कहता, समदृष्टिवाला ॥१७९॥ जो जानते जगत को बन निर्विकारी, सर्वज्ञ देव अरहंत शरीरधारी। वे सिद्ध चेतन-निकेतन में बसे हैं, सारे अनंत सुख से सहसा लसे हैं ॥१८०॥ वाक्काय से मनस से ऋषि संत सारे, वे हेय जान बहिरात्मपना विसारे। हाँ! अंतरात्मपन को रुचि से सुधारे, प्रत्येक काल परमातम को निहारे ॥१८१॥ संसार चंक्रमण ना कुलयोनियाँ हैं, ना रोग, शोक, गति जाति-विजातियाँ हैं। ना मार्गणा न गुणथानन की दशायें, शुद्धात्म में जनन मृत्यु जरा न पायें ॥१८२॥ संस्थान, संहनन, ना कुछ ना कलाई, ना वर्ण, स्पर्श, रस, गंध विकार भाई। ना तीन वेद, नहि भेद, अभेद भाता, शुद्धात्म में कुछ विशेष नहीं दिखाता ॥१८३॥ पर्याय ये विकृतियाँ व्यवहार से हैं, जो भी यहाँ दिख रहे जग में तुझे हैं। पै सिद्ध के सदृश हैं जग जीव सारे, तू देख शुद्धनय से मद को हटा रे ॥१८४॥ आत्मा सचेतन अरूप अगंध प्यारा, अव्यक्त है अरस और अशब्द न्यारा। आता नहीं पकड़ में अनुमान द्वारा, संस्थान से विकल है सुख का पिटारा ॥१८५॥ आत्मा मदीय गतदोष अयोग योगी, निश्चित है निडर है निखिलोपयोगी। निर्मोह एक, नित, है सब संग त्यागी, है देह से रहित, निर्मम वीतरागी ॥१८६॥ संतोष-कोष, गतरोष अदोष, ज्ञानी, नि:शल्य शाश्वत दिगंबर है अमानी। नीराग निर्मद नितांत प्रशांत नामी, आत्मा मदीय, नय निश्चय से अकामी ॥१८७॥ ना अप्रमत्त मम आतम ना प्रमत्त, है शुद्ध, शुद्धनय से मद-मान मुक्त। ज्ञाता वही सकल-ज्ञायक यों बताते, वे साधुशुद्ध नय आश्रय ले सुहाते ॥१८८॥ हूँ ज्ञानवान, मन ना, तन ना, न वाणी, होऊँ नहीं करण भी उनका न मानी। कर्ता न कारक न हूँ अनुमोद दाता, धाता स्वकीय गुण का, पर से न नाता ॥१८९॥ स्वामी! जिसे स्वपर बोध भला मिला है, सौभाग्य से दृग-सरोज खुला खिला है। वो क्या कदापि पर को अपना कहेगा? ज्ञानी न मूढ़ सम दोष कभी करेगा ॥१९०॥ मैं एक शुद्धनय से दृग बोध स्वामी, हूँ शुद्ध-बुद्ध अविरुद्ध अबद्ध नामी। निर्मोह भाव करता निज लीन होऊँ, शुद्धोपयोग-जल से विधि पंक धोऊँ ॥१९१॥ (दोहा) ज्योतिर्मुख को नित नमूँ, छूटे भव-भव जेल। सत्ता मुझको वह दिखे, ज्योति-ज्योति का मेल ॥
  18. बहते-बहते बोधधारा ने देखी अभूतपूर्व घटना विहार करते एक समर्पिता ने देख सूरज को ढलता रुक गई वहीं पर, एक कक्ष था वह भी खंडहर दूर-दूर तक वीरान… तभी श्रद्धा-चक्षु खोलकर हृदय देवता को किया वंदन संयम की रक्षा करना गुरु भगवन्! ग्यारह बजे का था समय शारीरिक बाधा से आना पड़ा बाहर, देख दृश्य पहले तो वह चौंक गई साथ में दूसरी समर्पिता भी आश्चर्य में पड़ गई। जो दिख रहा है यह सत्य है या सपना... धरती से पाँच फीट ऊपर श्वेत वस्त्रधारी कौन लगा रहा चक्कर? देखते रहे पाँच मिनट तक दस चक्कर पूरे कक्ष के लगा लिए तब तक, खुली आँखों से देखा यह... वापस अंदर आ गई दोनों वह | शेष साधिकाओं को जगाया एक-एक कर सबने देखी वह माया... हो गया पूरा विश्वास कोई रक्षक है हमारे आस-पास, सवेरे चार बजे देखा उठकर अंतिम था वह चक्कर देखते ही देखते अदृश्य हो गया सबके लिए एक प्रश्न छोड़ दिया... आखिर वह कौन था? जो बिल्कुल मौन था! ज्ञानधारा ने कहा कोई और नहीं गुरु-शक्ति का चमत्कार था, आशीर्वाद से निःसृत ऊर्जायित किरणों का आकार था।
