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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. गुरु-स्मृति-स्तुति मैं आपकी सदुपदेश सुधा न पीता, जाती लिखी न मुझसे यह जैन-गीता'। दो ‘ज्ञानसागर गुरो!' मुझको सुविद्या, ‘विद्यादिसागर' बनँ तज दूँ अविद्या ॥१॥ भूल-क्षम्य लेखक कवि मैं हूँ नहीं, मुझमें कुछ नहिं ज्ञान। त्रुटियाँ होवें यदि यहाँ, शोध पढ़ें धीमान ॥२॥ मंगल-कामना यही प्रार्थना ‘वीर' से अनुनय से कर जोर। हरी-भरी दिखती रहे, धरती चारों ओर ॥३॥ मरहम पट्टी बाँध के, वृण का कर उपचार। ऐसा यदि ना बन सके, डंडा तो मत मार ॥४॥ फूल बिछाकर पंथ में, पर प्रति बन अनुकूल। शूल बिछाकर भूल से, मत बन तू प्रतिकूल ॥५॥ तजो रजोगुण, साम्य को-सजो, भजो निज-धर्म। शम मिले, भव दुःख मिटे, आशु मिटें वसु कर्म ॥६॥ रचना स्थान एवं समय परिचय ‘श्रीधर-केवलि' शिव गये, कुण्डलगिरि से हर्ष। धारा वर्षायोग उन, चरणन में इस वर्ष ॥७॥ ‘बड़े बाबा' बड़ी कृपा, की मुझ पै आदीश। पूर्ण हुई मम कामना, पाकर जिन आशीष ॥८॥ ‘संग-गगन-गति-गंध' की भादु पदी सित तीज। पूर्ण हुआ यह ग्रंथ है, भुक्ति-मुक्ति का बीज ॥९॥
  2. सम्यक्त्व-बोध-व्रत पावन-झील न्यारे, मेरे रहें शरण संयम शील सारे। लँ वीर की शरण भी मम प्राण प्यारे, नौका समान भव-पार मुझे उतारें ॥७५०॥ निर्ग्रन्थ हैं अभय धीर अनन्त-ज्ञानी, आत्मस्थ हैं अमल है कर आयु-हानि। मूलोत्तरादिगुण-धारक विश्वदर्शी, विद्वान 'वीर' जग में जग-चित्त-हर्षी ॥७५१॥ सर्वज्ञ हैं अनियताचरणावलम्बी, पाया भवाम्बुनिधि का तट स्वावलम्बी। हैं अग्नि से निशि नशा स्वपरप्रकाशी, हैं ‘वीर' धीर रवितेज अनंतदर्शी ॥७५२॥ ऐरावता वर-गजों हरि ज्यों मृगों में, गंगा नदी गरुड़ श्रेष्ठ विहंगमों में। निर्वाणवादि मनुजों मुनि साधुओं में, त्यों ‘ज्ञातृपुत्र' वर 'वीर' मुमुक्षुओं में ॥७५३॥ ज्यों श्रेष्ठ सत्य वचनों वच कर्ण-प्रीय, दानों रहा ‘अभय दान' समर्च्यनीय। है ब्रह्मचर्य तप' उत्तम सत्तपों में, त्यों ‘ज्ञातृपुत्र' श्रमणेश धरातलों में ॥७५४॥ हैं जन्मते कब कहाँ जग जीव सारे, जानो जगद्गुरु! तुम्हीं जगदीश! प्यारे। धाता पितामह चराचर मोदकारी, हे! लोकबन्धु भगवन्! जय हो तुम्हारी ॥७५५॥ संसार के गुरु रहें जयवन्त नामी! तीर्थेश अन्तिम रहें जयवन्त स्वामी! विज्ञान स्रोत जयवन्त रहे ममात्मा, ये ‘वीरदेव' जयवन्त रहें महात्मा ॥७५६॥ दोहा मेटे वाद-विवाद को, निर्विवाद स्याद्वाद। सब वादों को खुश करे, पुनि-पुनि कर संवाद ॥
