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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. द्रव्यांश को विषय है अपना बनाता, होता विकल्प श्रुत धारक का सुहाता। माना गया ‘नय' वही श्रुत भेद प्यारा, ज्ञानी वही कि जिसने नय-ज्ञान-धारा ॥६९०॥ एकान्त को यदि पराजित है कराना, भाई तुम्हें प्रथम है 'नय’-ज्ञान पाना। स्याद्वाद-बोध 'नय' के बिन ना निहाला,चाबी बिना नहिं खुले गृह-द्वार-ताला ॥६९१॥ ज्यों चाहता वृष बिना ‘जड़' मोक्ष जाना, किंवा तृषी जल बिना ही तृषा बुझाना। त्यों वस्तु को समझना नय के बिना ही, है चाहता अबुध ही भव-राह राही ॥६९२॥ तीर्थेश का वचन सार द्विधा कहाता, ‘सामान्य' आदिम द्वितीय 'विशेष' भाता। दो द्रव्य पर्ययतया नय हैं उन्हीं के, ये ही यथाक्रम विवेचक भद्र दीखे। भेदोपभेद इनके नय शेष जो भी, तू जान ईदृश सदा तज लोभ लोभी ॥६९३॥ सामान्य को विषय है नय जो बनाता, तो शून्य ही वह 'विशेष' उसे दिखाता। जो जानता नय सदैव विशेष को है, सामान्य शून्य दिखता सहसा उसे है ॥६९४॥ द्रव्यार्थिकी नय सदा इस भाँति गाता, है द्रव्य तो ध्रुव त्रिकाल अबाध भाता। पै द्रव्य है उदित होकर नष्ट होता, पर्याय-आर्थिक सदा इस भाँति रोता ॥६९५॥ द्रव्यार्थि के नयन में सब द्रव्य आते, पर्याय-अर्थिवश पर्यय-मात्र भाते। ‘एक्स्त्रे' हमें हृदय अन्दर का दिखाता, तो 'केमरा' शकल ऊपर की बताता ॥६९६॥ पर्याय गौण कर द्रव्यन को जनाता, द्रव्यार्थिकी नय वही जग में कहाता। जो द्रव्य गौण कर पर्यय को जनाता, पर्याय-आर्थिक वही यह शास्त्र गाता ॥६९७॥ जो शास्त्र में कथित नैगम, संग्रहा रे! है व्यावहार, ऋजु-सूत्र सशब्द प्यारे। एवंभुता समभिरूढ़ उन्हीं द्वयों के, हैं भेद मूल ‘नय' सात, विवाद रोकें ॥६९८॥ द्रव्यार्थिकी सुनय आदिम तीन प्यारे, पर्याय-आर्थिक रहें अवशेष सारे। हैं चार आदिम पदार्थ प्रधान जानो, हैं शेष तीन नय शब्द प्रधान मानो ॥६९९॥ सामान्य ज्ञान इतरोभय रूप ज्ञान, प्रख्यात नैकविध है अनुमान मान। जानें इन्हें सुनय नैगम है कहाता, मानो उसे ‘नयिक ज्ञान' अतः सुहाता ॥७००॥ जो भूत कार्य इस सांप्रत से जुड़ाना, है भूत नैगम वही गुरु का बताना। वर्षों पुरा शिव गए युग वीर प्यारे, मानें तथापि हम 'आज ऊषा' पधारें ॥७०१॥ प्रारम्भ कार्य भर को जन पूछने से, ‘पूरा हुआ' कि कहना सहसा मजे से। ओ वर्तमान नय नैगम नाम पाता, ज्यों पाक के समय ही बस भात भाता ॥७०२॥ होगा, अभी नहिं हुआ फिर भी बताना, लो! कार्य पूरण हुआ रट यों लगाना। भावी ‘सुनैगम यही समझो सुजाना, जैसा उगा रवि न किन्तु उगा बताना ॥७०३॥ कोई विरोध बिन आपस में प्रबुद्ध, सत् रूप से सकल को गहता ‘विशुद्ध'। जात्येक-भेद गहता उनमें ‘अशुद्ध', यों है द्विधा ‘सुनय-संग्रह' पूर्ण सिद्ध ॥७०४॥ संप्राप्त संग्रहतया द्विविधा पदार्थ, जो है प्रभेद करता उसका यथार्थ। ओ 'व्यावहार-नय' भी द्विविधा, स्ववेदी, ‘शुद्धार्थ भेदक' अशुद्ध पदार्थ-भेदी ॥७०५॥ जो द्रव्य में ध्रुव नहीं पल आयुवाली, पर्याय हो 'वियत में बिजली निराली। जाने उसे कि 'ऋजु-सूत्र' सुसूक्ष्म भाता, होता यथा क्षणिक शब्द सुनो सुहाता ॥७०६॥ देवादिपर्यय निजी स्थिति लौं सुहाता, जो देव-रूप उसको तब लौं जनाता। तू मान स्थूल ‘ऋजु-सूत्र' वही कहाता, ऐसा यहाँ श्रमण-सूत्र हमें बताता ॥७०७॥ जो द्रव्य का कथन है करता, बुलाता, आह्वान शब्द वह है जग में सुहाता। तत्-शब्द-अर्थ-भरको नय को गहाता,ओ हेतु ‘तुल्य-नय शब्द' अत: कहाता ॥७०८॥ एकार्थ के वचन में वच लिंग भेद, है देख ‘शब्दनय' ही करताऽर्थ भेद। पुल्लिग में वतिय-लिंगन में सुचारा, ज्यों पुष्य शब्द बनता ‘नख-छत्र तारा' ॥७०९॥ जो शब्द व्याकरण-सिद्ध, सदा उसी में, होता तदर्थ अभिरूढ़ न औ किसी में। स्वीकारना बस उसे उस शब्द द्वारा, है मात्र ‘शब्दनय' का वह काम सारा। ज्यों देव शब्द सुन आशय ‘देव' लेना, भाई तदर्थ गहना तज शेष देना ॥७१०॥ प्रत्येक शब्द अभिरूढ़ स्व-अर्थ में हो, प्रत्येक अर्थ अभिरूढ़ स्वशब्द में हो। है मानता ‘समभिरूढ' सदैव ऐसे, ये शब्द इन्दर, पुरन्दर, शक्र जैसे ॥७११॥ शब्दार्थ रूप अभिरूढ़ पदार्थ ‘भूत’, शब्दार्थ से स्खलित अर्थ अतः ‘अभूत'। ‘एवंभुता सुनय' है इस भाँति गाता, शब्दार्थ तत् पर विशेष अतः कहाता ॥७१२॥ जो-जो क्रिया जन तनादितया करें ओ! तत्-तत् क्रिया गमक शब्द निरे-निरे- हो। ‘एवंभुता नय' अतः उस शब्द का है, सम्यक् प्रयोग करता जब काम का है। जैसा सुसाधु रत साधन में सही हो, स्तोता तभी कर रहा स्तुति स्तुत्य की हो ॥७१३॥
  2. (अ) पञ्चविध ज्ञान संमोह-संभ्रम-ससंशय हीन प्यारा, कल्याण खान वह ज्ञान प्रमाण प्याला। माना गया स्वपर-भाव प्रभाव-दर्शी, साकार नैकविध शाश्वत-सौख्यस्पर्शी ॥६७४॥ सज्ज्ञान पंचविध ही ‘मतिज्ञान' प्यारा, दूजा ‘श्रुतावधि'- तृतीय सुधा सुधारा। चौथा पुनीत ‘मनपर्यय' ज्ञान मानूं, है पांचवाँ परम ‘केवल' ज्ञान-भानू ॥६७५॥ सज्ज्ञान पंच विध ही गुरु गा रहे हैं, लेके सहार जिसका शिव जा रहे हैं। सम्पूर्ण क्षायिक सुकेवल-ज्ञान नामी, चारों क्षयोपशम का अवशेष स्वामी ॥६७६॥ ईहा, अपोह, मति, शक्ति, तथैव संज्ञा, मीमांस, मार्गण, गवेषण और प्रज्ञा। ये सर्व ही ‘अभिनिबोधक ज्ञान' भाई, पूजो इसे बस यही शिव सौख्य-दाई ॥६७७॥ आधार ले विषय का मति के जनाता- जो अन्य द्रव्य 'श्रुत-ज्ञान' वही कहाता। ओ लिंगशब्दज-तया श्रुत ही द्विधा है, होता नितान्त मतिपूर्वक ही सुधा है। है मुख्य शब्दज जिनागम में कहाता, जो भी उसे उर धरे भव पार जाता ॥६७८॥ पाके निमित्त मन इन्द्रिय का, अघारी, होता प्रसूत ‘श्रुत-ज्ञान' श्रुतानुसारी। है आत्म-तत्त्व पर-सम्मुख थापने में, स्वामी! समर्थ श्रुत ही मति जानने में ॥६७९॥ हो पूर्व में ‘मति' सदा, श्रुत' बाद में हो, ना पूर्व में श्रुत कभी, मति बाद में हो। होती ‘पृ' धातु परिपूरण पालने में, हो पूर्व में मति अतः श्रुत पूरणे में ॥६८०॥ सीमा बना समय आदिक की सयाने, रूपी पदार्थ भर को इकदेश जाने। जो ख्यात भाव-गुण प्रत्यय से ससीमा, माना गया 'अवधिज्ञान' वही सुधीमान् ॥६८१॥ है चित्त चिंतित अचिंतित चिंतता है, या सार्ध-चिंतित नृलोकन में यहाँ है। जो जानता बस उसे शिव सौख्य दाता, प्रत्यक्ष ज्ञान ‘मनपर्यय' नाम पाता ॥६८२॥ शुद्धैक औ अब अनन्त विशेष आदि, ये अर्थ हैं सकल केवल के अनादि। ‘कैवल्य ज्ञान' इन सर्व-विशेषणों से, शोभे अत: भज उसे, बच दुर्गुणों से ॥६८३॥ जो एक साथ सहसा बिन रोक-टोक, है जानता सकल लोक तथा अलोक। ‘कैवल्य-ज्ञान', जिसको नहिं जानता हो, ऐसा गतागत अनागत भाव ना हो ॥६८४॥ (आ) परोक्ष प्रमाण वस्तुत्व को नित नितान्त अबाध भाता, सम्यक्तया सहज ज्ञान उसे जनाता। होता प्रमाण वह ज्ञान अतः सुधा है, ‘प्रत्यक्ष पावन परोक्षतया' द्विधा है ॥६८५॥ ये धातु दो अशु तथा अश जो कहाती, व्याप्त्यर्थ में अशन में क्रमशः सुहाती। है अक्ष शब्द बनता सहसा इन्हीं से, ऐसा सदा समझ तू, नहिं औ किसी से ॥ है जीव अक्ष जग वैभव भोगता है, सर्वार्थ में सहज व्याप सुशोभता है। तो अक्ष से जनित ज्ञान वही कहाता, ‘प्रत्यक्ष' है त्रिविध, आगम यों बताता ॥६८६॥ द्रव्येन्द्रियाँ मनस पुद्गलभाव धारें, है अक्ष से इसलिए अति भिन्न न्यारे। संजात ज्ञान इनसे वह ठीक वैसा, होता ‘परोक्ष' बस लिंगज ज्ञान जैसा ॥६८७॥ होते परोक्ष मति औ श्रुत जीव के हैं, औचित्य हैं परनिमित्तक क्योंकि वे हैं। किंवा अहो परनिमित्तक हो न कैसे? हो प्राप्त-अर्थ-स्मृति से अनुमान जैसे ॥६८८॥ होता परोक्ष श्रुत लिंगज ही, महान, प्रत्यक्ष हो अवधि आदिक तीन ज्ञान। स्वामी! प्रसूत मति, इंद्रिय चित्त से जो, “प्रत्यक्ष संव्यवहरा' उपचार से हो ॥६८९॥
  3. जो विश्व के विविध कार्य हमें दिखाते, भाई बिना हि जिसके चल वे न पाते। नैकान्तवाद वह है जगदेक-स्वामी, वंदूं उसे विनय से शिव-पन्थगामी ॥६६०॥ आधार द्रव्य गुण का इक द्रव्य का ही, आधार ले गुण लसे, शिव राह राही। पर्याय द्रव्य गुण आश्रित हैं कहाते, ये वीर के वचन ना जड़ को सुहाते ॥६६१॥ पर्याय के बिन कहीं नहिं द्रव्य पाता, तो द्रव्य के बिन न पर्यय भी सुहाता। उत्पाद-ध्रौव्य-व्यय लक्षण ‘द्रव्य' का है, यों जान, लाभ झट लूँ निज द्रव्य का मैं ॥६६२॥ उत्पाद भी न व्यय के बिन दीख पाता, उत्पाद के बिन कहीं व्यय भी न भाता। उत्पाद और व्यय ना बिन धौव्य के हो, विश्वास ईदृश न किन्तु अभव्य के हो ॥६६३॥ उत्पाद ध्रौव्य व्यय हो इन पर्ययों में, हो द्रव्य में नहिं तथा उसके गुणों में। पर्याय हैं नियत द्रव्यमयी, तभी हैं, वे द्रव्य ही कह रहे गुरु यों सभी हैं ॥६६४॥ है एक ही समय में त्रय भाव ढोता, उत्पाद-ध्रौव्य-व्यय धारक द्रव्य होता। तीनों अतः नियत द्रव्य यथार्थ में हैं, योगी कहें रत स्वकीय पदार्थ में हैं ॥६६५॥ पर्याय एक नशती जब लौं जहाँ है, तो दूसरी उपजती तब लौं वहाँ है। पै द्रव्य है ध्रुव त्रिकाल अबाध भाता, ना जन्मता न मिटता यह शास्त्र गाता ॥६६६॥ पौरुष्य तो पुरुष में इक सार पाता, ले जन्म से मरण लों नहिं छोड़ जाता। वार्धक्य औ शिशु किशोर युवा दशायें, पर्याय हैं जनमतीं मिटतीं सदा ये ॥६६७॥ पर्याय जो सदृश द्रव्यन की सुहाती, ‘सामान्य' नाम वह निश्चित धार पाती। पर्याय हो विसदृशा वह हो ‘विशेषा', ये द्रव्य को तज नहीं रहती निमेषा ॥६६८॥ सामान्य और सविशेष द्विधर्म वाला, हो द्रव्य ज्ञान जिसको लखता सुचारा। सम्यक्त्व का वह सुसाधक बोध होता, मिथ्यात्व मित्र! अपवित्र कुबोध होता ॥६६९॥ हो एक ही पुरुष भानज तात भाई, देता वही सुत किसी नय से दिखाई। पै भ्रात तात सुत ओ सबका न होता, है वस्तु-धर्म इस भाँति अशांति खोता ॥६७०॥ जो निर्विकल्प सविकल्प द्विधर्म वाला, है शोभता नर मनो शशि हो उजाला। एकान्त से यदि उसे इक धर्मधारी, जो मानता वह न आगम-बोध-धारी ॥६७१॥ पर्याय नैक विध यद्यपि हो तथापि, भाई विभाजित उन्हें न करो कदापि। वे क्षीर नीर जब आपस में मिलेंगे, ओ 'नीर' 'क्षीर' यह यों फिर क्या कहेंगे? ॥६७२॥ नि:शंक हो समय में तज मान सारा, स्याद्वाद का विनय से मुनि ले सहारा। भाषा द्विधाऽनुभय सत्य सदैव बोले, निष्पक्ष-भाव धर शास्त्र रहस्य खोले ॥६७३॥