  19. एक दिन वैय्यावृत्ति करते-करते गिर गई घी की एक बूँद मक्खी पर वह उड़ नहीं पायी जब तो उस सज्जन से बोले गुरूवर एक बूंद गिरने से मक्खी उड़ नहीं पायी तो जिसके पास लगा है परिग्रह का ढेर वह कैसे उड़ पायेगा सिद्धालय तक, कैसे पहुँच पायेगा लोक के अग्रभाग तक? सुनकर गुरु की बात सज्जन पर हुआ ऐसा असर दूसरे ही दिन ले ली व्रत-प्रतिमा यही तो है गुरु-वचनों की महिमा! जीवन में सात्विकता व्यवहार में आगमनिष्ठता आतम में आध्यात्मिकता हो जिस संत में जगत कहता है उन्हें भगवंत पाना चाहता है उनका पंथ, जैन हो या अजैन सभी करते हैं उन्हें नमन। सुरखी विहार हुआ जब सागर से जनमेदनी खड़ी थी कतार से... जन-जन में थी प्यास एक झलक पाने संत की वर्षों से जिसके मन में थी साध, वह महिला जैन नहीं, अजैन थी सोचा था पखारूंगी चरण संत के अपने ही हाथों से लगा लूंगी गंधोदक को श्रद्धा से माथ पे, किंतु भक्तों का भारी समूह देख रह गयी ठिठकी-सी चरण संत के आगे बढ़ते देख कलशी दूर से ही उछाल दी धनुषाकार बनकर गिरा जल सीधे चरणों का हो गया अभिसिंचन, बना जो सिद्धशिला का आकार मानो पा ली उसने सिद्धों की राह। देखा गुरु ने सिर उठाकर नत मस्तक थी वह कर जोड़कर... मिला विशेष आशीर्वाद धन्य हुआ जीवन आज “एक बुढ़िया की लुटिया गज़ब कर गई यों कहते हुए बढ़ गये आगे गुरूराज” यहाँ बहते हुए झरने कल-कल करती सरिताएँ पेड़-पौधे, पल्लव-लतिकाएँ पर्वत गिरि और गुफाएँ महिमा गाने लगीं संत की ताल से ताल मिलाकर हवा के संग, स्तुति करने लगीं भावी अरहंत की... ‘‘प्रेम जब हो गया अनंत तब रोम-रोम हो जाता संत।” प्रकृति द्वारा गुरू-स्तुति का श्रवण कर कह गया एक श्रावक भी वाहन के बिना चल सकता है जीवन पर श्वसन क्रिया के बिना नहीं, आभूषण के बिना चल सकता है जीवन पर वसन के बिना नहीं, मीत के बिना चल सकता है जीवन पर गुरु के बिना नहीं। गुरु की शरण में तन के ही रोग नहीं चेतन के रोग भी होते क्षय, ऐसे संत महात्मा की सदा हो जय। ज्ञानधारा की उठती तरंगों से उभरी एक छवि… जबलपुर के बालक ‘कीर्तन' की पन्द्रह वर्ष का हुआ कि पैर-पीठ में सफेद दाग हो गया, आचार्य श्री को करके नमन सिसक-सिसक कर रो पड़ा... गुरू की छलक आई करूणा क्यों बहाते अश्रुधारा? रोता हुआ बालक बोला मेरी तीव्र भावना है आहार देने की, किंतु माँ ने कर दी मनाही हो गया है सफेद दाग गुरुवर! मुझे दीजिये आशीर्वाद जो भी देंगे आप आज्ञा अक्षरशः करूँगा पालन मुझे केवल आप पर है विश्वास, इसीलिए दुनिया की शरण छोड़ चरणों में आया हूँ लेकर आस। दयासिंधु ने दया बरसाई अध्ययन पूर्ण होने तक ब्रह्मचर्य व्रत की प्रतिज्ञा दिलाई, साथ ही इक्कीस दिन तक नमक, दूध, चावल आदि सफेद वस्तु का परहेज, पूर्ण विश्वास के साथ घर आकर करता रहा गुरु मंत्र का जाप... एक दिन कर रहा था बेटा स्नान अचानक माँ का गया ध्यान उन्नीसवाँ दिन था आज दाग पूरा हो गया साफ, इक्कीसवें दिन दे दिया आहार यह था गुरु-करुणा का चमत्कार!
