बहती-बहती ज्ञानधारा
कभी देखती नहीं पीछे मुड़कर,
किंतु शेष रह जाती कुछ स्मृतियाँ
उसके मानस पटल पर…
एक आराधिका कर रही पद विहार
अनायास चलते-चलते
हो गई बीमार,
संघस्थ सभी पहुँच गये
गंतव्य तक
रह गई एकाकी वह!
गंतव्य था बहुत... दू...र...
आराधिका थी मजबूर
दिन ढल रहा था
अंधेरा घिर रहा था
साथ ही रुक गईं चार बहने
संग में चल रहे दो श्रावक
रूक गये वे कुछ दूरी पर
जहाँ थी सड़क।
प्रतिक्रमण संपन्न कर
देव, गुरु-वंदन कर
ज्यों ही सामायिक को हुई तत्पर
चुपके से कहा किसी ने मन में
“यह स्थान अनुकूल नहीं है
किंतु अब कहीं जा नहीं सकते;
क्योंकि रात घिर चुकी है।
सोचकर यह
सिद्धशिला पर विराजमान
अनंत सिद्धों को वंदन कर
त्रियोग से गुरु को नमन कर
समर्पण भाव से सर्वस्व अर्पण कर
स्मरण कर सबका,
प्रत्येक दिशा में एक सौ आठ बार
महामंत्र का भक्ति से जाप कर
मंत्र से मजबूत दीवार बना
की गुरु से प्रार्थना
हे नवजीवन दाता!
दीक्षा-प्रदाता
इस सुनसान वन में
मेरे शील की रक्षा करना
यहाँ कोई नहीं मेरा सहायक
आप मेरे हृदय में विराजमान रहना
उपासिका ने मन-वचन-कायिक
भावों से की छह घड़ी सामायिक,
उस दिन था शनिवार
अमावस्या का घना अंधकार
ज्यों ही सामायिक के उपरांत
पैरों को किया लंबायमान...
त्यों ही कई लोगों के आने का हुआ आभास
अचानक बिजली चमकी...
प्रकाश में कई मानवाकृति झलकीं...
लाल वस्त्र, मोटा-सा तन
सबका एक-सा बदन
अपने पैरों पर मानव छाया देख
सिकुड़ लिए झट पैर।
सभी ने देखा यह दृश्य...
तभी कर्णपटल को चीरते से गूंजे शब्द
मारो... मारो.... मारो...
सुनते ही तत्काल
उपासिका ने करके मन में सर्वस्व समर्पण
कर जोड़ किया गुरु से निवेदन
ग्रहण करती हूँ उत्तमार्थ सल्लेखना
अब चाहे छिन्न-भिन्न हो जाये तन
विकल्प नहीं मुझे किञ्चित्
मैं हूँ मात्र चेतना,
चारों बहनों ने डरकर
पकड़ लिया साधिका को कसकर
बचाओ... बचाओ... बचाओ...
यूँ जब पुकारा...
तभी आकाश से हुई मेघ गर्जना
साथ ही विद्युत का हुआ उजाला
देख उपासिका को गुरु-भक्ति में लीन
सभी अचानक हो गये विलीन...
आते वक्त आहट नहीं आई
जाते वक्त पदचाप नहीं सुनी
गुरु-कृपा का ही है यह जीवंत चमत्कार
बार-बार कर रहे प्रयास
करने को शस्त्र प्रहार,
किंतु गुरु मंत्र के घेरे में
बनी थी जो सशक्त दीवार!
आश्चर्य यही रहा कि
कर न सका उसमें शस्त्र प्रवेश
वज्र से भी वह अधिक मजबूत थी;
क्योंकि गुरु-कृपा की विशेष ऊर्जा थी
तेरह मिनट की घटना थी यह
ज्ञानधारा को कुछ पल विस्मित कर गई
आखिर कौन थे वह?
यह बात समझ नहीं आई,
किंतु इस घटना में हुआ
जो चमत्कार
इसमें गुरु का ही था पूर्ण आशीर्वाद।
संकटों की बरसात में भी
सम्यक् चिंतन की धारा बहती रहती...
स्वयं के प्रति कठोर
औरों के प्रति मुलायम
ऐसी गुरु की है जीवनशैली
समझ में आया है यह!
खड़ी रख नहीं सकते खाली बोरी को
झुका सकते नहीं भरी बोरी को
इसीलिए
इतने भी मत होना दीन
कि अपने पैरों पर खड़े न हो सकें,
इतना भी मत करना मान
कि गुरु के चरणों में झुक न सकें,
फसल पाने जमीं चाहिए नरम
गुरू-कृपा पाने व्यवहार चाहिए विनम्र
जिसका हृदय है निष्कपट
उसके निश्चित मिट जाते संकट।
सार्थक हो रही पंक्तियाँ यह
इस घटना से
एक गुरु-भक्त पथिक
शिखरजी वंदना को
जा रहा था रेल से...
