तत्त्वों, पदार्थ-निचयों, जड़ वस्तुओं में, है जीव ही परम श्रेष्ठ यहाँ सबों में।
भाई अनंत गुण-धाम नितांत प्यारा, ऐसा सदा समझ, ले उसका सहारा ॥१७७॥
आत्मा वही त्रिविध है बहिरंतरात्मा, आदेय है परम आतम है महात्मा।
दो भेद हैं परम आतम के सुजानो, हैं वीतराग ‘अरहंत सुसिद्ध' मानो ॥१७८॥
मैं हूँ शरीरमय ही बहिरात्म गाता, जो कर्म-मुक्त परमातम है कहाता।
चैतन्यधाम मुझसे, तन है निराला, यों अंतरात्म कहता, समदृष्टिवाला ॥१७९॥
जो जानते जगत को बन निर्विकारी, सर्वज्ञ देव अरहंत शरीरधारी।
वे सिद्ध चेतन-निकेतन में बसे हैं, सारे अनंत सुख से सहसा लसे हैं ॥१८०॥
वाक्काय से मनस से ऋषि संत सारे, वे हेय जान बहिरात्मपना विसारे।
हाँ! अंतरात्मपन को रुचि से सुधारे, प्रत्येक काल परमातम को निहारे ॥१८१॥
संसार चंक्रमण ना कुलयोनियाँ हैं, ना रोग, शोक, गति जाति-विजातियाँ हैं।
ना मार्गणा न गुणथानन की दशायें, शुद्धात्म में जनन मृत्यु जरा न पायें ॥१८२॥
संस्थान, संहनन, ना कुछ ना कलाई, ना वर्ण, स्पर्श, रस, गंध विकार भाई।
ना तीन वेद, नहि भेद, अभेद भाता, शुद्धात्म में कुछ विशेष नहीं दिखाता ॥१८३॥
पर्याय ये विकृतियाँ व्यवहार से हैं, जो भी यहाँ दिख रहे जग में तुझे हैं।
पै सिद्ध के सदृश हैं जग जीव सारे, तू देख शुद्धनय से मद को हटा रे ॥१८४॥
आत्मा सचेतन अरूप अगंध प्यारा, अव्यक्त है अरस और अशब्द न्यारा।
आता नहीं पकड़ में अनुमान द्वारा, संस्थान से विकल है सुख का पिटारा ॥१८५॥
आत्मा मदीय गतदोष अयोग योगी, निश्चित है निडर है निखिलोपयोगी।
निर्मोह एक, नित, है सब संग त्यागी, है देह से रहित, निर्मम वीतरागी ॥१८६॥
संतोष-कोष, गतरोष अदोष, ज्ञानी, नि:शल्य शाश्वत दिगंबर है अमानी।
नीराग निर्मद नितांत प्रशांत नामी, आत्मा मदीय, नय निश्चय से अकामी ॥१८७॥
ना अप्रमत्त मम आतम ना प्रमत्त, है शुद्ध, शुद्धनय से मद-मान मुक्त।
ज्ञाता वही सकल-ज्ञायक यों बताते, वे साधुशुद्ध नय आश्रय ले सुहाते ॥१८८॥
हूँ ज्ञानवान, मन ना, तन ना, न वाणी, होऊँ नहीं करण भी उनका न मानी।
कर्ता न कारक न हूँ अनुमोद दाता, धाता स्वकीय गुण का, पर से न नाता ॥१८९॥
स्वामी! जिसे स्वपर बोध भला मिला है, सौभाग्य से दृग-सरोज खुला खिला है।
वो क्या कदापि पर को अपना कहेगा? ज्ञानी न मूढ़ सम दोष कभी करेगा ॥१९०॥
मैं एक शुद्धनय से दृग बोध स्वामी, हूँ शुद्ध-बुद्ध अविरुद्ध अबद्ध नामी।
निर्मोह भाव करता निज लीन होऊँ, शुद्धोपयोग-जल से विधि पंक धोऊँ ॥१९१॥
(दोहा)
ज्योतिर्मुख को नित नमूँ, छूटे भव-भव जेल।
सत्ता मुझको वह दिखे, ज्योति-ज्योति का मेल ॥