  20. प्रत्येक समस्या का समाधान सहजता से करते गुरु महान, एक बार जंगल में लगा चौका सबके लिए नहीं था पाटा करते-करते वैय्यावृत्ति श्रावक ने पूछा एक क्षुल्लकजी से? क्षुल्लकजी ने पूछा आचार्य श्री से यदि पाटा नहीं है तो क्या करें गुरूवर? आचार्य श्री ने उठाई मिट्टी वापस रख दी धरती पर, श्रावक था समझदार मिट्टी के आसन पर कराया आहार। चातुर्मास हेतु विहार करके आ रहे थे मुक्तागिरि की ओर लंबा पथ ऊबड़-खाबड़ जमीं... चलते-चलते थक गये शिष्य सभी थके चेहरे देख कहा गुरूदेव ने आ जाना सब शाम को कुछ दूँगा सबको... सुनते ही गुरु के उदात्त वचन शिष्य हुए मन ही मन प्रसन्न, सोचने लगे कोई तेल बतायेंगे जिससे मिट जायेगी पूरी थकान चरणों में पहुँचे ज्यों ही शाम को अध्यात्म योगी ने सुनाई एक गाथा... ‘छिज्जदु वा भिज्जदु वा...' समझाने लगे सरल वचनों से जहाँ दर्द हो रहा है वह ‘मेरा' नहीं जो ‘मैं हूँ उसे दर्द होता नहीं, पाकर गुरु की वचन-औषधि दूर हुई थकान चेहरे खिल गये सबके छा गई मुस्कान।
  21. ऐसे संत की एक आराध्या... जिसके फेफड़ों में पानी भर गया दर्द बढ़ता जा रहा था कहा चिकित्सक ने निकालना आवश्यक है पानी अन्यथा बचाना मुश्किल है जिंदगानी। आराध्या ने किया अपने आराध्य का स्मरण हे मेरे प्रभु-सम गुरुवर! जब आप सुखा सकते संसार-समंदर तो क्या इतना-सा पानी नहीं सुखाओगे? यदि आप ही मेरी न सुनोगे तो जाऊँ किस द्वार पर? आवाज़ आयी भीतर से घबराओ मत कुछ भी होगा नहीं वह कुछ समझी नहीं बस गुरु नाम का करती रही जाप... यों ही दिन बीते पाँच, अगले दिन सूची-प्रयोग से पानी निकालने का किया प्रयास... हर बार प्रयत्न रहा निरर्थक... अंत में सूची भर गयी रक्त से चिकित्सक बोला आश्चर्य से आखिर पानी सूखने की कौन-सी दवा खायी? पानी की बूंद भी नहीं फेफड़ों में शिष्या की आँखें श्रद्धा जल से भर आयीं... बोली- गुरू नाम की औषध खाई वहीं से झुका सिर, किया प्रणाम हे मेरे अंतर्माण! आप कितने अपने हो दूर से भी हृदय वीणा के स्वर सुन लेते हो
  22. सधी भाषा विद्वत् मन को करती है आकर्षित, निश्छल बालक-सी मुस्कान आबाल वृद्ध को करती है हर्षित। एक दिवस विराजमान थे तख्त पर आकर एक सज्जन ने कहा- गुरूवर! थोड़ा-सा दे दीजिए समय... आशु समाधानी बोले यतिवर घड़ी रखता ही नहीं मैं कैसे दूँ तुम्हें समय? आत्मविहारी संत कर रहे विहार सदा की भाँति ले कमण्डल साथ, भक्त ने कहा गुरूदेव! कमण्डल दे दीजिए एक बार... मुस्कराते हुए कहा गुरू ने तुमने दिया ही नहीं जब मुझे तो फिर कैसे दूँ कमण्डल तुम्हें? गुरु के हाथ से मिल जाये एक माला इसी भावना से एक भक्त बोला महाराज! यह आचार्य शांतिसागरजी दे गये