  3. अर्हन् प्रभो! अमित दर्शन-ज्ञान स्पर्शी, वे ‘ज्ञातृपुत्र' निखिलज्ञ, अनन्तदर्शी। वैशालि में जनम सन्मति ने लिया था, धर्मोपदेश इस भाँति हमें दिया था ॥७४५॥ श्री वीर ने सुपथ यद्यपि था दिखाया, था कोटिशः सदुपदेश हमें सुनाया। धिक्कार! किन्तु हमने उसको सुना ना, मानो! सुना पर कभी उसको गुना ना ॥७४६॥ जो साधु आगति-अनागति कारणों को, पीड़ा प्रमोद प्रद आस्रव-संवरों को। औ जन्म को मरण को निज के गुणों को, त्रैलोक्य में स्थित अशाश्वत शाश्वतों को ॥ औ स्वर्ग को नरक को दुख निर्जरा को, हैं जानते च्यवन को उपपादता को। श्री मोक्ष पंथ प्रतिपादन कार्य में हैं, वे योग्य, वंदन त्रिकाल करूं उन्हें मैं ॥७४८॥ वाणी सुभाषित सुधा, शुचि वीर की है, थी पूर्व प्राप्त न, अपूर्व अभी मिली है। क्यों मृत्यु से फिर डरूँ तज सर्वग्रन्थी, मैं हो गया जब प्रभो! शिव-पंथ-पंथी ॥७४९॥
  4. कोई प्रयोजन रहे तब युक्ति साथ, औचित्यपूर्ण पथ में रखना पदार्थ। ‘निक्षेप' है समय में वह नाम पाता, नामादि के वश चतुर्विध है कहाता ॥७३७॥ नाना स्वभाव अवधारक द्रव्य प्यारा, जो ध्येय ज्ञेय बनता जिस भाव द्वारा। तद्भाव की वजह से इक द्रव्य के ही, ये चार भेद बनते सुन भव्य देही ॥७३८॥ ये 'नाम' ‘स्थापन' व 'द्रव्य' स्व-'भाव' चारों, निक्षेप हैं तुम इन्हें मन में सुधारो। है नाम मात्र बस द्रव्यन की सुसंज्ञा, है नाम भी द्विविध ख्यात कहें निजज्ञा ॥७३९॥ आकार औ इतर स्थापन' यों द्विधा है, अर्हन्त बिम्ब कृत्रिमेतर आदि का है। आकार के बिन जिनेश्वर स्थापना को, तू दूसरा समझ रे! तज वासना को ॥७४०॥ (७४१-७४२) जो द्रव्य को गत अनागत भाववाला, स्वीकारता कर सुसांप्रत गौण सारा। निक्षेप ‘द्रव्य' वह आगम में कहाता, विश्वास मात्र उसमें बस भव्य लाता ॥ निक्षेप द्रव्य, द्विविधा वह है कहाता, नोआगमागमतया सहसा सुहाता। ना शास्त्रलीन रहता, जिनशास्त्र ज्ञाता, ओ द्रव्य आगम जिनेश तदा कहाता ॥ नो आगमा त्रिविध ‘ज्ञायक देह' भावी औ ‘कर्म रूप जिन यों कहते स्वभावी। हे, भव्य तू समझ ज्ञायक भी त्रिधा है, जो भूत सांप्रत भविष्यत या कहा है ॥ औ त्यक्त च्यावित तथा च्युत यों त्रिधा है, औ ‘भूतज्ञायक' जिनागम में लिखा है॥ शास्त्रज्ञ की जड़मयी उस देह को ही, तद्रूप जो समझना अयि भव्य मोही। माना गया कि वह ‘ज्ञायक देह' भेद, ऐसा जिनेश कहते जिनमें न खेद ॥ नीतिज्ञ के मृतक केवल देह को ले, लो ‘नीति' ही मर चुकी जिस भाँति बोलें ॥ जो द्रव्य की कल दशा बन जाय कोई, तद्रूप आज लखना उस द्रव्य को ही। श्री वीर के समय में बस 'भावि' सोही, राजा यथा समझना युवराज को ही ॥ कर्मानुसार अथवा जग मान्यता ले, रे! वस्तु का ग्रहण जो कर ले, करा ले। है ‘कर्म भेद' वह निश्चित ही कहाता, ऐसा 'वसन्ततिलका' यह छन्द गाता ॥ देवायु कर्म जिसने बस बाँध पाया, ज्यों आज ही समझता यह ‘देव राया’। या पूर्ण-कुम्भ कलदर्पण आदि भाते, लोकोपचार वश मंगल ये कहाते ॥ (७४३-७४४) है द्रव्य सांप्रत दशामय यों बताता, निक्षेप 'भाव' वह आगम में कहाता। नोआगमाऽऽगमतया वह भी द्विधा है, वाणी जिनेन्द्र कथिता कहती सुधा है॥ आत्मोपयोग जिन आगम में लगाता, अर्हन् उसी समय है जिन शास्त्र-ज्ञाता। तो ‘भाव-आगम' नितान्त यही रहा है, ऐसा यहाँ श्रमण सूत्र बता रहा है ॥ अर्हन्त के गुण सभी प्रकटें जभी से, अर्हन्त देव उनको कहना तभी से। है केवली जब उन्हीं गुण धार ध्याता, ‘नोआगमा' वह जिनागम में कहाता ॥
  5. जो ज्ञान यद्यपि परोक्षतया जनाता, नैकान्तरूप सबको फिर भी बताता। है संशयादिक प्रदोष-विहीन साता, तू जान मान ‘श्रुतज्ञान' वही कहाता ॥७२२॥ जो वस्तु के इक अपेक्षित धर्म द्वारा, साधे सुकार्य जग के, नय ओ पुकारा। औ भेद भी नय वही श्रुत-ज्ञान का है, माना गया तनुज भी अनुमान का है ॥७२३॥ होते अनन्त-गुण-धर्म-पदार्थ में हैं, पै एक को हि चुनता नय ठीक से है। तत्काल क्योंकि रहती उसकी अपेक्षा, हो शेष गौण गुण, ना उनकी उपेक्षा ॥७२४॥ सापेक्ष ही सुनय हो सुख को सँजोते, माने गए कुनय हैं निरपेक्ष होते। संपन्न हो सुनय से व्यवहार सारे, नौका समान भव पार हमें उतारे ॥७२५॥ ये वस्तुतः वचन हैं जितने सुहाते, है भव्य! जान नय भी उतने हि पाते। मिथ्या अत: नय हटी कुपथ-प्रकाशी, सापेक्ष सत्य नय मोह-निशा विनाशी ॥७२६॥ एकान्तपूर्ण कुनयाश्रित पंथ का वे, स्याद्वाद विज्ञ परिहार करें करावें। औ ख्याति-लाभ-वश जैन बना हटी हो, ऐसा पराजित करो पुनि ना त्रुटी हो ॥७२७॥ सच्चे सभी नय निजी विषयों स्थलों में, झूठे परस्पर लड़े निशि-वासरों में। ‘ये' ‘सत्यवे' सब असत्य कभी अमानी, ऐसा विभाजित उन्हें करते न ज्ञानी ॥७२८॥ ना वे मिले, यदि मिले तुम हो मिलाते, सच्चे कभी कुनय पै बन हैं न पाते। ना वस्तु के गमक हैं उनमें न बोधि, सर्वस्व नष्ट करते रिपु से विरोधी ॥७२९॥ सारे विरुद्ध नय भी बन जाय अच्छे, स्याद्वाद की शरण ले कहलाय सच्चे। पाती प्रजा बल प्रजापति छत्र में ज्यों, दोषी अदोष बनते मुनि-संघ में त्यों ॥७३०॥ होते अनन्त-गुण-द्रव्यन में सयाने, द्रव्यांश को अबुध पूरण द्रव्य माने। छू अंग-अंग गज के प्रति अंग को ही, ज्यों अंधवेगज कहें, अयि भव्य-मोही ॥