देश के कुछ नेता आये दर्शनार्थ...
दर्शन कर कहा दयासिंधु गुरु से
दीजिए कोई आज्ञा हमें
कहा विश्व संत यतिवर ने
देश में शांति हो, कोई भी जीव दुखित न हो
भारतीय संस्कृति सुरक्षित हो,
सुनते ही यह कहा एक नेता ने
संतों में महासंत हैं आप!
एक ऐसे संत का दर्शन किया आज
जो सोचते हैं समूचे विश्व के लिए,
जानी जायेगी सदी ये ऐसे संत के नाम से...
साम्य दृष्टि कहती है जिनकी
एक तवे की रोटी क्या मोटी क्या छोटी?
सभी जीव एक समान हैं जिन्हें
प्यार है प्राणी मात्र से उन्हें।
माना कि आदमी की हैं आवश्यकताएँ ।
किंतु जब बन जाती हैं वही आकांक्षाएँ
तब वह रहता नहीं मानव
बन जाता है दानव;
क्योंकि तन की होती आवश्यकताएँ
लेकिन मन की होती आकांक्षाएँ
तन की भूख में पर्याप्त है रोटी
मन की भूख को चाहिए पराठा, पूड़ी
जब तक आकांक्षा पनपती रहेगी
इष्टानिष्ट कल्पना चलती रहेगी।
जो प्राप्त हो उसमें लगे तृप्ति
वह है आवश्यकता,
जो प्राप्त है वह कभी पर्याप्त न लगे
वह है आकांक्षा।
साक्षर होकर भी आज का इंसान
राक्षस बन अपनी इच्छा पूर्ति हेतु
कर रहा घोर हिंसा...
वीर, नानक, गाँधी के देश में
सिसक रही अहिंसा!
तभी आशा का एक दिनमान बन
धरा पर आये गुरुवर
मूक प्राणियों के लिए वरदान बन
बचाने आये यतिवर…
गुरु उपदेश से- खुल गई ‘शांति दुग्धधारा'
एक तरफ होती पशुधन रक्षा
दूसरी अनेकों परिवारों की आजीविका,
बाजार से जो लाते दूध-दही ।
उसमें कितनी मिलावट रही
शैम्पू निरमा, यूरिया से
नकली दूध बनाकर के
पिला रहे विष के प्याले
अमृत-रस गौदुग्ध छोड़कर,
इसीलिए तो भयंकर रोग पल रहे घर-घर।
यह शांति दुग्धधारा
आचार्य भगवंत के चिंतन का प्रसाद है सारा,
जिनने रक्त रंजित माहौल से दूर कर
दिखाया दुग्ध की भाँति श्वेत शांति का नज़ारा,
चाहते वे- जग सारा बँधे अहिंसा की डोर में ।
दूर हो बेरोजगारी लाचारी ।
जीये सब दयामयी भारतीय संस्कृति की भोर में।
आचार्यों ने बताये चार पुरुषार्थधर्म,
अर्थ, काम, मोक्ष
किंतु आज के धनांध मानव को
दिख रहा मात्र अर्थ ही अर्थ!
यदि धर्म पुरुषार्थ की नींव ही नहीं।
तो अर्थवान कहलाता परिग्रही।
नहीं है अर्थ और काम पुरूषार्थी वह
कामी भोगी है व्यभिचारी वह,
मोक्ष पुरूषार्थ की तो बात ही नहीं;
क्योंकि प्रथम धर्म पुरूषार्थ ही नहीं।
घर-घर में पहले
सुना जाता था गौरव
अब गृह आँगन में भौंकते हैं श्वान
इसीलिए तो इंसान भी हो गया शैतान,
जिस आँगन में रहे गैया।
वास्तु-दोष वहाँ न रहता
गोघृत के दीप जहाँ जलते
बाधा संकट सब मिट जाते,
गोबर की गंध जहाँ रहती
रोग भागते व्याधि न पनपती,
एक गाय ही है ऐसी
जो ऑक्सीजन लेकर ऑक्सीजन छोड़ती भी है।
प्रत्येक पहलू से है गाय उपकारी
सुन लो हे मरतन धारी!
जा सकते सोलह स्वर्ग तक
देशव्रती बनकर गौ आदि जानवर
कहते हैं महा मनीषि ऋषिवर
इसीलिए तुम जीवों को न मारो
न इनके मन को दुखाओ।
ज़रा उर में दया लाओ
मानव जीवन व्यर्थ न गवाओं;
क्योंकि प्राणी मात्र के कल्याण की
कामना ही कामधेनु है,
जीव मात्र के लिए सुख की
कल्पना ही कल्पवृक्ष है,
और प्राणी मात्र के हित का
चिंतन ही चिंतामणि है।