थे मुझे एक माला जानकर उसके मन की कामना कहा तत्काल तुम्हें तो माला ही दे गये मुझे तो मालामाल कर गये! वार्तालाप करते-करते भी आचार्यश्री पर सम्मुख नहीं होते निज सत्ता से विमुख नहीं होते, जल में कमल की भाँति अलिप्त हैं पर से जड़ षट्स से परे परम रस ही चखते, विकल्पों में रस नहीं जिन्हें फिर भला रस का विकल्प क्यों हो उन्हें? जब श्रावक के गृह हुआ आहार सब्ज़ी थी कड़वी ज़हर दाता देते गये गुरू लेते रहे, सहज मुखाकृति लिए श्रावक कुछ समझ नहीं पाये जब चखा भोजन तो रोने लगे… कमजोर शत्रु को जीत लें कोई दल से बलजोर शत्रु को जीत लें कोई छल से, समान वैरी को जीत लें कोई बल से, पर विषय कषायों के शत्रु को जीत सकते ऐसे ही विजितमना!! जिनका आतम निर्विकल्प है तभी तो शरणागत के दूर होते विकल्प हैं, सुख पाते अनल्प हैं साक्षी है इस बात की घटना यह गुरू-आज्ञा से शिष्या ने किया कोटा में चौमासा चौबीस समवसरण की हुई रचना... वायुयान द्वारा बरसाये सुमन कार्य सारा हो गया सानंद संपन्न प्रातः जिन्होंने की थी शांतिधारा उन्होंने वायुयान में बैठ शहर घूमने का मन में विचारा, ज्यों ही भरी ऊँची उड़ान अचानक धड़ाम से गिरा विमान पुर्जे सारे हुए अलग-अलग!! जैसे ही शिष्या ने यह सुना गुरु से की मन से प्रार्थना जिस विधान के लिए आशीर्वाद दिया आपने कुछ भी अनर्थ हो नहीं सकता इसमें, पूर्ण भरोसा है आप पर मेरी श्रद्धा की लाज रखना गुरुवर! अचानक गुरु की मूरत सामने आई देकर आशीष, छवि अदृश्य हो गई दौड़ते हुए आकर बोले कुछ लोग बहुत बड़ा आश्चर्य हो गया! दुर्घटना होते-होते चमत्कार हो गया...। सात लोग बड़ी ऊँचाई से गिरे एक साथ पर उन्हें खरोंच तक नहीं आई ! यदि कुछ पहले गिरता तो चंबल में डूब जाता कुछ बाद में गिरता तो नगर में हादसा हो जाता गिरने का स्थान था सुनसान जहाँ न कोई पशु न इंसान। प्रातः समाचार-पत्रों के मुखपृष्ठ पर छपा कोटा में हुआ दैवीय चमत्कार... यह सब था गुरु का ही आध्यात्मिक प्रभाव जो सँभाल लेते हैं गिरते को बचा लेते हैं डूबते को, बहती-बहती ज्ञानधारा जनमानस को सुनाती जा रही सत्य घटना… जब कोटा में भयंकर पानी बरसा तब नदी-नाले भर आये बाँध टूट गये कुछ मकान ढह गये, मवेशी बह गये नसिया की तरफ बढ़ रहा जल का प्रवाह... हो गई घोषणा डूबने वाली है नसिया... तभी गुरु की तस्वीर के आगे भक्त ने जलाया निष्ठा का एक दीया चित्त की गहराई से की स्तुति, झट ही बदल गई जल की गति! प्रसारित हुई सूचना कि पानी ने अपना रूख अचानक बदल दिया है नगर का भयानक संकट टल गया है, भक्त ने झुक कर किया वहीं से नमन ‘जयवंत रहें गुरुवर जब तक है यह धरा गगन’ जिनसे दिव्य ऊर्जा पाकर बदल