स्वातम को निरखते लखते
गुरूवर आये लखनादौन विहार करके
सर्दी का समय था
वैय्यावृत्ति करने शिष्यगण खड़े थे
शीत के कारण शरीर में काँटे उठ रहे थे,
विराग भाव से बोले गुरुदेव
चाहे कितना देह को खिलाओ-पिलाओ
इसकी सुरक्षा करो, फूल-सा रखो
फिर भी यह नहीं देता फूल
देता है शूल ही शूल
फूल भी इसके संपर्क में आ
मुरझा ही जाते हैं
आखिर
इसकी क्यों सेवा करते हैं?
सुनते ही भेदज्ञान की वार्ता
शिष्यों का शीश गुरुपद में झुक गया।
एक शाम चलते-चलते
आचार्य श्री पधारे गैरतगंज
‘विद्यासागर' नाम के वाहनों की देख कतार
एक अजैन भाई रह गया दंग
पूछने लगा लोगों से
कितने बड़े सेठ हैं ये
इतनी सारी मोटर, कार
और क्या-क्या है इनके पास?
एक भक्त ने इशारा किया गुरु की ओर...
देख निर्वसन श्रमण,
हो गया विभोर
समझ गया वह
श्रद्धा से भक्त लिख देते
गुरू का नाम वाहन पर
और गुरू संयम वाहन ले
जा रहे मोक्षनगर...।