  4. है वस्तुतः यह अकृत्रिम लोक भाता, आकाश का हि इक भाग अहो! कहाता। भाई अनादि अविनश्वर नित्य भी है, जीवादि द्रव्य दल पूरित पूर्ण भी है ॥६५१॥ पा योग अन्य अणु का अणु स्कन्ध होता, है स्निग्ध रूक्ष गुण धारक चूंकि होता। ना शब्द रूप अणु है, इक देशधारी, प्रत्यक्ष ज्ञान लखता 'अणु' निर्विकारी ॥६५२॥ ये सूक्ष्म स्थूल द्वयणुकादिक स्कन्ध सारे, पृथ्वी-जलाग्नि-मरुतादिक रूप धारे। कोई इन्हें न ऋषि ईश्वर ही बनाते, पै स्वीय शक्ति-वश ही बनते सुहाते ॥६५३॥ सूक्ष्मादि स्कन्ध दल से त्रय लोक सारा, पूरा ठसाठस भरा प्रभु ने निहारा। है योग स्कन्ध उनमें विधि रूप पाने, होते अयोग्य कुछ हैं समझो सयाने ॥६५४॥ ज्यों जीव के विकृत-भाव निमित्त पाती, वे वर्गणा विधिमयी विधि हो सताती। आत्मा उन्हें न विधि रूप हठात् बनाता, होता स्वभाववश कार्य सदा दिखाता ॥६५५॥ रागादि से निरखता यदि जानता है, पंचाक्ष के विषय को मन धारता है। रंजायमान उसमें वह ही फँसेगा, दुष्टाष्ट-कर्म मल में चिर ओ लसेगा ॥६५६॥ सर्वत्र हैं विपुल हैं विधि वर्गणायें, आकीर्ण पूर्ण जिनसे कि दशों दिशाएँ। वे जीव के सब प्रदेशन में समाते, रागादिभाव जब जीव सुधार पाते ॥६५७॥ ज्यों राग-रोष-मय भाव स्वचित्त लाता, है मूढ़ पामर शुभाशुभ कर्म पाता। होता तभी वह भवान्तर को रवाना, ले साथ ही नियम से विधि के खजाना ॥६५८॥ प्राचीन कर्म-वश देह नवीन पाते, संसारिजीव पूनि कर्म नये कमाते। यों बार-बार कर कर्म दुखी हुए हैं, वे कर्म-बंध तज सिद्ध सुखी हुए हैं ॥६५९॥ दोहा ‘तत्त्व दर्शन' यही रहा, निज दर्शन का हेतु। जिन-दर्शन का सार है भवसागर का सेतु ॥
  5. ये जीव, पुद्गल ख, धर्म, अधर्म, काल, होते जहाँ समझ 'लोक' उसे विशाल। आलोक से सकल लोक अलोक देखा, यों ‘वीर' ने सदुपयोग दिया सुरेखा ॥६२४॥ आकाश, पुद्गल, अधर्म, व धर्म, काल, चैतन्य से विकल हैं सुन भव्य बाल! होते अतः सब ‘अजीव' सदीव भाई, लो! 'जीव' में उजल चेतना सुहाई ॥६२५॥ ये पाँच द्रव्य, नभ, धर्म, अधर्म, काल, औ जीव शाश्वत अमूर्तिक हैं निहाल। है मूर्त पुद्गल सदा सब में निराला, है जीव चेतन-निकेतन बोधशाला ॥६२६॥ ये जीव पुद्गल जु सक्रिय द्रव्य दो हैं, तो शेष चार सब निष्क्रिय द्रव्य जो हैं। कर्माभिभूत-जड़ पुद्गल से क्रियावान्, है जीव,कालवश पुद्गल है क्रियावान् ॥६२७॥ है एक एक नभ, धर्म, अधर्म तीनों, तो शेष शाश्वत अनंत अनंत तीनों। हैं वस्तुतः सब स्वतंत्र स्वलीन होते, ऐसा जिनेश कहते वसु-कर्म खोते ॥६२८॥ है धर्म औ वह अधर्म त्रिलोक-व्यापी, आकाश तो सकल लोक-अलोक व्यापी। है मर्त्य लोक भर में व्यवहार काल, सर्वज्ञ के वचन हैं सुन भव्य बाल ॥६२९॥ देते हुए श्रय परस्पर में मिले हैं, ये सर्व-द्रव्य पय शक्कर से घुले हैं। शोभे तथापि अपने-अपने गुणों से, छोड़े नहीं निज स्वभाव युगों-युगों से ॥६३०॥ है स्पर्श, रूप, रस, गंध विहीन स्थाई, है खण्ड-खण्ड नहिं पूर्ण अखण्ड भाई। हैं लोक पूर्ण सुविशाल असंख्य देशी, धर्मास्तिकाय वह है सुन तू हितैषी ॥६३१॥ त्यों धर्म जीव जड की गति में सहाई, ज्यों मीन के गमन में जल होय भाई। औदास्य भाव धरता नहिं प्रेरणा है, धर्मास्तिकाय यह है जिन-देशना' है ॥६३२॥ धर्मास्तिकाय खुद ना चलता चलाता, पै प्राणि पुद्गल चले, गति है दिलाता। होता न प्रेरक निमित्त तथापि भाई, ज्यों रेल के गमन में पटरी सहाई ॥६३३॥ है धर्म-द्रव्य उस भाँति अधर्म द्रव्य, कोई क्रिया न करता सुन भद्र! भव्य! औदास्य-भाव धरती-सम धार लेता, ज्यों प्राणि पुद्गल रुकें स्थिति-दान देता ॥६३४॥ आकाश व्यापक अचेतन भावधाता, होता पदार्थ दल का अवगाहदाता। भाई अमूर्त नभ के फिर भेद दो हैं, है एक लोक, इक दीर्घ अलोक सो है ॥६३५॥ जीवादि द्रव्य छह ये मिलते जहाँ हैं, माना गया अमित लोक यही यहाँ है। आकाश केवल अलोक वही कहाता, यों ठीक-ठीक यह छंद हमें बताता ॥६३६॥ है स्पर्श रूप रस गंध विहीन होता, संवर्तनामय सुलक्षण जो कि ढोता। है धारता गुण सदा अगुरूलघू को, है काल स्वीकृत यही जग के प्रभु को ॥६३७॥ है हो रहा नित अचेतन पुद्गलों में, धारा-प्रवाह परिवर्तन चेतनों में। वो काल का बस अनुग्रह तो रहा है, वैराग्य का परम कारण हो रहा है ॥६३८॥ घण्टा निमेष समयावलि आदि देखो, होते प्रभेद जिसमें सहसा अनेकों। होता वही समय में व्यवहार काल, है वीतराग जिन का मत है निहाल ॥६३९॥ दो भेद, ‘स्कन्ध', 'अणु' पुद्गल के पिछानो, हैं स्कन्ध भेद छह,दो अणु के सुजानो। है कार्य रूप अणु, कारण रूप दूजा, पै चर्म चक्षु अणु, की करती न पूजा ॥६४०॥ है स्थूल-स्थूल, फिर स्थूल, व स्थूल सूक्ष्म, औ सूक्ष्म स्थूल पुनि सूक्ष्म सुसूक्ष्म-सूक्ष्म। भू, नीर, आतप, हवा, विधि-वर्गणायें, ये हैं उदाहरण स्कन्धन के गिनाये ॥६४१॥ किंवा धरा, सलिल, लोचन-गम्य छाया, नासादि के विषय पुद्गल कर्म माया। अत्यन्त सूक्ष्म परमाणु, छहों यहाँ ये, हैं स्कन्ध भेद पुद्गल के बताये ॥६४२॥ जो द्रव्य होकर न इन्द्रिय-गम्य होता, है आदि-मध्य अरु अन्त विहीन होता। है एक देश रखता अविभाज्य भाता, ऐसा कहें 'जिन' यही परमाणु गाथा ॥६४३॥ जो स्कन्ध में वह क्रिया अणु में इसी से, तू जान पुद्गल सदा 'अणु' को खुशी से। स्पर्शादि चार गुण पुद्गल धार पाता, है पूरता पिघलता पर स्पष्ट भाता ॥६४४॥ ओ जीव है, विगत में चिर जी चुका है, जो चार प्राण धर के अब जी रहा है। आगे इसी तरह जीवन जी सकेगा, उच्छ्वास-आयु-बल-इन्द्रिय पा लसेगा ॥६४५॥ विस्तार संकुचन शक्तितया शरीरी, छोटा बड़ा तन प्रमाण दिखे विकारी। पै छोड़ के समुद्धात दशा हितैषी, हैं वस्तुतः सकल जीव असंख्य-देशी ॥६४६॥ ज्यों दूध में पतित माणिक दूध को ही, हैं लाल-लाल करता सुन मूढ़-मोही। त्यों जीव देह स्थित हो निज देह को ही, सम्यक् प्रकाशित करें नहिं अन्य को ही ॥६४७॥ आत्मा तथापि वह ज्ञान प्रमाण भाता, है ज्ञान भी सकल ज्ञेय प्रमाण साता। है ज्ञेय तो अमित लोक अलोक सारा, भाई अत: निखिल व्यापक ज्ञान प्यारा ॥६४८॥ ये जीव हैं द्विविध, चेतन-धाम सारे, संसारि मुक्त द्विविधा उपयोग धारें। ‘संसारि-जीव' तनधारक हैं दुखी हैं, हैं‘मुक्त-जीव' तन-मुक्त तभी सुखी हैं॥६४९॥ पृथ्वी जलानल समीर तथा लतायें, एकाक्ष जीव सब स्थावर ये कहायें। हैं धारते करण दो, त्रय, चार, पाँच, शंखादि जीव त्रस हैं करते प्रपंच ॥६५०॥
  6. *संयम स्वर्ण महोत्सव समापन समारोह आमंत्रण* आचार्य गुरुवर विद्यासागर जी महाराज की दीक्षा के 50 वर्ष पूर्ण होने पर मनाए जाने वाले, संयम स्वर्ण महोत्सव के समापन अवसर पर आयोजित, *नेपथ्य के नायकों का सम्मान सत्र 17 जुलाई 2018 को खजुराहो मध्य प्रदेश में प्रस्तावित है* , यह सम्मान देश के उन नायकों को दिया जा रहा है जो सामाजिक ,सांस्कृतिक एवं आर्थिक क्षेत्र में क्रांतिकारी बदलाव ला रहे हैं, भारी मात्रा में शामिल होकर कार्यक्रम की गरिमा को दुगुना करें संयम स्वर्ण महोत्सव का समापन समारोह आषाढ़ शुक्ल पंचमी, मंगलवार, 17 जुलाई 2018 इस पावन दिवस पर हम सबके आराध्य परम पूज्य आचार्य भगवंत श्री विद्यासागर जी महाराज की मुनि दीक्षा के ५०वर्ष पूर्ण होने पर होगा संयम स्वर्ण महोत्सव का समापन और होगा ५१वें दीक्षा दिवस का आराधन. आइये हम सभी मिलकर गुरुदेव की चरणरज को स्पर्श करने चलते हैं. “होंगे विराजमान वे जहाँ, हम सब पहुंचेंगे वहाँ |” कार्यक्रम स्थल : खजुराहो नोट: कार्य क्रम की सूचना आपकी अपनी लोकप्रिय वेबसाइट विद्यासागर.गुरु मिलेगी, कृपया नियमित रूप से देखते रहें |
  7. मुंबई. 4 जुलाई 2018. सुप्रसिद्ध जैन संत आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज की दीक्षा के 50 वें वर्ष को देशभर का जैन समाज ‘संयम स्वर्ण महोत्सव’ के रूप में पिछले एक वर्ष से विभिन्न आयोजनों के माध्यम से मना रहा है, इसी कड़ी में पिछले वर्ष ‘राष्ट्रीय संयम स्वर्ण महोत्सव समिति’ ने जुलाई २०१७ में “संयम स्वर्ण महोत्सव वर्ष २०१७-१८” के अंतर्गत हरित जैन तीर्थ अभियान का संकल्प पारित किया था और लक्ष्य रखा था कि अगले 5 वर्षों में प्रमुख तीर्थ स्थानों पर 5 लाख पेड़ लगाए जाएँगे । इस अभियान के अंर्तगत अनेक तीर्थस्थानों और मंदिर परिसरों में बड़ी संख्या में वृक्षारोपण किया गया था और इस साल आगामी आषाढ़ शुक्ल पंचमी अर्थात 17 जुलाई 2018 को आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज की दीक्षा के 50 वर्ष पूर्ण हो रहे हैं और उनका 51 वाँ दीक्षा दिवस देशभर में मनाया जाएगा, विभिन्न राज्यों के जैन धर्मावलम्बियों ने अपने स्तर अनेक धार्मिक आयोजनों और सामाजिक हित के काम करने की योजना बना रखी है, ऐसे समय में वृक्षारोपण अभियान को नाम दिया गया है “विद्या तरु/विद्या-वाटिका” वृक्षारोपण अभियान। समिति के गौरव अध्यक्ष श्री अशोक पाटनी (आरके मार्बल्स) ने एक अपील जारी कर भारत के समस्त तीर्थ क्षेत्रों के न्यासियों एवं पदाधिकारियों अनुरोध किया है कि लोग जुलाई 2018 के इस महीने में अपने आसपास के तीर्थ क्षेत्रों, मंदिरों, धर्मशालाओं और संस्थानों के परिसरों में वृक्षारोपण का कार्यक्रम आयोजित करें । उन्होंने आगे कहा है कि देशभर में वर्षा आरंभ हो चुकी है और यही वृक्षारोपण का सही समय है। इस अपील का व्यापक असर हुआ है और विभिन्न तीर्थक्षेत्रों पर बड़ी संख्या में वृक्षारोपण शुरू भी हो चुका है. मध्यप्रदेश के दमोह जिले में स्थित सुप्रसिद्ध दिगम्बर जैन तीर्थक्षेत्र कुण्डलपुर से गौरव जैन ने जानकारी दी है कि भारी वर्षा के पीछे कुण्डलपुर के पर्वत पर वृक्षारोपण का कार्य शुरू कर दिया गया है और अब तक 500 पौधों का रोपण कर दिया गया, अगले एक माह में आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज की 51 वें दीक्षा के उपलक्ष्य में 5100 पेड़ कुण्डलपुर पर्वत लगा दिए जाएँगे, उन्होंने बताया कि विभिन्न संस्थानों, युवक मंडलों, महिला मंडलों के सदस्य इस वृक्षारोपण में भाग ले रहे हैं. नवोदित दिगम्बर जैन तीर्थक्षेत्र डोंगरगढ़ से सुधीर जैन ने सूचना दी है कि क्षेत्र पर वृक्षारोपण की तैयार चल रही है और इस वर्ष क्षेत्र पर 1500 पौधे रोप जाएँगे, पिछले वर्ष भी यहाँ लगभग 2000 वृक्ष लगाये गए थे. सागर जिले के भाग्योदय तीर्थ चिकित्सालय से ब्र. श्री मिहिर जैन ने बताया है कि उन्होंने इस अभियान के अंतर्गत 500 पौधों का रोपण चिकित्सालय परिसर में करवाया है. कटनी के पास स्थित श्री बहोरीबंद तीर्थक्षेत्र से लोकप्रिय कवि श्री अजय अहिंसा ने अवगत कराया है कि बहोरीबंद में पिछले साल ही विद्या वाटिका का निर्माण किया गया है जिसमें 400 पौधे रोप गए थे, इस वर्ष पौधे लगाने की उनकी योजना है. भारत भर के जैन तीर्थ स्थानों से इस वृक्षारोपण अभियान को शुरू करने के समाचार आ रहे हैं. “हरित तीर्थ अभियान” अब केवल जैन तीर्थों तक सीमित नहीं रह गया है, अन्य समाज के लोग भी इससे प्रेरणा लेकर इस अभियान को देश व्यापी अभियान की शक्ल देना चाहते हैं. अब तक हम लोग हरित गाँव, हरित शहर, हरित विद्यालय जैसे अभियानों के बारे में खूब सुनते थे, पहली बार किसी ने “हरित तीर्थ” का नारा दिया है. जैन समाज के लोग पर्यावरण के प्रति जागरुक हैं जो उन्होंने तीर्थ स्थलों के लिए “हरित तीर्थ अभियान” आरम्भ किया है, यदि देश भर के सभी सम्प्रदायों के लोग इस अभियान से जुड़ जाएँ और अपने-२ तीर्थ स्थानों की हरियाली लौटाने का बीड़ा उठा लें तो अल्प समय में ही भारत के सभी धर्मों के तीर्थ स्थल हरे भरे हो जाएँगे. कुंडलपुर में जारी वृक्षारोपण के चित्र संलग्न हैं। प्रवीण कुमार जैन संयुक्त सचिव, ‘राष्ट्रीय संयम स्वर्ण महोत्सव समिति’ अणु डाक: cs.praveenjain@gmail.com चलभाष: 98199-83708