जाती प्राणी की मति, तो फिर आश्चर्य ही क्या जो बदल गई पानी की गति! जिनकी चेतना का चिंतन सदा सकारात्मक मन का मनन सदा विधेयात्मक तन का आचरण सदा संदेशात्मक हो, ऐसे संत-चरण में नमन करना चाहते हैं जन- जन, आचरण का अनुसरण करना चाहते हैं शिष्यगण। एक दिन आज्ञा दी गुरुवर ने शिष्य को प्रवचन करने की... बाहर झाँककर कहा शिष्य ने भीड़ भारी है बाहर लोगों की आप ही का प्रवचन हो आचार्यश्री! स्नेह से कहा शिष्य से लोगों की भीड़ है ऐसा न कहो श्रद्धालुओं का समूह है अब प्रवचन करने जाओ! अन्तेवासिन् को समझाते वे याद नहीं रखना है तुम्हें कि घर कब छोड़ा है, याद यह रखना है कि घर क्यों छोड़ा है; क्योंकि दुग्ध में गिरती है यदि धूल तो बेकार हो जाता है दुग्ध, दुग्ध में मिलती है यदि मिश्री तो मिष्ट हो जाता है दुग्ध, दुग्ध में मिलती है यदि खीर तो स्वयं उस रूप हो जाता है दुग्ध, गिरने और मिलने में वह सुख कहाँ? जो एक रूप होने में है। निज रूप होने में है। स्वरूप का लक्ष्य रखना है उसी में रमना है, यों नित नवीन चिंतन में स्वयं डूबते शिष्यगणों को डुबा देते। बाहरी जगत में रहकर प्राणीमात्र के हित का करते चिंतन, नयन मूंदने पर अंतर्जगत् में समाकर करते निजातम का चिंतन।
  23. पाते नहीं अविनयी सुख सम्पदाएँ, पा ज्ञान गौरव सुखी विनयी सदा ये। जानो यही अविनयी-विनयी समीक्षा, ज्ञानी बनो सहज पाकर उच्च शिक्षा ॥१७०॥ मिथ्याभिमान करना, मनक्रोध लाना, पाना प्रमाद, तन में कुछ रोग आना। आलस्यकानुभव, ये जब पंच होते, शिक्षा मिले न, हम बालक सर्व रोते ॥१७१॥ आलस्य हास्य मनरंजन त्याग देना, होना सुशील, मन-इन्द्रिय जीत लेना। क्रोधी कभी न बनना, बनना न दोषी, ना झूलना विषय में न असत्य-पोषी ॥१७२॥ भाई कदापि बनना न रहस्य भेदी, ऐसा सदैव कहते गुरु आत्मवेदी। आ जाय आठ गुण जीवन में किसी के, विद्या निवास करती मुख में उसी के ॥१७३॥ सिद्धांत के मनन से मन हाथ आता, विज्ञान भानु उगता, तम को मिटाता। जो धर्म निष्ठ बनता पर को बनाता, सद्बोध रूप सर में डुबकी लगाता ॥१७४॥ संसार को प्रिय लगे प्रिय बोल बोलो, सद-ध्यान से तप तपे दृग पूर्ण खोलो। सिद्धांत को गुरुकुली बन के पढ़ोगे, सद्यः सभी श्रुत विशारद जो बनोगे ॥१७५॥ जाज्वल्यमान इक दीपक से अनेकों, हैं शीघ्र दीप जलते अयि मित्र देखो। आचार्य दीप सम हैं तम को मिटाते, आलोकधाम हम को सहसा बनाते ॥१७६॥