पानी बरस रहा था जोर से...
शांत मन से करने लगा गुरु-नाम का जाप
निर्विघ्न रास्ता हो पार,
तभी रेल में मच गई हलचल,
जिस लंबे बाँध पर चल रही रेल
टूट रहा वह पुल
सभी अपने-अपने बचाव का सोच रहे साधन,
किंतु भक्त, मन में आस्था ले
कर रहा आराधन।
निश्चिंत था उसका मन;
क्योंकि गुरु-भक्ति में डूबा था चेतन
देखते ही देखते गाड़ी पहुँच गई उस पार
इधर पुल गिरने की आई आवाज़
सबके बच गये प्राण
यह सब प्रभाव था गुरु नाम का!
जो उपयोग रूपी गाड़ी को
बचा लेते हैं विकार की खाई में गिरने से,
भक्ति से भरे भक्त रूपी वाहन को
बचा लेते हैं संसार-समंदर में गिरने से,
तो फिर जड़ वाहन को
गुरु का नाम
बचा ले यदि बहती सरिता से
इसमें अचरज ही क्या?
कर्तव्य करते हुए जो कर्तृत्व नहीं रखते
बाहर में रहकर भी अंतर में रमते;
क्योंकि
देह का राग प्रारंभ में लगता लुभावना
लेकिन अंत है उसका डरावना..
इसीलिए देह राग से उपरत
निराले संत हैं ये विरत!
बात उन दिनों की है
गुरूवर जब पेन्ड्रा में थे
असाता ने दिखाया अपना रूप,
किंतु निर्मोही साधक जानते थे।
निजातम स्वरूप,
लाल-लाल दाने उभर आये पैर पर
वेदना थी भयंकर,
चाकू से घाव को कुरेदने पर
डाला जाये उसमें नमक
पीड़ा होती जितनी
या घाव में चुभाने पर सुई
पीड़ा होती जितनी
उससे भी कई गुना अधिक वेदना
हवा के स्पर्श मात्र से होती...
किंतु कभी आह नहीं भरी मुख से
किसी से कुछ कहा नहीं वचन से,
ज्ञात हुआ अनेकों वैद्य चिकित्सकों से
रोग है यह भयंकर
अग्निमाता कहते हिंदी में
हरपिस कहते अंग्रेजी में
देख तन की पीड़ा
करुणा को भी आ गई करुणा,
किंतु दारुणिक देह-वेदना में भी
सत् की स्वात्म संवेदना में
किञ्चित् भी कमी नहीं आई
आत्म-आराधना में
सम्यक् संयम की साधना में
कहीं से अरुचि नहीं आई।
रात-भर करवट बदलते रहे..
किंतु थे पूर्ण सजग
हर बार परिमार्जन करते थे
एक तो भयानक असाता का संकट
दूसरी ओर चौमासा का समय था निकट,
जो चल नहीं पा रहे पचास कदम
वो कैसे चल पायेंगे पैंतीस मील,
किंतु अमरकंटक की प्रकृति
पुकार रही थी प्रकृति पुरुष को...
हो गये परिचित जो
अमर तत्त्व से
फिर भला क्यों डरे वे
क्षणभंगुर असाता के कंटक से?
बुलाकर समीप शिष्य गणों को
दिया आदेश कि- जो भी साधु हैं बीमार
कर लें कच्चे रास्ते से शीघ्र विहार,
ज्यों ही चले आचार्य भगवंत
जोरों से हुआ जल वर्षण
अनिल-सलिल का योग
बढ़ा देता है यह रोग।
एक तरफ मौसम की प्रतिकूलता
दूसरी असाता से तीव्र वेदना,
भक्त-नयन से बहने लगा झर-झर नीर
प्रकृति के अंत से भी फूट रही पीर...
पार कर पैंतीस मील
जलवृष्टि के साथ ही आ पहुँचे गंतव्य तक।
सैकड़ों बिच्छू एक साथ काटने पर
होती है जो वेदना तन पर
पीड़ा है ऐसी भयंकर...
किंतु अपूर्व चमक है चेहरे पर
देख संत की अस्वस्थ दशा
धरा का कण-कण रो पड़ा...
आचार्य श्री पहुंचे सीधे मंच पर
कहा संचालक ने
बहुत मुश्किल से आये गुरु यहाँ तक
बोले गुरु महाराज
“चल नहीं रहा था मैं
चला रहे थे गुरू मुझे,
ये पैर क्या चढ़ते
इरादों ने चढ़ाया पहाड़ मुझे।”
जलते-जलते अगरबत्ती
छोटी होती जाती है,
परंतु अंत तक
सुगंध नहीं घटती है
कष्टों की भरमार में भी
संत की अनुभूति गहराती गयी
आखिर असाता भी
हरती गयी...
और कुछ ही दिनों में
गुरूदेव का तन स्वस्थ हो गया
भक्तों का मन प्रशस्त हो गया।
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