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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
अंतरराष्ट्रीय मूकमाटी प्रश्न प्रतियोगिता 1 से 5 जून 2024 ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • ज्ञानधारा क्रमांक - 133

       (0 reviews)

    सधी भाषा

    विद्वत् मन को करती है आकर्षित,

    निश्छल बालक-सी मुस्कान

    आबाल वृद्ध को करती है हर्षित।

     

    एक दिवस

    विराजमान थे तख्त पर

    आकर एक सज्जन ने कहा- गुरूवर!

    थोड़ा-सा दे दीजिए समय...

    आशु समाधानी बोले यतिवर

    घड़ी रखता ही नहीं मैं

    कैसे दूँ तुम्हें समय?

     

    आत्मविहारी संत कर रहे विहार

    सदा की भाँति ले कमण्डल साथ,

    भक्त ने कहा गुरूदेव!

    कमण्डल दे दीजिए एक बार...

    मुस्कराते हुए कहा गुरू ने

    तुमने दिया ही नहीं जब मुझे

    तो फिर कैसे दूँ कमण्डल तुम्हें?

     

    गुरु के हाथ से मिल जाये एक माला

    इसी भावना से एक भक्त बोला

     

    महाराज! यह आचार्य शांतिसागरजी

    दे गये थे मुझे एक माला

    जानकर उसके मन की कामना

    कहा तत्काल

    तुम्हें तो माला ही दे गये

    मुझे तो मालामाल कर गये!

     

    वार्तालाप करते-करते भी

    आचार्यश्री पर सम्मुख नहीं होते

    निज सत्ता से विमुख नहीं होते,

    जल में कमल की भाँति अलिप्त हैं पर से

    जड़ षट्स से परे परम रस ही चखते,

    विकल्पों में रस नहीं जिन्हें

    फिर भला रस का विकल्प क्यों हो उन्हें?

     

    जब श्रावक के गृह हुआ आहार

    सब्ज़ी थी कड़वी ज़हर

    दाता देते गये गुरू लेते रहे,

    सहज मुखाकृति लिए

    श्रावक कुछ समझ नहीं पाये

    जब चखा भोजन तो रोने लगे…

     

    कमजोर शत्रु को

    जीत लें कोई दल से

    बलजोर शत्रु को

    जीत लें कोई छल से,

    समान वैरी को

    जीत लें कोई बल से,

    पर विषय कषायों के शत्रु को

    जीत सकते ऐसे ही विजितमना!!

     

    जिनका आतम निर्विकल्प है

    तभी तो शरणागत के

    दूर होते विकल्प हैं, सुख पाते अनल्प हैं

    साक्षी है इस बात की घटना यह

     

    गुरू-आज्ञा से शिष्या ने

    किया कोटा में चौमासा

    चौबीस समवसरण की हुई रचना...
    वायुयान द्वारा बरसाये सुमन

    कार्य सारा हो गया सानंद संपन्न

    प्रातः जिन्होंने की थी शांतिधारा

    उन्होंने वायुयान में बैठ

    शहर घूमने का मन में विचारा,

    ज्यों ही भरी ऊँची उड़ान

    अचानक धड़ाम से गिरा विमान

    पुर्जे सारे हुए अलग-अलग!!

     

    जैसे ही शिष्या ने यह सुना

    गुरु से की मन से प्रार्थना

    जिस विधान के लिए आशीर्वाद दिया आपने

    कुछ भी अनर्थ हो नहीं सकता इसमें,

    पूर्ण भरोसा है आप पर

    मेरी श्रद्धा की लाज रखना गुरुवर!

     

    अचानक गुरु की मूरत सामने आई

    देकर आशीष, छवि अदृश्य हो गई

    दौड़ते हुए आकर बोले कुछ लोग

    बहुत बड़ा आश्चर्य हो गया!

    दुर्घटना होते-होते चमत्कार हो गया...।

    सात लोग बड़ी ऊँचाई से गिरे एक साथ

     

    पर उन्हें खरोंच तक नहीं आई !

    यदि कुछ पहले गिरता तो चंबल में डूब जाता

    कुछ बाद में गिरता तो नगर में हादसा हो जाता

    गिरने का स्थान था सुनसान

    जहाँ न कोई पशु न इंसान।

     

    प्रातः समाचार-पत्रों के मुखपृष्ठ पर छपा

    कोटा में हुआ दैवीय चमत्कार...

    यह सब था गुरु का ही आध्यात्मिक प्रभाव

    जो सँभाल लेते हैं गिरते को

    बचा लेते हैं डूबते को,

    बहती-बहती ज्ञानधारा

    जनमानस को सुनाती जा रही सत्य घटना…

     

    जब कोटा में भयंकर पानी बरसा

    तब नदी-नाले भर आये

    बाँध टूट गये

    कुछ मकान ढह गये, मवेशी बह गये

    नसिया की तरफ बढ़ रहा जल का प्रवाह...

    हो गई घोषणा

     

    डूबने वाली है नसिया...

    तभी गुरु की तस्वीर के आगे

    भक्त ने जलाया निष्ठा का एक दीया

    चित्त की गहराई से की स्तुति,

    झट ही बदल गई जल की गति!

     

    प्रसारित हुई सूचना कि

    पानी ने अपना रूख अचानक बदल दिया है

    नगर का भयानक संकट टल गया है,

     

    भक्त ने झुक कर किया वहीं से नमन

    ‘जयवंत रहें गुरुवर

    जब तक है यह धरा गगन’

    जिनसे दिव्य ऊर्जा पाकर

    बदल जाती प्राणी की मति,

    तो फिर आश्चर्य ही क्या

    जो बदल गई पानी की गति!

     

    जिनकी चेतना का चिंतन सदा सकारात्मक

    मन का मनन सदा विधेयात्मक

    तन का आचरण सदा संदेशात्मक हो,

    ऐसे संत-चरण में नमन करना

    चाहते हैं जन- जन,

    आचरण का अनुसरण करना चाहते हैं शिष्यगण।

     

    एक दिन आज्ञा दी गुरुवर ने

    शिष्य को प्रवचन करने की...

    बाहर झाँककर कहा शिष्य ने

    भीड़ भारी है बाहर लोगों की

    आप ही का प्रवचन हो आचार्यश्री!

    स्नेह से कहा शिष्य से

    लोगों की भीड़ है ऐसा न कहो

    श्रद्धालुओं का समूह है

    अब प्रवचन करने जाओ!

     

    अन्तेवासिन् को समझाते वे

    याद नहीं रखना है तुम्हें

    कि घर कब छोड़ा है,

    याद यह रखना है कि

    घर क्यों छोड़ा है;

     

    क्योंकि दुग्ध में गिरती है यदि धूल

    तो बेकार हो जाता है दुग्ध,

    दुग्ध में मिलती है यदि मिश्री

    तो मिष्ट हो जाता है दुग्ध,

    दुग्ध में मिलती है यदि खीर

    तो स्वयं उस रूप हो जाता है दुग्ध,

    गिरने और मिलने में वह सुख कहाँ?

    जो एक रूप होने में है।

    निज रूप होने में है।

     

    स्वरूप का लक्ष्य रखना है

    उसी में रमना है,

    यों नित नवीन चिंतन में स्वयं डूबते

    शिष्यगणों को डुबा देते।

     

    बाहरी जगत में रहकर

    प्राणीमात्र के हित का करते चिंतन,

    नयन मूंदने पर

    अंतर्जगत् में समाकर

    करते निजातम का चिंतन।


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