  8. अल्पज्ञ मूढ़ जन ही भजते अविद्या, होते दुखी, नहिं सुखी तजते सुविद्या। हो लुप्त गुप्त भव में बहुबार तातैं, कल्लोल ज्यों उपजते सर में समाते ॥५८८॥ रागादि-भाव भर को अघ-पाश माने, वित्तादि वैभव महा-दुख खान जानें। औ सत्य तथ्य समझे, जग प्राणियों में, मैत्री रखें, बुध सदैव चराचरों में ॥५८९॥ जो ‘शुद्धता' परम 'द्रव्य स्वभाव' स्थाई, है ‘पारमार्थ' 'अपरापर ध्येय' भाई। औ वस्तु तत्त्व, सुन ये सब शब्द प्यारे, हैं भिन्न-भिन्न पर आशय एक धारें ॥५९०॥ होते पदार्थ नव, जीव अजीव न्यारा, है पुण्य-पाप, विधि आस्रव बंध खारा। आराध्य हैं सुखद संवर निर्जरा हैं, आदेय हैं परम मोक्ष यही खरा है ॥५९१॥ है 'जीव' शाश्वत अनादि अनंत ज्ञाता, भोक्ता तथा स्वयम की विधि का विधाता। स्वामी सचेतन तभी तन से निराला, प्यारा अरूप उपयोगमयी निहाला ॥५९२॥ भाई कभी अहित से डरता नहीं है, उद्योग भी स्वहित का करता नहीं है। जो बोध, दुःख सुख का रखता नहीं है, है मानते मुनि, ‘अजीव' उसे सही है ॥५९३॥ आकाश पुद्गल व धर्म, अधर्म काल, ये हैं 'अजीव' सुन तू अयि भव्य बाल। रूपादि चार गुण पुद्गल में दिखाते, है मूर्त पुद्गल, न शेष, अमूर्त भाते ॥५९४॥ आत्मा अमूर्त नहिं इन्द्रिय-गम्य होता, होता तथापि नित, नूतन ढंग ढोता। है आत्म की कुलषता विधि बन्ध हेतु, संसार हेतु विधि बन्धन जान रे! तू ॥५९५॥ जो राग से सहित है वसु कर्म पाता, होता विराग भवमुक्त अनन्त-ज्ञाता। संसारि-जीव भर की विधि बन्ध गाथा, संक्षेप में समझ क्यों रति गीत गाता ॥५९६॥ मोक्षाभिलाष यदि है तज राग रागी, नीराग भाव गह ले, बन वीतरागी। ऐसा हि भव्य-जन शाश्वत सौख्य पाते, शीघ्रातिशीघ्र भव-वारिधि तैर जाते ॥५९७॥ है पाप-पुण्य विधि दो विधि बंध हेतु, रे जान निश्चित शुभाशुभ भाव को तू। हैं धारते अशुभ तीव्र कषाय वाले, शोभे सुधार 'शुभ' मन्द कषाय वाले ॥५९८॥ धारें क्षमा खलजनों कटुभाषियों में, लेवें नितान्त गुण शोध सभी जनों में। बोलें सदैव प्रिय बोल उन्हीं जनों के, ये हैं उदाहरण मन्दकषायियों के ॥५९९॥ जो वैर-भाव रखना चिर, साधुओं में, प्रादोष को निरखता गुणधारियों में। शंसा स्वकीय करना उन पापियों के, ये चिह्न हैं परम तीव्र कषायियों के ॥६००॥ जो राग-रोष-वश मत्त बना भिखारी, आधीन इन्द्रिय निकायन का विकारी। है अष्ट-कर्म करता त्रय-योग द्वारा, कैसे खुले? फिर उसे वर-मुक्ति द्वारा ॥६०१॥ हिंसादि पंच-विध आस्रव द्वार द्वारा, होता सदैव विधि आस्रव है अपारा। आत्मा भवाम्बु-निधि में तब डूब जाती, नौका सछिद्र,जल में कब तैर पाती ॥६०२॥ हो वात से सरसि शीघ्र तरंगिता ज्यों, वाक्काय से मनस से यह आतमा त्यों। त्रैलोक्य-पूज्य 'जिन' ‘योग’ उसे बताते, वे योग-निग्रहतया जग जान जाते ॥६०३॥ ज्यों-ज्यों त्रियोग रुकते-रुकते चलेंगे, त्यों-त्यों नितान्त विधि आस्रव भी रुकेंगे। संपूर्ण योग रुक जाय न कर्म आता, क्या पोत में विवर के बिन नीर जाता? ॥६०४॥ मिथ्यात्व और अविरती कुकषाय योग, ये चार आस्रव इन्हीं वश दुःखयोग। सम्यक्त्व संयम, विराग त्रियोगरोध, ये चार संवर, जगे इनसे स्वबोध ॥६०५॥ हो बन्द, पोतगत छेद सभी सही है, पानी प्रवेश करता उसमें नहीं है। मिथ्यात्व आदि मिटने पर शीघ्रता से, हो कर्म संवर निजातम साम्यता से ॥६०६॥ रोके नितान्त जिनने विधि-द्वार सारे, होते जिन्हें निज-समा जग-जीव प्यारे। वे संयमी परम संवर को निभाते, है पापरूप विधि-बन्धन को न पाते ॥६०७॥ मिथ्यात्व रूप विधि-द्वार खुले न भाई, तू शीघ्र से दृग कपाट लगा भलाई। हिंसादि द्वार, व्रतरूप कपाट द्वारा, हे भव्य! बन्द कर दे, सुख पा अपारा ॥६०८॥ होता जलास्रव जहाँ तुम बाँध डालो, आये हुये सलिल बाद निकाल डालो। तालाब में जल लबालब हो भले ही, ओ सूखता सहज से पल में टले ही ॥६०९॥ हो संयमी परम-आतम शोधता है, संपूर्ण पापविधि आस्रव रोकता है। निर्धान्त कोटि-भव संचित कर्म सारे, होते विनष्ट तप से क्षण में विचारे ॥६१०॥ पाये बिना परम संवर को तपस्वी, पाता न मोक्ष तप से कहते मनस्वी। आता रहा सलिल बाहर से सदा ओ, क्या सूखता सर कभी? तुम ही बताओ ॥६११॥ है कर्म नष्ट करता जितना वनों में, जो अज्ञ धार तप, कोटि भवों भवों में। ज्ञानी निमेष भर में त्रय गुप्ति द्वारा, है कर्म नष्ट करता उतना सुचारा ॥६१२॥ होता विनष्ट जब मोह अशांतिदाई, तो शेष कर्म सहसा नश जाय भाई। सेनाधिनायक भला रण में मरा हो, सेना कभी बच सके?न बचे जरा ओ ॥६१३॥ लोकान्त लों गमन है करता सुहाता, है सिद्ध कर्ममलमुक्त, निजात्म-धाता। सर्वज्ञ हो लस रहा नित सर्वदर्शी, होना अतीन्द्रिय अनन्त प्रमोद स्पर्शी ॥६१४॥ संप्राप्त जो सुख, सुरों असुरों नरों को, औ भोग भूमिज-जनों अहमिंद्रकों को। ओ मात्र बिन्दु, जब सिद्धन का सुसिंधु, खद्योत-ज्योति इक है, इक पूर्ण इन्दु ॥६१५॥ संकल्प तर्क न जहाँ मन ही मरा है, न ओज तेज, मल की न परंपरा है। संमोह का क्षय हुआ फिर खेद कैसे? ना शब्द गम्य वह मोक्ष दिखाय कैसे ॥६१६॥ बाधा न जीवित जहाँ कुछ भी न पीड़ा, आती न गन्ध सुख की दुख से न क्रीड़ा। ना जन्म है मरण है जिसमें दिखाते, ‘निर्वाण' जान वह है गुरु यों बताते ॥६१७॥ निद्रा न मोहतम विस्मय भी नहीं है, ये इन्द्रियाँ जड़मयी जिसमें नहीं है। बाधा कभी न उपसर्ग तृषा क्षुधा है, निर्वाण में सुखद बोधमयी सुधा है ॥६१८॥ चिन्ता नहीं उपजती चिति में जरा सी, नोकर्म भी नहिं, नहीं वसु-कर्म राशि। होते जहाँ नहिं शुभाशुभ ध्यान चारों, निर्वाण है वह रहा तुम यों विचारो ॥६१९॥ कैवल्य बोध सुख-दर्शन-वीर्य वाला, आत्मा प्रदेशमय मात्र अमूर्त शाला। निर्वाण में निवसता निज-नीतिधारी, अस्तित्व से विलसता जग-आर्त्तहारी ॥६२०॥ पाते महर्षि ऋषि सन्त जिसे, वही है, निर्वाण सिद्धि शिव ‘मोक्ष' मही सही है। लोकाग्र में सुख अबाधक, क्षेम प्यारा, वंदें उसे विनय से बस बार-बारा ॥६२१॥ एरण्ड बीज सहसा जब सूख जाता, है ऊर्ध्व ही नियम से उड़ता दिखाता। हो पंक-लिप्त जल में वह डूब जाती, तुम्बी सपंक तजती द्रुत ऊर्ध्व आती ॥ छूटा हुआ धनुष से जिस भाँति बाण, हो पूर्व योग वश हो गतिमान। ‘श्री सिद्ध' जीवगति भी उस भांति होती ,धूमाग्नि की गति-समा वह ऊर्ध्व होती ॥६२२॥ आकाश से निरवलम्ब अबाध प्यारे, वे सिद्ध हैं अचल, नित्य, अनूप सारे। होते अतीन्द्रिय पुनः भव में न आते, हैं पुण्य-पाप-विधि-हीन मुझे सुहाते ॥६२३॥
  9. भाई सुनो तन अचेतन दिव्य नौका, तो जीव नाविक सचेतन है अनोखा। संसार-सागर रहा दुख पूर्ण खारा, हैं तैरते ऋषि-महर्षि जिसे सुचारा ॥५६७॥ है लक्ष्य बिन्दु यदि शाश्वत सौख्य पाना, जाना मना विषय में मन को घुलाना। दे देह को उचित वेतन तू सयाने, पाने स्वकीय सुख को, विधि को मिटाने ॥५६८॥ क्या धीर, कापुरुष, कायर क्या विचारा, हो काल का कवल लोक नितान्त सारा। है मृत्यु का यह नियोग, नहीं टलेगा, तो धैर्य धार मरना, शिव जो मिलेगा ॥५६९॥ ओ एक ही मरण है मुनि पंडितों का, है आशु नाश करता शतशः भवों का। ऐसा अतः मरण हो जिससे तुम्हारा, जो बार-बार मरना, मर जाय सारा ॥५७०॥ पाण्डित्य-पूर्ण मृति, पण्डित साधु पाता, निर्धान्त हो अभय हो भय को हटाता। तो एक साथ मरणोदधिपूर्ण पीता, मृत्युंजयी बन तभी चिरकाल जीता ॥५७१॥ वे साधु पाश समझे लघु दोष को भी, हो दोष ताकि न, चले रख होश को भी। सद्धर्म और सधने तन को संभालें, हो जीर्ण-शीर्ण तन, त्याग स्वगीत गा लें ॥५७२॥ दुर्वार रोग तन में न जरा घिरी हो, बाधा पवित्र व्रत में नहिं आ परी हो। तो देह-त्याग न करो, फिर भी करोगे, साधुत्व त्याग करके, भव में फिरोगे ॥५७३॥ ‘सल्लेखना' सुखद है सुख है सुधा है, जो अंतरंग-बहिरंग-तया द्विधा है। आद्या, कषाय क्रमशः कृश ही कराना, है दूसरी बिन व्यथा तन को सुखाना ॥५७४॥ काषायिकी परिणती सहसा हटाते, आहार अल्प कर लें क्रमशः घटाते। सल्लेखना व्रत सुधारक रुग्ण हों वे, तो पूर्ण अन्न तज दें, अति अल्प सोवें ॥५७५॥ एकान्त प्रासुक धरा, तृण की चटाई, संन्यस्त के मृदुल संस्तर ये न भाई। आदर्श तुल्य जिसका मन हो उजाला, आत्मा हि संस्तर रहा उसका निहाला ॥५७६॥ हाला तथा कुपित नाग कराल काला, या भूत, यंत्र, विष निर्मित बाण भाला। होते अनिष्ट उतने न प्रमादियों के, निम्नोक्त भाव जितने शठ साधुओं के ॥५७७॥ सल्लेखना समय में तजते न माया, मिथ्या-निदान त्रय को मन में जमाया। वे साधु आशु नहिं दुर्लभ बोधि पाते, पाते अनन्त दुख ही भव को बढ़ाते ॥५७८॥ मायादि-शल्य-त्रय ही भव-वृक्ष-मूल, काटें उसे मुनि सुधी अभिमान भूल। ऐसे मुनीश पद में नतमाथ होऊँ, पाऊँ पवित्र पद को शिवनाथ होऊँ ॥५७९॥ भोगाभिलाष समवेत कुकृष्णलेश्या, हो मृत्यु के समय में जिसको जिनेशा। मिथ्यात्व कर्दम फँसा उस जीव को ही, हो बोधि दुर्लभतया, तज मोह मोही ॥५८०॥ प्राणांत के समय में शुचि शुक्ल लेश्या, जो धारता, तज नितान्त दुरन्त क्लेशा। सम्यक्त्व में निरत नित्य,निदान त्यागी, पाता वही सहज बोधि बना विरागी ॥५८१॥ सद्बोधी की यदि तुम्हें चिर कामना हो, ज्ञानादि की सतत सादर साधना हो। अभ्यास रत्नत्रय का करता, उसी को, आराधना वरण है करती सुधी को ॥५८२॥ ज्यों सीखता प्रथम, राजकुमार नाना- विद्या कला, असि-गदादिक को चलाना। पश्चात् वही कुशलता बल योग्य पाता, तो धीर जीत रिपु को, जय लूट लाता ॥५८३॥ अभ्यास भूरि करता शुभ ध्यान का है, लेता सदैव यदि माध्यम साम्य का है। तो साधु का सहज हो मन शान्त जाता, प्राणान्त के समय ध्यान नितान्त पाता ॥५८४॥ ध्याओ निजातम सदा निज को निहारो, अन्यत्र, छोड़ निज को, न करो विहारो। संबंध मोक्ष-पथ से अविलम्ब जोड़ो, तो आपको नमन हो मम ये करोड़ों ॥५८५॥ साधु करे न मृति जीवन की चिकित्सा, ना पारलौकिक न लौकिक भोगलिप्सा। ‘सल्लेखना' समय में बस साम्य धारें, संसार का अशुभ ही फल यों विचारें ॥५८६॥ लेना निजाश्रय सुनिश्चिय मोक्ष-दाता, होता पराश्रय दुरन्त अशान्ति-धाता। शुद्धात्म में इसलिए रुचि हो तुम्हारी, देहादि में अरुचि ही शिव-सौख्यकारी ॥५८७॥ दोहा ‘मोक्षमार्ग' पर नित चलो, दुख मिट सुख मिल जाय। परम सुगन्धित ज्ञान की, मृदुल कली खिल जाय ॥
