बहते-बहते ज्ञानधारा ने
सुनी अचानक कुंडलपुर में
एक पाषाण खंड के गिरने की आवाज़,
नीचे बैठा था एक युवा
गिरी जोर से सिर पर
खाने लगा वह चक्कर...
तभी पहाड़ चढ़ते गुरू की
पड़ी उस पर एक दृष्टि,
युवा ने जोड़े हाथ
झुका लिया सिर
दर्द हुआ पल भर में छूमंतर
गुरु की करुणामयी एक नज़र पा
असाता भी पलट कर हुआ साता,
ज्यों ही युवा ने झुकाया माथा
यही तो महिमा है वास्तविक संत की
प्राणी की तो बात ही क्या
पाषाण भी हो जाता मृदुः!
कठोर पाषाण भी हो जाता मोम-सा!
सच है गुरु बिन हो जाता है जीवन
रूक्ष रेगिस्तान-सा
तुच्छ तिनके-सा,
क्षुद्र धूल के कण-सा।
दमोह से सागर विहार में
चल रहे थे अनेकों भक्त साथ में
तभी गुजरे नागरवेल के नीचे से
कहा एक विद्वान् ने धीरे से
इसके पत्तों का रस तो
केवल आँखों को ही करता निर्मल,
किंतु आपके ज्ञान का रस
अंतर्दृष्टि को कर देता निर्मल।
चलते-चलते बैठ गये एक शिला पर कुछ पल..
उठकर जाने लगे जब
गुरु से स्पर्शित शिला को तब
ले जाने की लगी होड़ भक्तों की
बोली पर बोली लगने लगी
पाँच लाख तक आ पहुँची।
सूरि जब मंत्र फूँक
बना देते पाषाण को भगवान
तब जिस पाषाण पर बैठे
सूरि भगवान
क्यों न हो उसका मूल्य महान?
समीप ही थी चाय की दुकान
मालिक था उसका बलराम
उसी की थी वह शिला
देख भक्तों का समुदाय
उसका हृदय खिला...
उठाकर शिला ले गया घर
बोला लोगों से हाथ जोड़कर
चाहे पाँच करोड़ रुपये भी दो
फिर भी नहीं दे सकता यह शिला प्रस्तर
लगाकर गुरु की तस्वीर पूजने लगा उसे…
लिखते-लिखते लेखनी थम गई
शब्दों की श्रृंखला कम पड़ गयी
आखिर कहाँ तक लिखें बाह्य चमत्कार!
संतात्मा की
चैतन्य सत्ता में होते
नित नवीन स्वानुभूतिमय चिन्मय चमत्कार।
"दीवसमा आइरिया अप्पं परं च दीवदि''
कहती-कहती रुकती नहीं
बहती जा रही ज्ञानधारा...
गुरू की सातिशय पुण्य वर्गणाओं का
पाकर निमित्त
अनेकों कार्य होते जाते सहज नित,
किंतु पर कर्तृत्व से रहते हैं परे
जीवन के सत्य को पहचानने
स्वातम को जानने
जीवन को संयमित रखने
देते हैं जन-जन को संदेश।
कुंदकुंद यतिवर के समयसार
वट्टकेर मुनिवर के मूलाचार
समंतभद्र की तार्किक टंकार रूप
त्रिवेणी का देते हैं उपदेश।
जो पर्वत-सम अचल
जल-सम विमल
पवन-सम निस्संग
सिंह-सम निर्भय
चन्द्र जैसे सौम्य, सूर्य जैसे दिव्य
अवनि जैसी सहिष्णुता
अंबर जैसी विशालता
वचन और वृत्ति में एकरूपता।
जिनके दर्पण सम जीवन में...
भीषण गर्मी हो या सर्दी
पंखा, कूलर, घास, चटाई
नहीं करते उपयोग कदापि
चलना न पड़े कभी रात में
इसीलिए सीमित आहार ले
दाल, रोटी, भात
गर्म पानी, छाँछ
नमक, मीठा पूरा त्याग
फल, मेवा न कोई साग।
निर्जल किये नौ उपवास
रहे नित्य स्वातम के पास
पाटे पर ही शाम से हो जाता सवेरा
दिन में सोते नहीं रात में भी अल्प निद्रा,
शेष काल ज्ञान ध्यान में रत
अनुकंपा अनुशासन की मूरत
मानो मुक्ति का वायुवेग-सा रथ
विलोम शब्दों के विशेषज्ञ
दाक्षिणात्य होकर भी
उत्तरापथ के हिंदी भाषियों से
कहीं अधिक निष्णात,
शब्दार्थ में हासिल है महारत
वे स्वयं हैं विद्या के सागर
और उनका शब्द-शब्द विद्या का सागर!!
दीक्षित शिष्य समुदाय है भारी
तीन सौ साधु साध्वी पिच्छीधारी
कई दशक ऐलक-क्षुल्लक
आठ सौ ब्रह्मचारी, ब्रह्मचारिणी
अणुव्रती हजारों
व्यसन-त्यागी अनेकों
साहित्य के क्षेत्र में
गुरूदेव ने वही लिखा जो लखा
वही कहा जो रस चखा;
क्योंकि पहले अनुभव की आँख से देखते हैं।
फिर वे जुबाँ से यथार्थ बोलते हैं।