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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • ज्ञानधारा क्रमांक - 151

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    अनवरत बहना ही है प्रयोजन जिसका

    चराचर को जानना ही है कार्य जिसका

    स्वच्छ दर्पण की भाँति धारा में

    झलक आयी संत की अंतिम परिणति

    धन्य है यति की नियति,

    प्राप्त कर ली जिनने लक्ष्यभूत पंचमगति

    ज्ञानधारा ने कथानायक की

    शुद्ध स्वात्म ज्ञायक की

    जानकर भावी सिद्धावस्था

     

    अभिभूत होकर की प्रार्थना

    जितने भी जीवात्मा हैं जग में

    सभी दुख मुक्त हों

    यही है अंतर्भावना

    अनंत अव्याबाध सुख युक्त हों।

     

    जिस तरह,

    विद्याधर ने…

    समकित धर्म बीज का वपन कर

    पावन किया जीवन का प्रथम अध्याय,

    ज्ञान अंकुर को प्रगट कर

    पा लिया जीवन का द्वितीय अध्याय,

    चारित्र रूपी पौधे को पल्लवित कर

    सार्थक किया जीवन का

    तृतीय अध्याय, तपाराधना के सुमन खिलाकर

    महका दिया जीवन का चतुर्थ अध्याय,

    और आनंद के फल दोलायित कर

    सफल किया जीवन का पंचम अध्याय

    इसी तरह

    सभी का पूर्ण हो जीवन अध्याय।

     

    इधर...

    ज्ञानधारा और विद्याधारा

    एकमेक होती-सी गतिशीला हैं निरंतर

    संत चरण-स्पर्श से पुलकित है धरा इधर

    गुरू के अमरकीर्ति के गीत

    हवाएँ गा रहीं उधर,

    संयमित जीवन के वर्ष पचास

    बीतने जा रहे...

     

    पर सदलगा के संत अभी तक

    जन्मस्थली की ओर कदम न बढ़ा रहे

    पल-पल कर रही प्रतीक्षा

    वहाँ की धरती ।

    कब आयेगा दक्षिण का देवता

    फैल रही जिनकी जगत में कीर्ति

    रोती हुई वहाँ की धरा

    सुबकते-सुबकते उसका आँसू एक गिरा ।

    जहाँ बह रही ज्ञानधारा,

    तब से अब तक

    संदेश देने गुरु को

    सरपट भाग रही वह धारा,

     

    किंतु संत के शिवपथगामी चरण की

    गति अति तीव्र है।

    एक ओर धरा की अनमोल धरोहर

    बह रही चिन्मयी विद्याधारा

    साथ ही विद्याधर की कथा कारिका

    सरक रही बोधमयी ज्ञानधारा

    एक मुनि में समायी है।

    दूसरी मौन स्वरूपा

    विज्ञजनों के मन में भायी है।

     

    कहते हैं पूर्णज्ञानी कि

    ज्ञानधारा से ही बना

    ज्ञान का सागर

    ज्ञानसागर से ही बना

    विद्या का सागर

    जहाँ-जहाँ विचरते हैं चरण इनके

     

    वहाँ-वहाँ लगता स्वर्णिम काल है ये

    संयमोत्सव का लगता नज़ारा

    मिट जाता मिथ्या अंधियारा

    ऐसे विराट व्यक्तित्व को

    कुछ पृष्ठों में आँकना

    ज्यों आकाश को

    आँचल में बाँधना

    कैसे संभव है?

     

    भाँति-भाँति से स्वयं को समझाती

    भव्यों के लिए भावना भाती

    उपयोग की गति

    पूर्णमति की ओर हो

    सबकी प्रगति

    पंचमगति की ओर हो…

     

    ज्ञानधारा के लहर रूपी नयन

    देखते रहे अतीत को मुड़कर

    अनागत को आगे बढ़कर

    और वर्तमान में रहकर

    विद्याधर से विद्यासागर को

    उनके आगमानुसार रत्नत्रय आचरण को

    देखते ही देखते इस माया लोक से बहुत दू…

    र भीतर चेतना लोक में समाती ज्ञाऽ ऽ ऽ न धा ऽ ऽ ऽ रा ऽ ऽ


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