पाते नहीं अविनयी सुख सम्पदाएँ, पा ज्ञान गौरव सुखी विनयी सदा ये।
जानो यही अविनयी-विनयी समीक्षा, ज्ञानी बनो सहज पाकर उच्च शिक्षा ॥१७०॥
मिथ्याभिमान करना, मनक्रोध लाना, पाना प्रमाद, तन में कुछ रोग आना।
आलस्यकानुभव, ये जब पंच होते, शिक्षा मिले न, हम बालक सर्व रोते ॥१७१॥
आलस्य हास्य मनरंजन त्याग देना, होना सुशील, मन-इन्द्रिय जीत लेना।
क्रोधी कभी न बनना, बनना न दोषी, ना झूलना विषय में न असत्य-पोषी ॥१७२॥
भाई कदापि बनना न रहस्य भेदी, ऐसा सदैव कहते गुरु आत्मवेदी।
आ जाय आठ गुण जीवन में किसी के, विद्या निवास करती मुख में उसी के ॥१७३॥
सिद्धांत के मनन से मन हाथ आता, विज्ञान भानु उगता, तम को मिटाता।
जो धर्म निष्ठ बनता पर को बनाता, सद्बोध रूप सर में डुबकी लगाता ॥१७४॥
संसार को प्रिय लगे प्रिय बोल बोलो, सद-ध्यान से तप तपे दृग पूर्ण खोलो।
सिद्धांत को गुरुकुली बन के पढ़ोगे, सद्यः सभी श्रुत विशारद जो बनोगे ॥१७५॥
जाज्वल्यमान इक दीपक से अनेकों, हैं शीघ्र दीप जलते अयि मित्र देखो।
आचार्य दीप सम हैं तम को मिटाते, आलोकधाम हम को सहसा बनाते ॥१७६॥