  10. संमोह योग-वश आतम में अनेकों, होते विभिन्न परिणाम विकार देखो। सर्वज्ञ-देव ‘गुणथान' उन्हें बताया, आलोक से सकल को जब देख पाया ॥५४६॥ ‘मिथ्यात्व' आदिम रहा गुण-थान भाई, ‘सासादना' वह द्वितीय अशान्ति दाई। है ‘मिश्र' है ‘अविरती समदृष्टि' प्यारी, है ‘एक देश विरती' धरते अगारी॥ होती ‘प्रमत्त विरती' गिर साधु जाता, हो ‘अप्रमत्त विरती' निज पास आता। स्वामी 'अपूर्व करणा' दुख को मिटाती, है 'आनिवृत्तिकरणा' सुख को दिलाती ॥५४७॥ है ‘सांपराय अतिसूक्षम' लोभवाला, है ‘शान्तमोह' ‘गतमोह' निरा उजाला। है ‘केवली जिन सयोगि' ‘अयोगी' न्यारे, इत्थं चतुर्दश सुनो! गुणथान सारे ॥५४८॥ तत्त्वार्थ में न करना शुचिरूप श्रद्धा, ‘मिथ्यात्व' है वह कहें जिन शुद्ध बुद्धा। मिथ्यात्व भी त्रिविध संशय नामवाला, दूजा गृहीत, अगृहीत तृतीय हाला ॥५४९॥ सम्यक्त्वरूप गिरि से गिर तो गई है, मिथ्यात्व की अवनि पै नहिं आ गई है। ‘सासादना' यह रही निचली दशा है, मिथ्यात्व की अभिमुखी दुख की निशा है ॥५५०॥ जैसा दही-गुड़ मिलाकर स्वाद लोगे, तो भिन्न-भिन्न तुम स्वाद न ले सकोगे। वैसे ही ‘मिश्र गुणथानन' का प्रभाव, मिथ्यापना समपनाश्रित मिश्रभाव ॥५५१॥ छोड़ी अभी नहिं चराचर जीव हिंसा, ना इन्द्रियाँ दमित कीं तज भाव-हिंसा। श्रद्धा परन्तु जिसने जिन में जमाई, होता वही ‘अविरती समदृष्टि' भाई ॥५५२॥ छोड़ी नितान्त जिसने त्रस जीव हिंसा, छोड़ी परन्तु नहिं थावर जीव-हिंसा। लेता सदा जिनप-पाद-पयोज स्वाद, हो 'एकदेश विरती' ‘अलि' निर्विवाद ॥५५३॥ धारा महाव्रत सभी जिसने तथापि, प्रायः प्रमाद करता फिर भी अपापी। शीलादि-सर्वगुण-धारक संग-त्यागी, होता ‘प्रमत्त विरती' कुछ दोष-भागी ॥५५४॥ शीलाभिमंडित, व्रती गुण धार ज्ञानी, त्यागा प्रमाद जिसने बन आत्म-ध्यानी। पै मोह को नहिं दबा न खपा रहा है, है 'अप्रमत्त विरती', सुख पा रहा है ॥५५५॥ जो भिन्न-भिन्न क्षण में चढ़ आठवें में, योगी अपूर्व परिणाम करें मजे में। ऐसे अपूर्व परिणाम न पूर्व में हों, वे ही 'अपूर्व करणा गुणथान' में हो ॥५५६॥ जो भी अपूर्व परिणाम सुधार पाते, वे मोह के शमक, ध्वंसक या कहाते। ऐसा जिनेन्द्र प्रभु ने हमको बताया, अज्ञान रूप तम को जिसने मिटाया ॥५५७॥ प्रत्येक काल इक ही परिणाम पाले, वे ‘आनिवृत्ति करणा गुणथान' वाले। ध्यानाग्नि से धधकती विधिकाननी को, हैं राख खाख करते, दुख की जनी को ॥५५८॥ कौसुम्ब के सदृश सौम्य गुलाब आभा, शोभायमान जिसके उर राग आभा। हैं ‘सूक्ष्मराग दशवें गुणस्थान' वाले, हैं वन्द्य, तू विनय से शिर तो नवां ले ॥५५९॥ ज्यों शुद्ध है शरद में सर-नीर होता, या निर्मली-फल डला जल क्षीर होता। त्यों 'शान्त मोह' गुणधारक को निहाला, हो मोह सत्त्व,पर जीवन तो उजाला ॥५६०॥ सम्मोह हीन जिसका मन ठीक वैसा-हो स्वच्छ, हो स्फटिक भाजन नीर जैसा। निर्ग्रन्थसाधु वह क्षीणकषाय' नामी, यों वीतराग कहते प्रभु विश्व-स्वामी ॥५६१॥ कैवल्य-बोधि रवि जीवन में उगा है, अज्ञानरूप तम तो फलतः भगा है। पा लब्धियाँ नव, नवीन वही कहाता, त्रैलोक्य पूज्य परमातम या प्रमाता ॥५६२॥ स्वाधीन बोध दृग पाकर केवली हैं, जीता जभी स्वयं को जिन हैं बली हैं। होते ‘सयोगि जिन योग समेत ध्यानी', ऐसा कहे अमिट अव्यय आर्षवाणी ॥५६३॥ है अष्ट-कर्म-मल को जिनने हटाया, सम्यक्तया सकल आस्रव रोक पाया। वे हैं,‘अयोगि जिन पावन केवली' हैं, हैं शील के सदन औ सुख के धनी हैं ॥५६४॥ आत्मा अतीत गुणथान बना जभी से, सानन्द ऊर्ध्व गति है करता तभी से। लोकाग्र जा निवसता गुण अष्ट पाता, पाता न देह भव में नहिं लौट आता ॥५६५॥ वे कर्म-मुक्त, नित सिद्ध सुशान्त ज्ञानी, होते निरंजन न अंजन की निशानी। सामान्य अष्ट-गुण आकर हो लसे हैं, लोकाग्र में स्थित शिवालय में बसे हैं ॥५६६॥
  11. ये पीत, पद्म शशि शुक्ल सुलेश्यकायें, हैं धर्म ध्यान रत आतम की दशायें। औ उत्तरोत्तर सुनिर्मल भी रही हैं, मन्दादि भेद इनके मिलते कई हैं ॥५३१॥ होती कषाय-वश योग-प्रवृत्ति लेश्या, है लूटती निधि सभी जिस भाँति वेश्या। जो कर्मबन्ध जग चार प्रकार का है, हे मित्र! कार्य वह योग-कषाय का है ॥५३२॥ हैं कृष्ण नीलम कपोत कुलेश्यकायें, हैं पीत पद्म सित तीन सुलेश्यकायें। लेश्या कही समय में छह भेद वाली, ज्यों ही मिटी समझ लो मिटती भवाली ॥५३३॥ मानी गई अशुभ आदिम लेश्यकायें, तीनों अधर्म-मय हैं दुख आपदायें। आत्मा इन्हीं वश दुखी बनता वृथा है, पापी बना, कुगति जा सहसा व्यथा है ॥५३४॥ हैं तीन धर्ममय अंतिम लेश्यकायें, मानी गई शुभ सुधा सुख सम्पदायें। ये जीव को सुगति में सब भेजतीं हैं, वे धारते नित इन्हें जग में व्रती हैं ॥५३५॥ हैं तीव्र, तीव्रतर, तीव्रतमा कुलेश्या, हैं मन्द, मन्दतर, मन्दतमा सुलेश्या। भाई! तथैव छह थान विनाश वृद्धि, प्रत्येक में वरतती इनमें, सुबुद्धि ॥५३६॥ भूले हुए पथिक थे पथ को मुधा से, थे आर्त पीड़ित छहों वन में क्षुधा से। देखा रसाल तरु फूल-फलों लदा था, मानो उन्हें कि अशनार्थ बुला रहा था। आमूल, स्कन्ध, टहनी झट काट डालें, औ तोड़-तोड़ फल-फूल रसाल खा लें। यों तीन दीन क्रमशः धरते कुलेश्या, हैं सोचते कह रहे कर संकलेशा ॥५३७॥ है एक गुच्छ-भर को इक पक्व दाता, तोड़े बिना पतित को इक मात्र खाता। यों शेष तीन क्रमशः धरते सुलेश्या, लेश्या उदाहरण ये कहते जिनेशा ॥५३८॥ ये क्रूरता अतिदुराग्रह दुष्टतायें, सद्धर्म को विकलता अदया दशायें। वैरत्व औ कलह भाव विभाव सारे, हैं ‘कृष्ण' के दुखद लक्षण, साधु टारें ॥५३९॥ अज्ञानता विषय की अतिगृद्धतायें, सद्बुद्धि की विकलता मतिमन्दतायें। संक्षेप में समझ, लक्षण 'नील' के हैं, ऐसे कहें, श्रमण आलय शील के हैं ॥५४०॥ अत्यन्त शोक करना भयभीत होना, कर्त्तव्यमूढ़ बनना झट रुष्ट होना। दोषी न निन्द्य पर को कहना बताना, ‘कापोत' भाव सब ये इनको हटाना ॥५४१॥ आदेय, हेय अहिताहित-बोध होना, संसारि-प्राणि भर में समभाव होना। दानी तथा सदय हो पर दु:ख खोना, ये ‘पीत' लक्षण इन्हें तुम धार लो ना ॥५४२॥ हो त्याग-भाव, नयता व्यवहार में हो, औ भद्रता, सरलता, उर कार्य में हो। कर्त्तव्य मान करना गुरुभक्ति सेवा, ये ‘पद्म' लक्षण क्षमा धर लो सदैवा ॥५४३॥ भोगाभिलाष मन में न कदापि लाना, औ देह-नेह रति-रोषन को हटाना। ना पक्षपात करना, समता सभी में, ये ‘शुक्ल' लक्षण मिलें मुनि में सुधी में ॥५४४॥ आ जाय शुद्धि परिणाम मन में जभी से, लेश्या विशुद्ध बनती, सहसा तभी से। काषाय मन्द पड़ जाय अशांतिदायी, हो जाय आत्म-परिणाम विशुद्ध भाई ॥५४५॥
  12. स्वाधीन चित्त कर तू शुभ-ध्यान द्वारा, कर्तव्य आदिम यही मुनि भव्य प्यारा। सद्ध्यान संतुलित होकर भी सदा ये, भावो सदा सुखद द्वादश-भावनायें ॥५०५॥ संसार, लोक, वृष, आस्रव, निर्जरा है, अन्यत्व औ अशुचि, अध्रुव, संवरा है। एकत्व औ अशरणा अवबोधना ये, चिन्ते सुधी सतत द्वादश-भावनायें ॥५०६॥ हैं जन्म से मरण भी वह जन्म लेता, वार्धक्य भी सतत यौवन साथ देता। लक्ष्मी अतीव चपला बिजली बनी है, संसार ही तरल है स्थिर ही नहीं है ॥५०७॥ हे भव्य! मोह घट को झट पूर्ण फोड़ो, सद्यः क्षयी विषय को विष मान छोड़ो। औ चित्त को सहज निर्विषयी बनाओ, औचित्य पूर्ण परमोत्तम सौख्य पाओ ॥५०८॥ अल्पज्ञ ही परिजनों धन-वैभवों को, है मानता ‘शरण' पाशव गोधनों को। ये हैं मदीय यह मैं उनका बताता, पै वस्तुतः शरण वे नहिं प्राण त्राता ॥५०९॥ मैं संग शल्य-त्रय को त्रययोग द्वारा, हूँ हेय जान तजता जड़ के विकारा। मेरे लिए शरण त्राण प्रमाण प्यारी, हैं गुप्तियाँ समितियाँ भव-दुःखहारी ॥५१०॥ लावण्य का मद युवा करते सभी हैं, पै मृत्यु पा उपजते कृमि हो वही हैं। संसार को इसलिए बुध सन्त त्यागी, धिक्कारते, न रमते उसमें विरागी ॥५११॥ ऐसा न लोक-भर में थल ही रहा हो, मैंने न जन्म मृत दुःख जहाँ सहा हो। तू बार-बार तन धार मरा यहाँ है, तू ही बता स्मृति तुझे उसकी कहाँ है ॥५१२॥ दुर्लंघ्य है भवपयोधि अहो! अपारा, अक्षुण्ण जन्म-जल-पूरित पूर्ण खारा। भारी जरा मगरमच्छ यहाँ सताते, हैं दुःख पाक, इसका गुरु हैं बताते ॥५१३॥ जो साधु रत्नत्रय-मंडित हो सुहाता, संसार में परम-तीर्थ वही कहाता। संसार पार करता, लख क्योंकि मौका, हो रूढ़ रत्नत्रय रूप अनूप नौका ॥५१४॥ हे मित्र! आप अपने विधि के फलों को, हैं भोगते सकल जीव शुभाशुभों को। तो कौन हो स्वजन? कौन निरा पराया? तू ही बता समझ में मुझको न आया ॥५१५॥ पूरा भरा दृग-विबोधमयी सुधा से, मैं एक शाश्वत सुधाकर हूँ सदा से। संयोगजन्य सब शेष विभाव मेरे, रागादि भाव जितने मुझसे निरे रे ॥५१६॥ संयोग भाव-वश ही बहु दुःख पाया, हूँ कर्म के तपन तप्त, गया सताया। त्यागूं उसे यतन से अब चाव से मैं, विश्राम लूँ सघन चेतन छाव में मैं ॥५१७॥ तूने भवाम्बुनिधि मज्जित आतमा की, चिंता न की न अब लौं उस पै दया की। पै बार-बार करता मृत साथियों की, चिंता दिवंगत हुए उन बंधुओं की ॥५१८॥ मैं अन्य हूँ तन निरा, तन से न नाता, ये सर्व भिन्न तुझसे सुत, तात, माता। यों जान मान बुध पंडित साधु सारे, धारें न राग इनमें, निज को निहारें ॥५१९॥ शुद्धात्म वेदन-तया सम-दृष्टि-वाला, है वस्तुतः निरखता तन को निराला। ‘अन्यत्व' रूप उसकी वह भावना है, भाऊँ उसे जब मुझे व्रत पालना है ॥५२०॥ निष्पन्न है जड़मयी पल हड्डियों से, पूरा भरा रुधिर मूत्र-मलादिकों से। दुर्गन्ध द्रव्य झरते नव-द्वार द्वारा, ऐसा शरीर फिर भी सुख दे तुम्हारा? ॥५२१॥ जो मोह-जन्य जड़-भाव विभाव सारे, हैं त्याज्य यों समझ साधु उन्हें विसारें। तल्लीन हो प्रशम में तज वासना को, भावें सही परम' आस्रव भावना' को ॥५२२॥ वे गुप्ति औ समिति पालक अक्ष-जेता, औ अप्रमत्त परमातम-तत्त्ववेत्ता। हैं कर्म के विविध आस्रव रोध पाते, हैं भावना परम ‘संवर' की निभाते ॥५२३॥ है लोक का यह वितान असार सारा, संसार तीव्र-गति से गममान न्यारा। यों जान मान मुनि हो शुभ ध्यान धारो, लोकाग्र में स्थित शिवालय को निहारो ॥५२४॥ स्वामी! जरा मरण-वारिधि में अनेकों, जो डूबते बह रहे उन प्राणियों को। सद्धर्म ही शरण है गति, श्रेय दीप, पूजें उसे शिव लसे सहसा समीप ॥५२५॥ तो भी रहा सुलभ ही वर देह पाना, पै धर्म का श्रवण दुर्लभ है पचाना। हो जाय प्राप्त जिससे कि क्षमा अहिंसा, ये भिन्न-भिन्न बन जाय शरीर हंसा ॥५२६॥ सद्धर्म का सुलभ है सुनना सुनाना, श्रद्धान पै कठिन है उस पै जमाना। सन्मार्ग का श्रवण भी करते तथापि, होते कई स्खलित हैं मति मूढ़ पापी ॥५२७॥ श्रद्धान औ श्रवण भी ‘जिन-धर्म' का हो, पै संयमाचरण तो अति दुर्लभा हो। लेते सुधी रुचि सुसंयम में कई हैं, पाते तथापि उसको सहसा नहीं है ॥५२८॥ सद्भावना वश निजातम शोभती त्यों, नि:छिद्र नाव जल में वह शोभती ज्यों। नौका समान भवपार उतारती है, रे! भावना अमित दुःख विनाशती है ॥५२९॥ सच्चा प्रतिक्रमण, द्वादश भावनायें, आलोचना शुचि समाधि निजी कथायें। भावो इन्हें, तुम निरंतर पाप त्यागो, शीघ्रातिशीघ्र जिससे निज-धाम भागो ॥५३०॥