  24. जो करते इनकी भक्ति वे आध्यात्मिक शक्ति पाकर पा लेते मुक्ति की युक्ति, जो रखते हैं गुरु पर श्रद्धा वे सातिशय पुण्य वर्द्धन द्वारा अनुभवते निज शुद्धातमा। गुरूदेव की अंतर्मुखी दृष्टि न भाव बिगड़ने देती है न भव बढ़ने देती है भाग्यशाली है वह! जो स्वीकारता है गुरु का शिष्यत्व सौभाग्यशाली है वह जो पाता है गुरु का वरदहस्त। ज्ञानधारा की स्मृति ताजी हो आई आज केरल की सीमा पर बहुत दूर थी शिष्या एक किलोमीटर भी चल नहीं पा रही शरीर अस्वस्थ था गुरू ने दिया संकेत ‘आ जाओ! मध्यप्रदेश कैसे चलेंगे दो हज़ार किलोमीटर? आश्चर्य था सभी को, साथ ही डर कहकर यह आश्वस्त किया शिष्या ने सभी को संकेत दिया है जिनने साथ ही शक्ति भी भेजी है उनने, आगे बोली वह चिंता मत करो गुरु-महिमा का चिंतन करो। बात तो अचरज की ही थी पहले ही दिन बिना रुके उन्नीस किलोमीटर चली थी... कहने लगे दर्शकगण ऐसा रिश्ता कहीं न देखा गुरू-शिष्य का अनोखा दूर रहकर भी शिष्य पर करते कारुण्य-वृष्टि ऐसी है गुरु की दूरदृष्टि!
  25. कहते हैं गुरूवर ज्ञेयों की ओर दृष्टि जाने से तृष्णा होती है समस्या बढ़ती है, परंतु ज्ञायक की ओर दृष्टि जाने से तृप्ति होती है चेतना समाधान पाती है; क्योंकि ज्ञेयों से ज्ञान होता नहीं परिग्रह से प्रभुता पाता नहीं और विषयों से सुख मिलता नहीं, इसीलिए तो संत रहते सदा अंतर्मुखी पाकर इनकी कृपा-दृष्टि प्राणी हो जाते सुखी। प्रत्यक्ष प्रमाण हैं इसके ये दंपत्ति दस वर्ष उपरांत जन्मा था बेटा दस दिन का बच्चा था अति सुंदर, पर चिकित्सक ने कह दिया ले जाओ इसे घर जन्म से कमजोर, बचने की उम्मीद नहीं जाति से था पंजाबी, मित्र था उसका जैनी पूछा उसने- क्यों रो रहे हो मित्रवर? बेटे की स्थिति ज्ञात हुई तो बोला वह घबराओ मत बड़े दयालु हैं मेरे गुरुवर न तो ताबीज देते हैं न यंत्र पर्याप्त है उनका आशीर्वाद मात्र; इनके तप प्रभाव से पुण्य के द्वार खुल जाते हैं पाप कर्मों के भूत भाग जाते हैं, चलो मेरे साथ गुरु के पास विश्वास है मुझे अवश्य होगा चमत्कार!! दोनों आये गुरु की शरण श्रद्धा से किया प्रथम नमन गुरु की शांत मुद्रा को देखता रह गया... क्या कहने आया था वह कुछ और ही कह गया, रख दी मन की बात करता हूँ आज से सदा मद्य, मांस का त्याग करूणा से भरा मिला आशीर्वाद। तब विनम्रता से कहा मित्र अर्हत् ने गुरुवर इस पर बड़ा संकट है इकलौता बेटा बहुत अस्वस्थ है, मात्र आपके आशीर्वाद का सहारा है आशा लेकर शरण आपकी आया है। गुरु का आशीष के लिए उठा हाथ उससे निकली दिव्य रश्मियाँ... आगत भक्त को अनुभूत हुईं साक्षात् लगा उसे- दिव्य शक्ति आ गई उसके हाथ! ज्यों ही पहुँचा अपने घर... गुरू स्मरण कर, फेरा हाथ बेटे के तन पर स्पर्श दिव्य औषध का काम कर गया। जीवनदायिनी किरणें जो पाई कुल-दीपक की देह निरोग हो आई, सदा के लिए हो गया वह अहिंसक संत हैं ये परम प्रभावक।
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