७३१॥ सर्वांगपूर्ण गज को दृग से जनाता, तो सत्य ज्ञान गज का उसका कहाता। सम्पूर्ण द्रव्य लखता सब ही नयों से, है सत्य ज्ञान उसका स्तुत साधुओं से ॥७३२॥ संसार में अमित-द्रव्य अकथ्य भाते, श्री-वीर-देव कहते मित कथ्य पाते। लो कथ्य का कथित भाग अनन्तवाँ हैं, जो शास्त्ररूप वह भी बिखरा हुआ है ॥७३३॥ निन्दा तथापि नित जो पर के पदों की, शंसा अतीव करते अपने मतों की। पांडित्य ये जन यशोऽर्थ दिखा रहे हैं, संसार को सघन और बना रहे हैं ॥७३४॥ संसार में विविध कर्म प्रणालियाँ हैं, ये जीव भी विविध औ उपलब्धियाँ हैं। भाई अत: मत विवाद करो किसी से, साधर्मि से, अनुज से, पर से अरी से ॥७३५॥ है भव्य-जीव मति-गम्य जिनेन्द्र-वाणी, पीयूष-पूरित पुनीत-प्रशांति-खानी। सापेक्ष-पूर्ण-नय-आलय पूर्ण साता, आसूर्य जीवित रहे जयवन्त माता ॥७३६॥
  6. हो ‘मान' का विषय या नय का भले हो, दोनों परस्पर अपेक्ष लिए हुए हो। ‘सापेक्ष है विषय' ओ तब ही कहाता, हो अन्यथा कि इससे निरपेक्ष भाता ॥७१४॥ एकान्त का नियति का करता निषेध, है सिद्ध शाश्वत निपाततया “अवेद''। ‘स्यात् शब्द है वह जिनागम में कहाता, सापेक्ष सिद्ध करता सबको सुहाता ॥७१५॥ भाई प्रमाण-नय-दुर्नय-भेद वाले, हैं सप्त-भंग बनते, क्रमवार न्यारे। ‘स्यात्' की अपेक्ष रखते परमाण प्यारे! शोभे नितान्त नय से नयभंग सारे। सापेक्ष दुर्नय नहीं, निरपेक्ष होते, एकान्त पक्ष रखते दुख को सँजोते ॥७१६॥ स्यादस्ति, नास्ति उभयाऽवकतव्य चौथा, भाई त्रिधा अवकतव्य तथैव होता। यों सप्त-भंग लसते परमाण के हैं, ऐसा कहें जिनप आलय ज्ञान के हैं ॥७१७॥ क्षेत्रादिरूप इन स्वीय चतुष्टयों से, अस्ति-स्वरूप सब द्रव्य युगों-युगों से। क्षेत्रादि-रूप परकीय चतुष्टयों से, नास्ति स्वरूप प्रतिपादित साधुओं से ॥७१८॥ जो स्वीय औ परचतुष्टय से सुहाती, स्यादस्ति नास्तिमय वस्तु वही कहाती। औ एक साथ कहते द्वय धर्म को हैं, तो वस्तु हो अवकतव्य प्रमाण सो हैं। यों स्वीय-स्वीय नय-संग पदार्थ जानो, तो सिद्ध हो अवकतव्य त्रिभंग मानो ॥७१९॥ एकैक भंग-मय ही सब-द्रव्य भाते, एकान्त से सतत यों रट जो लगाते। वे सात भंग तब दुर्नय-भंग होते, स्यात् शब्द से सुनय से जब दूर होते ॥७२०॥ ज्यों वस्तु का पकड़ में इक धर्म आता, तो अन्य धर्म उसका स्वयमेव भाता। वे क्योंकि वस्तुगत धर्म, अतः लगाओ, ‘स्यात्' सप्त-भंग सब में झगड़ा मिटाओ ॥७२१॥
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