  13. ज्यों मूल, मुख्य द्रुम में जग में कहाता, या देह में प्रमुख मस्तक है सुहाता। त्यों ध्यान ही प्रमुख है मुनि के गुणों में, धर्मों तथा सकल आचरणों व्रतों में ॥४८४॥ सद्ध्यान है मनस की स्थिरता सुधा है, तो चित्त की चपलता त्रिवली त्रिधा है। चिन्ताऽनुप्रेक्ष क्रमशः वह भावना है, तीनों मिटें बस यही मम कामना है ॥४८५॥ ज्यों नीर में लवण है गल लीन होता, योगी समाधि सर में लवलीन होता। अध्यात्मिका धधकती फलरूप ज्वाला, है नाशती द्रुत शुभाशुभ कर्म शाला ॥४८६॥ व्यापार योगत्रय का जिसने हटाया, संमोह राग रति रोषन को नशाया। ध्यानाग्नि दीप्त उसमें उठती दिखाती, है राख खाख करती विधि को मिटाती ॥४८७॥ बैठे करे स्वमुख उत्तर पूर्व में वा, ध्याता सुधी, स्थित सुखासन में सदैवा। आदर्श-सा विमल चारित काय वाला, पीता समाधि-रस पूरित पेय प्याला ॥४८८॥ पल्यंक आसन लगाकर आत्म ध्याता, नासाग्र को विषय लोचन का बनाता। व्यापार योग त्रय का कर बंद ज्ञानी, उच्छ्वास श्वास गति मंद करें अमानी ॥४८९॥ गर्हा दुराचरण की अपनी करो रे! माँगो क्षमा जगत से मन मार लो रे! हो अप्रमत्त तबलों निज आत्म ध्याओ, प्राचीन कर्म जब लौं तुम ना हटाओ ॥४९०॥ निस्पंद योग जिसके, मन मोद पाता- सद्ध्यान लीन, नहिं बाहर भूल जाता। ध्यानार्थ ग्राम पुर हो, वन-काननी हो, दोनों समान उसको, समता धनी हो ॥४९१॥ पीना समाधि-रस को यदि चाहते हो, जीना युगों युगयुगों तक चाहते हो। अच्छे बुरे विषय ऐंद्रिक हैं तथापि, ना रोष-तोष करना, उनमें कदापि ॥४९२॥ निस्संग है निडर नित्य निरीह त्यागी, वैराग्य-भाव परिपूरित है विरागी। वैचित्र्य भी विदित है भव का जिन्हों को, वे ध्यान-लीन रहते, भजते गुणों को ॥४९३॥ आत्मा अनंत दृग, केवल-बोध-धारी, आकार से पुरुष शाश्वत सौख्यकारी। योगी नितान्त उसका उर ध्यान लाता, निर्द्वन्द्व पूर्ण बनता अघ को हटाता ॥४९४॥ आत्मा तना तन, निकेतन में अपापी, योगी उसे पृथक से लखते तथापि। संयोग-जन्य तन आदि उपाधियों को, वे त्याग,आप अपने गुणते गुणों को ॥४९५॥ मेरे नहीं ‘पर' यहाँ पर का न मैं हूँ, हूँ एक हूँ विमल केवल ज्ञान मैं हूँ। यों ध्यान में सतत चिंतन जो करेगा, ध्याता स्व का बन, सुमुक्ति रमा वरेगा ॥४९६॥ जो ध्यान में न निजवेदन को करेगा, योगी निजी-परम-तत्त्व नहीं गहेगा। सौभाग्यहीन नर क्या निधि पा सकेगा? दुर्भाग्य से दुखित हो निज रो सकेगा ॥४९७॥ पिण्डस्थ आदिम पदस्थन रूप-हीन, हैं ध्यान तीन इनमें तुम हो विलीन। छद्मस्थता, सु-जिनता, शिव-सिद्धिता ये, तीनों हि तत् विषय हैं क्रमशः सुहायें ॥४९८॥ खड्गासनादिक लगा युगवीर स्वामी, थे ध्यान में निरत अंतिम तीर्थ नामी। वे श्वभ्र स्वर्गगत दृश्य निहारते थे, संकल्प के बिन समाधि सुधारते थे ॥४९९॥ भोगों, अनागत गतों व तथागतों की, कांक्षा जिन्हें न स्मृति, क्यों फिर आगतों की? ऐसे महर्षि-जन कार्मिक काय को ही, क्षीणातिक्षीण करते, बनते विमोही ॥५००॥ चिंता करो न कुछ भी मन से न डोलो, चेष्टा करो न तन से मुख से न बोलो। यों योग में गिरि बनो, शुभ ध्यान होता, आत्मा निजात्मरत ही सुख बीज बोता ॥५०१॥ है ध्यान में रम रहा सुख पा रहा है, शुद्धात्म ही बस जिसे अति भा रहा है। पाके कषाय न कदापि दुखी बनेगा, ईर्षा विषाद मत शोक नहीं करेगा ॥५०२॥ वे धीर साधु उपसर्ग परीषहों से, होते न भीरु चिगते अपने पदों से। मायामयी अमर सम्मद वैभवों में, ना मुग्ध लुब्ध बनते निज ऋद्धियों में ॥५०३॥ वर्षों पड़ा बहुत-सा तृण ढेर चारा, ज्यों अग्नि से झट जले बिन देर सारा। त्यों शीघ्र ही भव-भवार्जित कर्म-कूड़ा, ध्यानाग्नि से जल मिटे सुन भव्य मूढ़ा ॥५०४॥
  14. अ- बाह्य तप जो ब्रह्मचर्य रहना, 'जिन' ईश पूजा, सारी कषाय तजना, तजना न ऊर्जा। ध्यानार्थ अन्न तजना'तप' ये कहाते, प्रायः सदा भविक लोग इन्हें निभाते ॥४३९॥ है मूल में द्विविध रे! तप मुक्तिदाता, जो अन्तरंग-बहिरंग-तया सुहाता। हैं अंतरंग तप के छह भेद होते, हैं भेद बाह्य-तप के उतने हि होते ॥४४०॥ ‘ऊनोदरी' ‘अनशना' नित पाल रे! तू, ‘भिक्षा क्रिया' रसविमोचन मोक्ष हेतु। ‘संलीनता' दुख-निवारक कायक्लेश, ये बाह्य के छह हुए कहते जिनेश ॥४४१॥ जो कर्म नाश करने समयानुसार, है त्यागता अशन को, तन को सँवार। साधु वही ‘अनशना तप' साधता है, होती सुशोभित तभी जग साधुता है ॥४४२॥ आहार अल्प करते श्रुत-बोध पाने, वे तापसी समय में कहलाँय स्याने। भाई बिना श्रुत उपोषण प्राण खोना, आत्मावबोध उससे न कदापि होना ॥४४३॥ ना इन्द्रियाँ शिथिल हों मन में न पापी, ना रोग काऽनुभव काय करे कदापि। होती वही अनशना, जिससे मिली हो, आरोग्यपूर्ण नव चेतनता खिली हो ॥४४४॥ उत्साह-चाह-विधि-राह पदानुसार, आरोग्य-काल निज-देह बलानुसार। ऐसा करें ‘अनशना' ऋषि साधु सारे, शुद्धात्म को नित निरन्तर वे निहारें ॥४४५॥ लेते हुए अशन को उपवास साधे, जो साधु इन्द्रियजयी निज को अराधे। हों इन्द्रियाँ शमित तो उपवास होता, धोता कुकर्म मल को, सुख को संजोता ॥४४६॥ मासोपवास करते लघु-धी यमी में, ना हो विशुद्धि उतनी, जितनी सुधी में। आहार नित्य करते फिर भी तपस्वी, होते विशुद्ध उर में, श्रुत में यशस्वी ॥४४७॥ जो एक-एक कर ग्रास घटा घटाना, औ भूख से अशन को कम न्यून पाना। ‘ऊनोदरी' तप यही व्यवहार से है, ऐसा कहें गुरु, सुदूर विकार से हैं ॥४४८॥ दाता खड़े कलश ले हँसते मिले तो, लेऊँ तभी अशन प्रांगण में मिले तो। इत्यादि नेम मुनि ले अशनार्थ जाते, भिक्षा क्रिया यह रही गुरु यों बताते ॥४४९॥ स्वादिष्ट मिष्ट अति इष्ट गरिष्ट खाना-घी दूध आदि रस हैं इनको न खाना। माना गया तप वही ‘रस त्याग' नामा, धारूँ उसे, वर सकूँ वर-मुक्ति-रामा ॥४५०॥ एकान्त में, विजन कानन मध्य जाना, श्रद्धा समेत शयनासन को लगाना। होता वही तप सुधारस पेय प्याला, प्यारा ‘विविक्त शयनासन' नाम वाला ॥४५१॥ वीरासनादिक लगा, गिरि गह्वरों में, नाना प्रकार तपना वन कन्दरों में। है ‘कायक्लेश' तप, तापस तापतापी, पुण्यात्म हो धर उसे तज पाप पापी ॥४५२॥ जो तत्त्व-बोध सुखपूर्वक हाथ आता, आते हि दु:ख झट से वह भाग जाता। वे कायक्लेश समवेत अतः सुयोगी, तत्त्वानुचिंतन करें समयोपयोगी ॥४५३॥ जाता किया जब इलाज कुरोग का है, ना दुःख हेतु सुख हेतु न रुग्ण का है। भाई इलाज करने पर रुग्ण को ही, हो जाय दुःख सुख भी सुन भव्य-मोही ॥४५४॥ त्यों मोहनाश सविपाकतया यदा हो, ना दुःख हेतु सुख हेतु नहीं तदा हो। पै मोह के विलय में रत है वसी को, होता कभी दुख कभी सुख भी उसी को ॥४५५॥ आ - आभ्यन्तर तप ‘प्रायश्चिता" विनय'औ ‘ऋषि-साधु-सेवा', 'स्वाध्याय' 'ध्यान' धरते वरबोध मेवा। ‘व्युत्सर्ग', स्वर्ग अपवर्ग महर्घ-दाता, हैं अंतरंग तप ये छह मोक्ष धाता ॥४५६॥ जो भाव है समितियों व्रत संयमों का, प्रायश्चिता वह सही दम इन्द्रियों का। ध्याऊँ उसे विनय से उर में बिठाता, होऊँ अतीत विधि से विधि सो विधाता ॥४५७॥ काषायिकी विकृतियाँ मन में न लाना, आ जाँय तो जब कभी उनको हटाना। गाना स्वकीय गुणगीत सदा सुहाती, ‘प्रायश्चिता' वह सुनिश्चय नाम पाती ॥४५८॥ वर्षों युगों भवभवों समुपार्जितों का, होता विनाश तप से भवबंधनों का। प्रायश्चिता इसलिए' तप' ही रहा है, त्रैलोक्य-पूज्य प्रभु ने जग को कहा है ॥४५९॥ आलोचना अरु प्रतिक्रमणोभया है, व्युत्सर्ग, छेद, तप, मूल, विवेकता है। श्रद्धान और परिहार प्रमोदकारी, प्रायश्चिता दशविधा इस भाँति प्यारी ॥४६०॥ विक्षिप्त-चित्तवश आगत दोषकों की, हेयों अयोग्य अनभोग-कृतादिकों की। आलोचना निकट जा गुरु के करो रे, भाई, नहीं कुटिलता उर में धरो रे ॥४६१॥ माँ को यथा तनुज, कार्य अकार्य को भी, है सत्य, सत्य कहता, उर पाप जो भी। मायाभिमान तज, साधु तथा अघों की, गाथा कहें स्वगुरु को, दुखदायकों की ॥४६२॥ है शल्य शूल चुभते जब पाद में जो, दुर्वेदनानुभव पूरण अंग में हो। ज्यों ही निकाल उनको हम फेंक देते, त्यों ही सुशीघ्र सुख सिंचित श्वास लेते ॥४६३॥ जो दोष को प्रकट ना करता छुपाता, मायाभिभूत यति भी अति दुःख पाता। दोषाभिभूत मन को गुरु को दिखाओ, निःशल्य ही विमल हो सुख-शांति पाओ ॥४६४॥ आत्मीय सर्व परिणाम विराम पावें, वे साम्य के सदन में सहसा सुहावें। डूबो लखो बहुत भीतर चेतना में, आलोचना बस यही ‘जिनदेशना' में ॥४६५॥ प्रत्यक्ष सम्मुख सुधी गुरु सन्त आते, होना खड़े, कर जुड़े शिर को झुकाते। दे आसनादि करना गुरु-भक्ति सेवा, माना गया विनय का तप ओ सदैवा ॥४६६॥ चारित्र, ज्ञान, तप दर्शन, औपचारी, ये पाँच हैं विनय भेद, प्रमोदकारी। धारो इन्हें विमल-निर्मल जीव होगा, दु:खावसान, सुख आगम शीघ्र होगा ॥४६७॥ है एक का वह समादर सर्व का है, तो एक का यह अनादर विश्व का है। हो घात मूल पर तो द्रुम सूखता है, दो मूल में सलिल, पूरण फूलता है ॥४६८॥ है मूल ही विनय आर्हत-शासनों का, हो संयमी विनय से घर सद्गुणों का। वे धर्म-कर्म तप भी उनके वृथा हैं, जो दूर हैं विनय से सहते व्यथा हैं ॥४६९॥ उद्धार का विनय द्वार उदार भाता, होता यही सुतप संयम-बोध धाता। आचार्य संघ भर की इससे सदा हो, आराधना, विनय से सुख-सम्पदा हो ॥४७०॥ विद्या मिली विनय से इस लोक में भी, देती सही सुख वहाँ परलोक में भी। विद्या न पै विनय-शून्य सुखी बनाती, शाली, बिना जल कभी फल-फूल लाती ॥४७१॥ अल्पज्ञ किन्तु विनयी ‘मुनि' मुक्ति पाता, दुष्टाष्ट-कर्म-दल को पल में मिटाता। भाई अत: विनय को तज ना कदापि, सच्ची सुधा समझ के उसको सदा पी ॥४७२॥ जो अन्न-पान-शयनासन आदिकों को, देना यथा-समय सज्जन साधुओं को। कारुण्य-द्योतक यही भवताप-हारी, सेवामयी सुतप है शिवसौख्यकारी ॥४७३॥ साधू विहार करते करते थके हों, वार्धक्य की अवधि पै बस आ रुके हों। श्वानादि से व्यथित हो नृप से पिटाये, दुर्भिक्ष रोगवश पीड़ित हों सताये। रक्षा संभाल करना उनकी सदैवा, जाता कहा ‘सुतप' तापस साधु-सेवा ॥४७४॥ ‘सद्वाचना' प्रथम है फिर ‘पूछना' है, है 'आनुप्रेक्ष' क्रमशः ‘परिवर्तना' है। ‘धर्मोपदेश' सुखदायक है सुधा है, स्वाध्याय-रूप-तप पावन पंचधा है ॥४७५॥ आमूलतः बल लगा विधि को मिटाने, पै ख्याति-लाभ-यश पूजन को न पाने। सिद्धान्त का मनन जो करता-कराता, पा तत्त्वबोध बनता सुखधाम धाता ॥४७६॥ होते नितान्त समलंकृत गुप्तियों से, तल्लीन भी विनय में मृदु वल्लियों से। एकाग्र-मानस जितेंद्रिय अक्ष-जेता, स्वाध्याय के रसिक वे ऋषि साधु नेता ॥४७७॥ सद्ध्यान सिद्धि जिन आगम ज्ञान से हो, तो निर्जरा करम की निज ध्यान से हो। हो मोक्ष-लाभ सहसा विधि निर्जरा से, स्वाध्याय में इसलिए रम जा जरा से ॥४७८॥ स्वाध्याय-सा न तप है, नहिं था, न होगा, यों मानना अनुपयुक्त कभी न होगा। सारे इसे इसलिए ऋषि संत त्यागी, धारें, बने विगतमोह, बने विरागी ॥४७९॥ जो बैठना शयन भी करना तथापि, चेष्टा न व्यर्थ तन की करना कदापि। व्युत्सर्ग रूप तप है, विधि को तपाता, पीताभ हेम-सम आतम को बनाता ॥४८०॥ कायोतसर्ग तप से मिटती व्यथाएँ, हो ध्यान चित्त स्थिर द्वादश भावनाएँ। काया निरोग बनती मति जाड्य जाती, संत्रास सौख्य सहने उर शक्ति आती ॥४८१॥ लोकेषनार्थ तपते उन साधुओं का, ना शुद्ध हो तप महाकुलधारियों का। शंसा अतः न अपने तप की करो रे, जाने न अन्य जन यों तप धार लो रे ॥४८२॥ स्वामी समाहत विबोध सुवात से है, उदीप्त भी तप-हुताशन शील से है। वैसा कुकर्म वन को पल में जलाता, जैसा वनानल घने वन को जलाता ॥४८३॥
  15. हो भेद ज्ञानमय भानु उदीयमान, मध्यस्थ भाव वश चारित हो प्रमाण। ऐसे चरित्र गुण में पुनि पुष्टि लाने, होते ‘प्रतिक्रमण' आदिक ये सयाने ॥४१७॥ सद्ध्यान में श्रमण अन्तरधान होके, रागादिभाव पर हैं पर-भाव रोके। वे ही निजातमवशी यति भव्य प्यारे, जाते ‘अवश्यक' कहे उन कार्य सारे ॥४१८॥ भाई तुझे यदि अवश्यक पालना है, हो के समाहित स्व में मन मारना है। हीराभ सामयिक में द्युति जाग जाती, सम्मोह तामस निशा झट भाग जाती ॥४१९॥ जो साधु हो न ‘षडवश्यक' पालता है, चारित्र से पतित हो सहता व्यथा है। आत्मानुभूति कब हो यह कामना है, आलस्य त्याग षडवश्यक पालना है ॥४२०॥ सामायिकादि षडवश्यक साथ पालें, जो साधु निश्चय सुचारित पूर्ण प्यारे। वे वीतरागमय शुद्धचरित्रधारी, पूजो उन्हें परम उन्नति हो तुम्हारी ॥४२१॥ आलोचना नियम आदिक मूर्त्तमान, भाई प्रतिक्रमण शाब्दिक प्रत्यख्यान। स्वाध्याय ये, चरित रूप गये न माने, चारित्र आन्तरिक आत्मिक है सयाने ॥४२२॥ संवेगधारक यथोचित शक्ति वाले, ध्यानाभिभूत षडवश्यक साधु पाले। ऐसा नहीं यदि बने यह श्रेष्ठ होगा, श्रद्धान तो दृढ़ रखो, द्रुत मोक्ष होगा ॥४२३॥ सामायिकं जिनप की स्तुति वंदना हो, कायोतसर्ग समयोचित साधना हो। सच्चा प्रतिक्रमण हो अघप्रत्यख्यान, पाले मुनीश षडवश्यक बुद्धिमान ॥४२४॥ लो! काँच को कनक को सम ही निहारे, वैरी सहोदर जिन्हें इकसार सारे। स्वाध्याय ध्यान करते मन मार देते, वे साधु सामयिक को उर धार लेते ॥४२५॥ वाक्योग रोक जिसने मन मौन धारा, औ वीतराग बन आतम को निहारा। होती समाधि परमोत्तम ही उसी की, पूजूँ उसे, शरण और नहीं किसी की ॥४२६॥ आरम्भ दम्भ तज के त्रय गुप्ति पालें, हैं पंच इन्द्रियजयी समदृष्टि वाले। स्थाई सुसामयिक है उनमें दिखाता, यो ‘केवली' परम-शासन गीत गाता ॥४२७॥ हैं साम्यभाव रखते त्रस थावरों में, स्थाई सुसामयिक हो उन साधुओं में। ऐसा जिनेश मत है मत भूल रे! तू, भाई! अगाध भव-वारिधि मध्य सेतु ॥४२८॥ आदीश आदि जिन हैं उन गीत गाना, लेना सुनाम उनके यश को बढ़ाना। औ पूजना नमन भी करना उन्हीं को, होता जिनेश स्तव है प्रणमूँ उसी को ॥४२९॥ द्रव्यों थलों समयभाव प्रणालियों में, हैं दोष जो लग गये, अपने व्रतों में। वाक्काय से मनस से उनको मिटाने, होती प्रतिक्रमण की विधि है सयाने ॥४३०॥ आलोचना गरहणा करता स्वनिन्दा, जो साधु दोष करता अघ का न धंधा। होता ‘प्रतिक्रमण भाव' मयी वही है, तो शेष द्रव्यमय हैं रुचते नहीं हैं ॥४३१॥ रागादि भावमल को मन से हटाता, हो निर्विकल्प मुनि है निज आत्मध्याता। सारी क्रिया वचन की तजता सुहाता, सच्चा प्रतिक्रमण लाभ वही उठाता ॥४३२॥ स्वाध्याय रूप सर में अवगाह पाता, सम्पूर्ण दोष मल को पल में धुलाता। सद्ध्यान ही विषम कल्मष पातकों का, सच्चा प्रतिक्रमण है धर सद्गुणों का ॥४३३॥ है देह नेह तज के ‘जिन-गीत' गाते, साधु प्रतिक्रमण हैं करते सुहाते। कायोतसर्ग उनका वह है कहाता, संसार में सहज शाश्वत शांतिदाता ॥४३४॥ घोरोपसर्ग यदि हो असुरों सुरों से, या मानवों मृगगणों मरुतादिकों से। कायोतसर्गरत साधु सुधी तथापि, निस्पन्द शैल, लसते समता-सुधा पी ॥४३५॥ हो निर्विकल्प तज जल्प-विकल्प सारे, साधू अनागत शुभाशुभ भाव टारें। शुद्धात्म ध्यान सर में डुबकी लगाते, वे प्रत्यखान गुण धार कहैं कहाते ॥४३६॥ जो आतमा न तजता निज भाव को है, स्वीकारता न परकीय विभाव को है। द्रष्टा बना निखिल का परिपूर्ण ज्ञाता, 'मैं ही रहा वह' सुधी इस भाँति गाता ॥४३७॥ जो भी दुराचरण है मुझ में दिखाता, वाक्काय से मनस से उसको मिटाता। नीराग सामयिक को त्रिविधा करूँ मैं, तो बार-बार तन धार नहीं मरूँ मैं ॥४३८॥
  16. ‘ईर्या' रही समिति आद्य द्वितीय 'भाषा', तीजी ‘गवेषण' धरे नश जाय आशा। ‘आदान निक्षिपण'-पुण्यनिधान चौथा, व्युत्सर्ग' पंचम रही सुन भव्य श्रोता। कायादि भेद वश भी त्रय गुप्तियाँ हैं, ये गुप्तियाँ समितियाँ जननी-समा हैं ॥३८४॥ माता स्वकीय सुत की जिस भाँति रक्षा, कर्त्तव्य मान करती, बन पूर्ण दक्षा, गुप्त्यादि अष्ट जननी उस भाँति सारी, रक्षा सुरत्नत्रय की करती हमारी ॥३८५॥ निर्दोष से चरित पालन पोषनार्थ, उल्लेखिता समितियाँ गुरु से यथार्थ, ये गुप्तियाँ इसलिये गुरु ने बताईं, काषायिकी परिणती मिट जाय भाई! ॥३८६॥ निर्दोष गुप्तित्रय पालक साधु जैसे, निर्दोष हो समितिपालक ठीक वैसे। वे तो अगुप्ति भव-मानस-मैल धोते, ये जागते समिति-जात प्रमाद खोते ॥३८७॥ जी जाय जीव अथवा मर जाय हिंसा, ना पालना समितियाँ बन जाय हिंसा। होती रहे वह भले कुछ बाह्य हिंसा, तू पालता समितियाँ पलती अहिंसा ॥३८८॥ जो पालते समितियाँ, तब द्रव्य-हिंसा, होती रहे, पर कदापि न भाव-हिंसा। होती असंयमतया वह भाव हिंसा, हो जीव का न वध, पै बन जाय हिंसा ॥३८९॥ हिंसा द्विधा सतत वे करते कराते, जो मत्त संयत असंयत हैं कहाते। पै अप्रमत्त मुनि धार द्विधा अहिंसा, होते गुणाकर, कहँ उनकी प्रशंसा ॥३९०॥ आता यती समिति से उठ बैठ जाता, भाई तदा यदि मनो मर जीव जाता। साधू तथापि नहिं है अघकर्म पाता, दोषी न हिंसक, ‘अहिंसक' ही कहाता ॥३९१॥ संमोह को तुम परिग्रह नित्य मानो, हिंसा प्रमाद भर को सहसा पिछानो। अध्यात्म आगम अहो इस भॉति गाता, भव्यात्म को सतत शान्ति सुधा पिलाता ॥३९२॥ ज्यों पद्मिनी वह सचिक्कण पत्रवाली, हो नीर में न सड़ती रहती निराली। त्यों साधु भी समितियाँ जब पालता है, ना पाप-लिप्त बनता सुख साधता है ॥३९३॥ आचार हो समितिपूर्वक दुःख-हर्ता, है धर्म-वर्धक तथा सुख-शान्ति-कर्ता। है धर्म का जनक चालक भी वही है, धारो उसे मुकति की मिलती मही है ॥३९४॥ आता यती विचरता, उठ बैठ जाता, हो सावधान तन को निशि में सुलाता। औ, बोलता,अशन एषण साथ पाता, तो पाप-कर्म उसके नहि पास आता ॥३९५॥ हो मार्ग प्रासुक, न जीव विराधना हो, जो चार हाथ पथ पूर्ण निहारना हो। ले स्वीय कार्य कुछ पै दिन में चलोगे, ‘ईर्यामयी समिति' को तब पा सकोगे ॥३९६॥ संसार के विषय में मन ना लगाना, स्वाध्याय पंच विध ना करना कराना। एकाग्र चित्त करके चलना जभी हो, ईर्या सही समिति है पलती तभी ओ ॥३९७॥ हों जा रहे पशु यदा जल भोज पाने, जाओ न सन्निकट भी उनके सयाने। हे साधु! ताकि तुमसे भय वे न पावें, जो यत्र तत्र भय से नहिं भाग जावें ॥३९८॥ आत्मार्थ या निजपरार्थ परार्थ साधु, निस्सार भाषण करे न, स्वधर्म स्वादु। बोले नहीं वचन हिंसक मर्म-भेदी, 'भाषामयी समिति' पालक आत्म-वेदी ॥३९९॥ बोलो न कर्ण कटु निंद्य कठोर भाषा, पावे न ताकि जग जीव कदापि त्रासा। हो पाप-बन्ध वह सत्य कभी न बोलो, घोलो सुधा न विष में, निज नेत्र खोलो ॥४००॥ हो एक नेत्र नर को कहना न काना, औ चोर को कुटिल चोर नहीं बताना। या रुग्ण को तुम न रुग्ण कभी कहो रे! ना! ना! नपुंसक नपुंसक को कहो रे ॥४०१॥ साधू करे न परनिंदन आत्म-शंसा, बोले न हास्य, कटु-कर्कश-पूर्ण भाषा। स्वामी! करे न विकथा, मितमिष्ट बोले, 'भाषामयी समिति' में नित ले हिलोरें ॥४०२॥ हो स्पष्ट, हो विशद, संशयनाशिनी हो, हो श्राव्य भी सहज हो सुखकारिणी हो। माधुर्य-पूर्ण मित मार्दव-सार्थ-भाषा, बोले महामुनि, मिले जिससे प्रकाशा ॥४०३॥ जो चाहता न फल दुर्लभ भव्य दाता, साधू अयाचक यहाँ बिरला दिखाता। दोनों नितान्त द्रुत ही निजधाम जाते, विश्रान्त हो सहज में सुख शान्ति पाते ॥४०४॥ उत्पादना-अशन-उद्गम दोष हीन, आवास अन्न शयनादिक ले, स्वलीन। वे एषणा समिति साधक साधु प्यारे, हो कोटिशः नमन ये उनको हमारे ॥४०५॥ आस्वाद प्राप्त करने बल कान्ति पाने, लेते नहीं अशन जीवन को बढ़ाने। पै साधु ध्यान तप संयम बोध पाने, लेते अतः अशन अल्प अये! सयाने ॥४०६॥ गाना सुना गुण गुणा गण षट् पदों का, पीता पराग रस फूल-फलों दलों का। देता परन्तु उनको न कदापि पीड़ा, होता सुतृप्त, करता दिन-रैन क्रीड़ा ॥४०७॥ दाता यथा-विधि यथाबल दान देते, देते बिना दुख उन्हें मुनि दान लेते। यों साधु भी भ्रमर से मृदुता निभाते, वे ‘एषणा समिति' पालक हैं कहाते ॥४०८॥ उद्दिष्ट, प्रासुक भले, यदि अन्न लेते, वे साधु, दोष मल में व्रत फेंक देते। उद्दिष्ट भोजन मिले, मुनि वीतरागी, शास्त्रानुसार यदि ले, नहिं दोष भागी ॥४०९॥ जो देखभाल, कर मार्जन पिच्छिका से, शास्त्रादि वस्तु रखना, गहना दया से। ‘आदान निक्षिपण' है समिती कहाती, पाले उसे सतत साधु, सुखी बनाती ॥४१०॥ एकान्त हो विजन विस्तृत ना विरोध, सम्यक् जहाँ बन सके त्रसजीव शोध। ऐसा अचित्त थल पै मलमूत्र त्यागे, ‘व्युत्सर्गरूप-समिती' गह साधु जागे ॥४११॥ आरम्भ में न समरम्भन में लगाना, संसार के विषय से मन को हटाना। होती तभी 'मनसगुप्ति' सुमुक्तिदात्री, ऐसा कहें श्रमण श्री-जिनशास्त्र-शास्त्री ॥४१२॥ आरम्भ में न समरम्भन में लगाते, सावद्य से वचन योग यती हटाते। होती तभी 'वचन-गुप्ति' सुखी बनाती, कैवल्य ज्योति झट से जब जो जगाती ॥४१३॥ आरम्भ में न समरम्भन में लगाते, ना काय योग अघ कर्दम में फसाते। ओ ‘कायगुप्ति', जड़ कर्म विनाशती है, विज्ञान-पंकज-निकाय विकासती हैं॥४१४॥ प्राकार ज्यों नगर की करता सुरक्षा, किंवा सुवाड़ कृषि की करती सुरक्षा। त्यों गुप्तियाँ परम पंच महाव्रतों की, रक्षा सदैव करतीं मुनि के गुणों की ॥४१५॥ जो गुप्तियाँ समितियाँ नित पालते हैं, सम्यक्तया स्वयं को ऋषि जानते हैं। वे शीघ्र बोध बल दर्शन धारते हैं, संसार सागर किनार निहारते हैं ॥४१६॥
  17. हिंसादि पंच अघ हैं तज दो अघों को, पालो सभी परम पंच महाव्रतों को। पश्चात् जिनोदित पुनीत विरागता का, आस्वाद लो, कर अभाव विभावता का ॥३६४॥ वे ही महाव्रत नितान्त सुसाधु धारें, निःशल्य हो विचरते त्रय-शल्य टारें। मिथ्या निदान व्रतघातक शल्य माया, ऐसा जिनेश उपदेश हमें सुनाया ॥३६५॥ है मोक्ष की यदि व्रती करता उपेक्षा, चारित्र ले विषय की रखता अपेक्षा। तो मूढ़ भूल मणि जो अनमोल देता, धिक्कार काँच मणि का वह मोल लेता ॥३६६॥ जो जीव थान, कुल मार्गण योनियों में, पा जीवबोध, करुणा रखता सबों में। आरम्भ त्याग उनकी करता न हिंसा, हो साधु का विमल भाव वही 'अहिंसा' ॥३६७॥ निष्कर्ष है परम पावन आगमों का, भाई! उदार उर धार्मिक आश्रमों का। सारे व्रतों सदन है, सब सद्गुणों का, आदेय है विमल जीवन साधुओं का। है विश्वसार जयवन्त रहे अहिंसा, होती रहे सतत ही उसकी प्रशंसा ॥३६८॥ ना क्रोध भीतिवश स्वार्थ तराजु तोलो, लेओ न मोल अघ हिंसक बोल बोलो। होगा द्वितीय व्रत ‘सत्य' वही तुम्हारा, आनन्द का सदन जीवन का सहारा ॥३६९॥ जो भी पदार्थ परकीय उन्हें न लेते, वे साधु देखकर भी बस छोड़ देते। है स्तेय भाव तक भी मन में न लाते, 'अस्तेय' है व्रत यही जिन यों बताते ॥३७०॥ ये द्रव्य चेतन अचेतन जो दिखाते, साधू न भूलकर भी उनको उठाते। ना दाँत साफ करने तक सींक लेते, अत्यल्प भी बिन दिए कुछ भी न लेते ॥३७१॥ भिक्षार्थ भिक्षु जब जाँय, वहाँ न जाँय, जो स्थान वर्जित रहा अघ हो न पाँय। वे जाँय जान कुल की मित भूमि लौं ही, ‘अस्तेय' धर्म परिपालन श्रेष्ठ सो ही ॥३७२॥ अब्रह्म सेवन अवश्य अधर्म मूल, है दोष-धाम दुख दे जिस भाँति शूल। निर्ग्रन्थ वे इसलिए सब ग्रन्थ त्यागी, सेवे न मैथुन कभी मुनि वीतरागी ॥३७३॥ माता सुता बहन सी लखना स्त्रियों को, नारी-कथा न करना भजना गुणों को। ‘श्री ब्रह्मचर्य व्रत' है यह मार-हन्ता, है पूज्य वन्द्य जग में सुख दे अनन्ता ॥३७४॥ जो अन्तरंग बहिरंग निसंग होता, भोगाभिलाष बिन चारित भार ढोता। है पाँचवाँ व्रत ‘परिग्रह त्याग' पाता, पाता स्वकीय सुख,तू दुख क्यों उठाता ॥३७५॥ दुर्गन्ध अंग तक ‘संग'' जिनेश गाया, यों देह से खुद उपेक्षित हो दिखाया। क्षेत्रादि बाह्य सब संग अतः विसारो, होके निरीह तन से तुम मार मारो ॥३७६॥ जो माँगना नहिं पड़े गृहवासियों से, ना हो विमोह ममतादिक भी जिन्हों से। ऐसे परिग्रह रखें उपयुक्त होवे, पै अल्प भी अनुपयुक्त न साधु ढोवें ॥३७७॥ जो देह देश-श्रम-काल बलानुसार, आहार ले यदि यती करता विहार। तो अल्प कर्म मल से वह लिप्त होता, औचित्य एक दिन है भव-मुक्त होता ॥३७८॥ जो बाह्य में कुछ पदार्थ यहाँ दिखाते, वे वस्तुतः नहिं परिग्रह हैं कहाते। मूर्छा परिग्रह परन्तु यथार्थ में है, श्री वीर का सदुपदेश मिला हमें है ॥३७९॥ ना संग संकलन संयत हो करो रे! शास्त्रादि साधन सुचारु सदा धरो रे। ज्यों संग ही विहग ना रखते अपेक्षा, त्यों संयमी समरसी, सबकी उपेक्षा ॥३८०॥ आहार-पान-शयनादिक खूब पाते, पै अल्प में सकल कार्य सदा चलाते। सन्तोष-कोष, गतरोष अदोष साधु, वे धन्य धन्यतर हैं शिर मैं नवा दूँ ॥३८१॥ ना स्वप्न में न मन में न किसी दशा में, लेते नहीं अशन वे मुनि हैं निशा में। जिह्व-जयी जितकषाय जिताक्ष जोगी, कैसे निशाचर बनें, बनते न भोगी ॥३८२॥ आकीर्ण पूर्ण धरती जब थावरों से, सूक्ष्मातिसूक्ष्म जग जंगम जंतुओं से। वे रात्रि में न दिखते युग लोचनों से, कैसे बने अशन शोधन साधुओं से? ॥३८३॥
  18. (अ) समता ये वीतराग अनगार भदंत प्यारे, साधू ऋषी श्रमण संयत सन्त सारे। शास्त्रानुकूल चलते हमको चलाते, वन्दूँ उन्हें विनय से शिर को झुकाते ॥३३६॥ गंभीर नीर-निधि से, शशि से सुशान्त, सर्वंसहा अवनि से, मणि मंजुकान्त। तेजोमयी अरुण से, पशु से निरीह, आकाश से निरवलम्बन ही सदीह। निस्संग वायु सम, सिंह-समा प्रतापी, स्थायी रहे उरग से न कहीं कदापि। अत्यन्त ही सरल हैं मृग से सुडोल, जो भद्र हैं वृषभ से गिरि से अडोल। स्वाधीन साधु गज सादृश स्वाभिमानी, वे मोक्ष शोध करते सुन सन्त वाणी ॥३३७॥ हैं लोक में कुछ यहाँ फिरते असाधु, भाई तथापि सब वे कहलायें साधु। मैं तो असाधु-जन को कह दूँ न साधु, पै साधु के स्तवन में मन को लगा हूँ ॥३३८॥ सम्यक्त्व के सदन हो वर-बोध-धाम, शोभे सुसंयमतया तप से ललाम। ऐसे विशेष गुण आकर हो सुसाधु, तो बार-बार शिर मैं उनको नवा दूँ ॥३३९॥ एकान्त से ‘मुनि', न कानन-वास से हो, स्वामी नहीं ‘श्रमण' भी कचलोंच से हो। ओंकार जाप जप, ‘ब्राह्मण' ना बनेगा, छालादि को पहन, ‘तापस' ना कहेगा ॥३४०॥ विज्ञान पा नियम से ‘मुनि' हो यशस्वी, सम्यक्तया तप तपे तब हो ‘तपस्वी'। होगा वही 'श्रमण' जो समता धरेगा, पा ब्रह्मचर्य फिर ब्राह्मण' भी बनेगा ॥३४१॥ हो जाय साधु गुण पा, गुण खो असाधु, होवो गुणी, अवगुणी न बनो न स्वादु। जो राग रोष भर में समभाव धारें, वे वन्द्य पूज्य निज से निज को निहारें ॥३४२॥ जो देह में रम रहे विषयी कषायी, शुद्धात्म का स्मरण भी करते न भाई। वे साधु होकर बिना दृग, जी रहे हैं, पीयूष छोड़कर हा ! विष पी रहे हैं ॥३४३॥ भिक्षार्थ भिक्षु चलते बहु दृश्य पाते, अच्छे बुरे श्रवण में कुछ शब्द आते। वे बोलते न फिर भी सुन मौन जाते, लाते न हर्ष मन में न विषाद लाते ॥३४४॥ स्वाध्याय ध्यान तप में अति मग्न होते, जो दीर्घ काल तक हैं निशि में न सोते। तत्त्वार्थ चिन्तन सदा करते मनस्वी, निद्राजयी इसलिए बनते तपस्वी ॥३४५॥ जो अंग संग रखता ममता नहीं है, है संग-मान तजता समता धनी है। है साम्यदृष्टि रखता सब प्राणियों में, ओ साधु धन्य, रमता नहिं गारवों में ॥३४६॥ जो एक से मरण जीवन को निहारें, निन्दा मिले यश मिले सम भाव धारें। मानापमान, सुख-दुःख समान मानें, वे धन्य साधु, सम लाभ-अलाभ जानें ॥३४७॥ आलस्य-हास्य तज शोक अशोक होते, ना शल्य गारव कषाय निकाय ढोते। ना भीति बंधन-निदान-विधान होते, वे साधु वन्द्य हम को, मन-मैल धोते ॥३४८॥ हो अंग राग अथवा छिद जाय अंग, भिक्षा मिलो, मत मिलो इक सार ढंग। जो पारलौकिक न लौकिक चाह धारे, वे साधु ही बस! बसें उर में हमारे ॥३४९॥ हैं हेयभूत विधि आस्रव रोक देते, आदेय भूत वर संवर लाभ लेते। अध्यात्म ध्यान यम योग प्रयोग द्वारा, हैं साधु लीन निज में तज भोग सारा ॥३५०॥ जीतो सहो दृगसमेत परीषहों को, शीतोष्ण भीति रति प्यास क्षुधादिकों को। स्वादिष्ट इष्ट फल कायिक कष्ट देता, ऐसा ‘जिनेश' कहते शिव-पन्थ-नेता ॥३५१॥ शास्त्रानुसार तब ही तप साधना हो, ना बार-बार दिन में इक बार खाओ। ऐसा ऋषीश उपदेश सभी सुनाते, जो भी चले तदनुसार स्वधाम जाते ॥३५२॥ मासोपवास करना वनवास जाना, आतापनादि तपना तन को सुखाना। सिद्धान्त का मनन, मौन सदा निभाना, ये व्यर्थ हैं श्रमण के बिन साम्य बाना ॥३५३॥ विज्ञान पा प्रथम, संयत भाव धारो, रे! ग्राम में नगर में कर दो विहारो। संवेग शान्तिपथ पै गममान होवो, होके प्रमत्त मत गौतम! काल खोओ ॥३५४॥ होगा नहीं जिन यहाँ, जिन धर्म आगे, मिथ्यात्व का जब प्रचार नितान्त जागे। हे! भव्य गौतम! अतः अब धर्म पाया, धारो प्रमाद पल भी न, जिनेश गाया ॥३५५॥ हो बाह्य भेष न कदापि प्रमाण भाई देता जभी तक असंयत में दिखाई। रे ! वेष को बदल के विष जो कि पीता, पाता नहीं मरण क्या-रह जाय जीता? ॥३५६॥ हो लोक को विदित ये जिन साधु आये, शास्त्रादि साधन सुभेष अतः बनाये। औ बाह्य संयम न, लिंग बिना चलेगा, जो अंतरंग यम साधन भी बनेगा ॥३५७॥ ये दीखते जगत में मुनि साधुओं के, हैं भेष, नैक-विध भी गृहवासियों के। वे अज्ञ मूढ़ जिन को जब धारते हैं, है मोक्ष मार्ग यह यों बस मानते हैं ॥३५८॥ निस्सार मुष्टि वह अन्दर पोल वाली, बेकार नोट यह है नकली निराली। हो काँच भी चमकदार सुरत्न जैसा, ज्यों जौहरी परखता नहिं मूल्य पैसा। पूर्वोक्त द्रव्य जिस भाँति मुधा दिखाते, है मात्र भेष उस भाँति सुधी बताते ॥३५९॥ है भाव लिङ्ग वर मुख्य अतः सुहाता, है द्रव्य लिङ्ग परमार्थ नहीं कहाता। है भाव ही नियम से गुण दोष हेतु, होता भवोदधि वही भव-सिन्धु-सेतु ॥३६०॥ ये ‘‘भाव शुद्धतम हो'' जब लक्ष्य होता, है बाह्य संग तजना फलरूप होता। जो भीतरी कलुषता यदि ना हटाता, जो बाह्य त्याग उसका वह व्यर्थ जाता ॥३६१॥ जो अच्छ स्वच्छ परिणाम बना न पाते, पै बाहरी सब परिग्रह को हटाते। वे भाव-शून्य करनी करते कराते, लेते न लाभ शिव का, दुख ही उठाते ॥३६२॥ काषायिकी परिणती जिसने घटा दी, औ निन्द्य जान तन की ममता मिटा दी। शुद्धात्म में निरत है तज संग संगी, हो पूज्य साधु वह पावन भावलिंगी ॥३६३॥
  19. चारित्र-धारक गुरो! करुणा दिखा दो, चारित्र का विधि-विधान हमें सिखा दो। ऐसा सदैव कह श्रावक भव्य प्राणी, चारित्र धारण करें सुन सन्त वाणी ॥३०१॥ जो सप्तधा व्यसन सेवन त्याग देते, भाई कभी फल उदुम्बर खा न लेते। वे भव्य दार्शनिक श्रावक नाम पाते, धीमान धार दृग को निज धाम जाते ॥३०२॥ रे मद्यपान परनारि कुशील-खोरी, अत्यंत क्रूरतम दंड, शिकार चोरी। भाई असत्यमय भाषण द्यूत क्रीड़ा, ये सात हैं व्यसन, दें दिन रैन पीड़ा ॥३०३॥ है मांस के अशन से मति दर्प छाता, तो दर्प से मनुज को मद पान भाता। है मद्य पीकर जुआ तक खेल लेता, यों सर्व दोष करके दुख मोल लेता ॥३०४॥ रे मांस के अशन से जब व्योम गामी, आकाश से गिर गया वह विप्र स्वामी। ऐसी कथा प्रचलिता सबने सुनी है, वे मांस भक्षण अतः तजते गुणी हैं ॥३०५॥ जो मद्य पान करते मदमत्त होते, वे निन्द्य कार्य करते दुख बीज बोते। सर्वत्र दु:ख सहते दिन-रैन रोते, कैसे बने फिर सुखी जिन धर्म खोते ॥३०६॥ निष्कम्प मेरु सम जो जिन भक्ति न्यारी, जागी, विराग जननी उर मध्य प्यारी। वे शल्यहीन बनते रहते खुशी से, निश्चिंत हो, निडर, ना डरते किसी से ॥३०७॥ संसार में विनय की गरिमा निराली, है शत्रु मित्र बनता मिलती शिवाली। धारे अत: विनय श्रावक भव्य सारे, जावे सुशीघ्र भववारिधि के किनारे ॥३०८॥ हिंसा, मृषा वचन, स्तेय कुशीलता ये, मूच्र्छा परिग्रह इन्हीं वश हो व्यथाएँ। है पंच पाप इनका इक देश त्याग, होता ‘अणुव्रत' धरें जग जाय भाग ॥३०९॥ हा! बंध छेद वध निर्बल प्राणियों का, संरोध अन्न जल पाशव मानवों का। क्रोधादि से मत करो टल जाय हिंसा, जो एक देश व्रत पालक हो अहिंसा ॥३१०॥ भू-गो सुता-विषय में न असत्य लाना, झूठी गवाह न धरोहर को दबाना। यों स्थूल सत्य व्रत है यह पंचधा रे! मोक्षेच्छु श्रावक जिसे रुचि संग धारे ॥३११॥ मिथ्योपदेश न करो, सहसा न बोलो, स्त्री का रहस्य अथवा पर का न खोलो। ना कूटलेखन लिखो कुटिलाइता से, यों स्थूल सत्य-व्रत धार बचो व्यथा से ॥३१२॥ राष्ट्रानुकूल चलना ‘कर' ना चुराना, ले चौर्य द्रव्य नहिं चोरन को लुभाना। धंधा मिलावट करो न, अचौर्य पालो, हा! नाप-तौल नकली न कभी चला लो ॥३१३॥ स्त्री मात्र को निरखते अविकारता से, क्रीड़ा अनंग करते न निजी प्रिया से। होते कदापि न हि अन्य विवाह पोषी, कामी अतीव बनते न स्वदारतोषी ॥३१४॥ निस्सीम संग्रह परिग्रह का विधाता, है दोष का, बस रसातल में गिराता। तृष्णा अनंत बढ़ती सहसा उसी से, दीप्त ज्यों अनल दीपक तेल-घी से ॥३१५॥ गार्हस्थ्य के उचित जो कुछ काम के हैं, सागार सीमित परिग्रह को रखे हैं। सम्यक्त्व धारक उसे न कभी बढ़ावें, रागाभिभूत मन को न कभी बनावें ॥३१६॥ अत्यल्प ही कर लिया परिमाण भाई! लेऊँ पुनः कुछ जरूरत जो कि आई। ऐसा विचार तक ना तुम चित्त लाओ, संतोष धार कर जीवन को चलाओ ॥३१७॥ है सात शील व्रत श्रावक भव्य प्यारे! सातों व्रतों फिर गुणव्रत तीन न्यारे। देशावकाशिक दिशा विरती सुनो रे!‘आनर्थ दण्ड विरती' इनको गुणो रे ॥३१८॥ सीमा विधान करना हि दशों दिशा में, माना गया वह दिशाव्रत है धरा में। आरम्भ सीमित बने इस कामना से, सागार साधन करे इसका मुदा से ॥३१९॥ होते विनष्ट व्रत हो जिस देश में ही, जाओ वहाँ मत कभी तुम स्वप्न में भी। देशावकाशिक वही ऋषि देशना है, धारो उसे विनशती चिर वेदना है ॥३२०॥ हैं व्यर्थ कार्य करना हि अनर्थदण्ड, हैं चार भेद इसके अघ श्वभ्र कुंड। हिंसोपदेश, अति हिंसक शस्त्र देना, दुर्ध्यान यान चढ़ना, नित मत्त होना। होना सुदूर इनसे बहु कर्म खोना, आनर्थ दण्ड विरती तुम शीघ्र लो ना ॥३२१॥ अत्यल्प बंधन अवश्यक कार्य से हो, अत्यंत बंध अनवश्यक कार्य से हो। कालादि क्योंकि इक में सहयोगि होते, पै अन्य में जब अपेक्षित वे न होते ॥३२२॥ ज्यादा बको मत रखो अघ शस्त्र को भी, तोड़ो न भोग परिमाण बनो न लोभी। भद्दे कभी वचन भी हँसते न बोलो, ना अंग व्यंग करते दृग मीच खोलो ॥३२३॥ है संविभाग अतिथिव्रत मोक्षदाता, भोगोपभोग परिमाण सुखी बनाता। शुद्धात्म सामयिक प्रोषध से दिखाता, यों चार शैक्ष्यव्रत हैं यह छंद गाता ॥३२४॥ ना कंद मूल फल फूल-पलादि खाओ, रे! स्वप्न में तक इन्हें मन में न लाओ। औ क्रूर कार्य न करो, न कभी कराओ, आजीविका बन अहिंसक ही चलाओ। यों कार्य का अशन का परिमाण बाँधो, भोगोपभोग परिमाण सहर्ष साधो ॥३२५॥ उत्कृष्ट, सामयिक से गृह धर्म भाता, सावद्य कर्म जिससे कि विराम पाता। यों जान मान बुध हैं अघ त्याग देते, आत्मार्थ सामयिक साधन साध लेते ॥३२६॥ सागार सामयिक में मन ज्यों लगाता, सच्चे सुधी श्रमण के सम साम्य पाता। हे भव्य! सामयिक को अतएव धारो, भाई किसी तरह से निज को निहारो ॥३२७॥ आ जाय सामायिक में यदि अन्य चिन्ता, तो आर्तध्यान बनता दुख दे तुरन्ता। निस्सार सामयिक हो उसका नितान्त, संसार हो फिर भला किस भाँति सांत? ॥३२८॥ संस्कार है न तन का न कुशीलता है, आरम्भ ना अशन प्रोषध में तथा है। लो पूर्ण त्याग इनका इक देश या लो, धारो सुसामयिक, प्रोषध पूर्ण पा लो ॥३२९॥ दो शुद्ध अन्न यति को समयानुकूल, देशानुकूल, प्रतिकूल कभी न भूल। तो संविभाग अतिथिव्रत ओ बनेगा, रे! स्वर्ग मोक्ष क्रमवार अवश्य देगा ॥३३०॥ आहार औ अभय औषध और शास्त्र, ये चार दान जग में सुख-पूर-पात्र। दातव्य हैं अतिथि के अनुसार चारों, ‘सागार शास्त्र' कहता, धन को बिसारो ॥३३१॥ सागार मात्र इक भोजन दान से भी, लो धन्य धन्यतम हो धनवान से भी। दुःपात्र पात्र इस भाँति विचार से क्या? लेआम पेट भर ले!! बस पेड़ से क्या? ॥३३२॥ शास्त्रानुकूल जल अन्न दिये न जाते, भिक्षार्थ भिक्षुक वहाँ न कदापि जाते। वे धीर वीर चलते समयानुकूल, लेते न अन्न प्रतिकूल कदापि भूल ॥३३३॥ सागार जो अशन को मुनि को खिलाके, पश्चात् सभी मुदित हों अवशेष पाके। वे स्वर्ग मोक्ष क्रमवार अवश्य पाते, संसार में फिर कदापि न लौट आते ॥३३४॥ जो काल से डर रहे उनको बचाना, माना गया अभयदान अहो सुजाना! है चंद्रमा अभयदान ज्वलन्त दीखे, तो शेष दान उडु हैं पड़ जाय फीके ॥३३५॥
  20. सन्मार्ग हैं श्रमण श्रावक भेद से दो, उन्मार्ग शेष, उनको तज शीघ्र से दो। मृत्युंजयी अजर हैं अज हैं बली हैं, ऐसा सदा कह रहे ‘जिन केवली' हैं ॥२९६॥ ‘स्वाध्याय ध्यान' यति धर्म प्रधान जानो, भाई बिना न इनके यति को न मानो। है धर्म, श्रावक करे नित दान पूजा, ऐसा करें न, वह श्रावक है न दूजा ॥२९७॥ होता सुशोभित पदों अपने गुणों से, साधु सुसंस्तुत वही सब श्रावकों से। पै साधु हो यदि परिग्रह भार धारे, सागार श्रेष्ठ उनसे गृहधर्म पा रे ॥२९८॥ कोई प्रलोभवश साधु बना हुआ हो, पै शक्तिहीन व्रत पालन में रहा हो। तो श्रावकाचरण ही करता कराता, ऐसा जिनेश मत है हमको बताता ॥२९९॥ श्री श्रावकाचरण में व्रत पंच होते, हैं सात शील व्रत ये विधि पंक धोते। जो एक या इन व्रतों सबको निभाता, है 'भक्त श्रावक' वही जग में कहाता ॥३००॥
  21. आ गई वो घडी,उलटी गिनती शुरु। एक सपना था संयम स्वर्ण महोत्सब मनाने का,गुरुजी का आशिर्वाद मिला और मन खुशी से झुम उठा। 5 जुलाई को हम सब मिल गुरुवर का जयकारा लगाएगे कि सुन हमारी पुकार ,गुरु जी चरण या गुरुजी की छाया को मुम्बई मे आना होगा। और वो हम करके दिखलाएँगे।हम प्रतिदिन प्रगतिशील समाज मे देख रहे है कि उन्नति तो कर ली किन्तु हर समाज मे उसके नुकसान देखने को मिलते।अहंकार जब हावी होता तब व्यक्ति सब मर्यादा भुल, सप्त व्यसनो मे लिप्त हो परिवार बरबाद कर देता। आओ आज देखे अहंकार के दुष्परिणाम और हमारी प्रस्तुति ...... OLX PAR BECH DE “अहंकार का दहन" तारक मेहता का उल्टा चश्मा के सेलेब्रिटी संग।। उच्च पद पर कार्यरत जैन बंधुओं का सत्कार जीव दया का प्रण लेते हुए चमड़े की वस्तु का त्याग कराने फॉर्म का विमोचन दिनांक -5 जुलाई 2018 को समय-दोपहर 2 बजे से 5 बजे स्थान-मैसूर असोसीएशन ऑडिटोरियम, भाऊदाजी रोड, माटुंगा Mysore Association Auditorium 393, Bhaudaji Rd, Matunga, Mumbai, Maharashtra 400019 022 2402 4647 https://goo.gl/maps/WQ5prt3Zeqm
  22. उद्बोध प्राप्त कर लो गुरु गीत गा लो, जीतो क्षुधा, विषय से मन को बचा लो। निद्राजयी बन दृढ़ासन को लगालो,पश्चात् सभी तुम निजातम ध्यान पालो ॥२८८॥ संपूर्ण ज्ञान-मय ज्योति शिखा जलेगी, अज्ञान मोह-तम रात तभी मिटेगी। हो नष्ट रागरति रोषमयी प्रणाली, उत्कृष्ट सौख्य मिलता, मिटती भवाली ॥२८९॥ दुःसंग से बच जिनागम चित्त देना, एकांत वास करना धृति धार लेना। सूत्रार्थ चिंतन तथा गुरु-वृद्ध सेवा, ये ही उपाय शिव के मिल जाय मेवा ॥२९०॥ हो चाहते मुनि पुनीत समाधि पाना, साथी, व्रती श्रमण या बुध को बनाना। एकांतवास करना भय त्याग देना, शास्त्रानुसार मित भोजन मात्र लेना ॥२९१॥ जो अल्प, शुद्ध, तप वर्धक अन्न लेते, क्या वैद्य औषध उन्हें कुछ काम देते। ना गृद्धता अशन में रखते न लिप्सा, वे वैद्य हो, कर रहे अपनी चिकित्सा ॥२९२॥ प्रायः अतीव रससेवन हानिकारी, उन्मत्तता उछलती उससे विकारी। पक्षी समूह, फल-फूल लदे द्रुमों को, ज्यों कष्ट दें, मदन त्यों विषयी जनों को ॥२९३॥ जो सर्व-इन्द्रिय जयी मित भोज पाते, एकांत में शयन आसन भी लगाते। रागादि दोष, उनको लख काँप जाते, पीते दवा उचित, रोग विनाश पाते ॥२९४॥ आ, व्याधियाँ न जब लौं तुमको सताती, आती जरा न जब लौं तन को सुखाती। ना इन्द्रियाँ शिथिल हों जब लौं तुम्हारी, धारो स्वधर्म तब लौं शिव सौख्यकारी ॥२९५॥
  23. व्यवहार चारित्र सूत्र होते सुनिश्चय-नयाश्रित वे अनूप, चारित्र और तप निश्चय सौख्य कूप। पै व्यावहार-नय-आश्रित ना स्वरूप, चारित्र और तप वे व्यवहार रूप ॥२६२॥ जो त्यागना अशुभ को शुभ को निभाना, मानो उसे हि व्यवहार चरित्र बाना। ये गुप्तियाँ समितियाँ व्रत आदि सारे, जाते सदैव व्यवहारतया पुकारें ॥२६३॥ चारित्र के मुकुट से सिर ना सजोगे, आरूढ़ संयममयी रथ पै न होगे। स्वाध्याय में रत रहो तुम तो भले ही, ना मुक्ति-मंजिल मिले, दुख ना टले ही ॥२६४॥ देता क्रिया रहित ज्ञान नहीं विराम, मार्गज्ञ हो यदि चलो न, मिले न धाम। किंवा नहीं यदि चले अनुकूल वात, पाता न पोत तट को यह सत्य बात ॥२६५॥ चारित्र-शुन्य नर जीवन ही व्यथा है, तो आगमाध्ययन भी उसकी वृथा है। अन्धा-कदापि कुछ भी जब ना लखेगा, जाज्वल्यमान कर दीपक क्या करेगा? ॥२६६॥ अत्यल्प भी बहुत है श्रुत ही उन्हीं का, जो संयमी, सतत ध्यान धरूं उन्हीं का। सागार का बहुत भी श्रुत बोध'भारा', चारित्र को न जिसने उर में सुधारा ॥२६७॥ निश्चय चारित्र आत्मार्थ आतम निजातम में समाता, सच्चा सुनिश्चय चरित्र वही कहाता। है भव्य पावन पवित्र चरित्र पालो, पालो अपूर्व पद को, निज को दिपालो ॥२६८॥ शुद्धात्म को समझ के परमोपयोगी, है पाप-पुण्य तजता, धर योग योगी। ओ निर्विकल्प-मय चारित है कहाता, मेरे समा निकट भव्यन को सुहाता ॥२६९॥ रागाभिभूत बन तू पर को लखेगा, भाई शुभाशुभ विभाव खरीद लेगा। तो वीतराग मय चारित से गिरेगा, संसार बीच पर-चारित से फिरेगा ॥२७०॥ हो अन्तरंग बहिरंग निसंग नंगा, शुद्धात्म में विचरता जब साधु चंगा। सम्यक्त्व बोधमय आतम देख पाता, आत्मीय चारित सुधारक है कहाता ॥२७१॥ आतापनादि तप से तन को तपाना, अध्यात्म से स्खलित हो व्रत को निभाना। है मित्र! बाल तप संयम ओ कहाता, ऐसा जिनेश कहते, भव में घुमाता ॥२७२॥ लो! मास-मास उपवास करे रुची से, अत्यल्प भोजन करे, न डरे किसी से। पै आत्मबोध बिन मूढ़ व्रती बनेगा, ना धर्म लाभ लवलेश उसे मिलेगा ॥२७३॥ चारित्र ही परम धर्म यथार्थ में है, साधू जिसे शममयी लख साधते हैं। मोहादि से रहित आतम भाव प्यारा, माना गया समय में शम साम्य सारा ॥२७४॥ मध्यस्थ भाव समभाव, विराग भाव, चारित्र, धर्ममय भाव, विशुद्ध भाव। आराधना स्वयम की पद सात सारे, हैं भिन्न-भिन्न, पर आशय एक धारे ॥२७५॥ शास्त्रज्ञ हो श्रमण हो समधी तपस्वी, हो वीतराग व्रत संयम में यशस्वी। जो दुःख में व सुख में समता रखेगा, शुद्धोपयोग उस ही क्षण में लखेगा ॥२७६॥ शुद्धोपयोग दृग है वर बोध-भानु, निर्वाण सिद्ध शिव भी उसको हि जानूँ। मानूं उसे श्रमणता मन में बिठा लूं, वन्दूं उसे नित, नमूं निज को जगा हूँ ॥२७७॥ शुद्धोपयोग-वश साधु सुसिद्ध होते, स्वात्मोत्थ-सातिशय शाश्वत सौख्य जोते। जाती कही न जिसकी महिमा कभी भी, अन्यत्र छोड़ जिसको सुख ना कहीं भी ॥२७८॥ वे मोह राग रति रोष नहीं किसी से, धारें सुसाम्य सुख में दुख में रुची से। होके बुभुक्षु न हि भिक्षु मुमुक्षु हो के, आते हुए सब शुभाशुभ कर्म रोके ॥२७९॥ समन्वय सूत्र है वीतराग व्रत साध्य सदा सुहाता, होता सराग व्रत साधन, साध्यदाता। तो पूर्व साधन, अनन्तर साध्य धारो, संपूर्ण बोध मिलता, शिव को पधारो ॥२८०॥ त्यों भीतरी कलुषता मिटती चलेगी, त्यों बाहरी विमलता बढ़ती बढ़ेगी। देही प्रदोष मन में रखता जभी है, ओ! बाह्य दोष सहता, करता तभी है। रे! पंक भीतर सरोवर में रहा है, जो बाह्य में जल कलंकित हो रहा है ॥२८१॥ मायाभिमान मद मोह विहीन होना, है भाव शुद्धि, जिससे शिव सिद्धि लो ना। आलोक से सकल लोक अलोक देखा, यों वीर ने सदुपदेश दिया सुरेखा ॥२८२॥ जो पंच पाप तज, पावन पुण्य पाता, हो दूर भी अशुभ से शुभ को जुटाता। रागादि भाव फिर भी यदि ना तजेगा, शुद्धात्म को न मुनि होकर भी भजेगा ॥२८३॥ तो आदि में अशुभ को, शुभ से मिटाओ, शुद्धोपयोग बल से, शुभ को हटाओ। यों ही अनुक्रमण से कर कार्य योगी, ध्याओ निजात्म-जिनको,सुख शांति होगी॥२८४॥ चारित्र नष्ट जब हो दृग बोध घाते, जाते सुनिश्चय सही रह वे न पाते। हो या न हो विलय पै दृग बोध का रे! जावे चरित्र, मत यों व्यवहार का रे ॥२८५॥ श्रद्धा पुरी सुरपुरी सम जो सजाओ, ताला वहाँ सुतप संवर का लगाओ। पातालगामिनि क्षमामय खातिका हो, प्राकार गुप्तिमय हो नभ छू रहा हो ॥२८६॥ औ धैर्य से धनुष-त्यागमयी सुधारो, सद्ध्यान बाण बल से विधि को विदारो। जेता बनो विधि रणांगन के मुनीश! होओ विमुक्त भव से जगदीश धीश ॥२८७॥
  24. सत् शास्त्र को सुन, हिताहित बोध पाओ, आदेय हेय समझो, सुख चूँकि चाहो। आदेय को झट भजो, तज हेय भाई! इत्थं न हो कुगति से पुनि हो सगाई ॥२४५॥ आदेश, ज्ञान प्रभु का शिव पंथ पंथी, पाके स्व में विचरते, तज सर्वग्रंथि। सम्यक्त्व योग तप संयम ध्यान धारे, काटें कुकर्म, निज जीवन को सुधारें ॥२४६॥ ज्यों ज्यों श्रुताम्बुनिधि में डुबकी लगाता, त्यों त्यों व्रती नव नवीन प्रमोद पाता। वैराग्य भाव बढ़ता श्रुतभावना हो, श्रद्धान हो दृढ़, नहीं फिर वासना हो ॥२४७॥ सूची भले ही कर से गिर भी गई हो, खोती कभी न यदि डोर लगी हुई हो। देही ससूत्र यदि हो श्रुत बोध वाला, होता विनष्ट भव में न, रहे खुशाला ॥२४८॥ भाई भले तुम बनो बुध मुख्य नेता, वक्ता कवी विविध-वाड्मय वेद वेत्ता। आराधना यदि नहीं दृग की करोगे, तो बार-बार तन धार दुखी बनोगे ॥२४९॥ तू राग को तनिक भी तन में रखेगा, शुद्धात्म को फिर कदापि नहीं लखेगा। होगा विशारद जिनागम में भले ही, आत्मा त्वदीय दुख से भव में रुले ही ॥२५०॥ आत्मा न आतम अनातम को लखेगा, सम्यक्त्वपात्र किस भाँति अहो बनेगा। आचार्य देव कहते बन वीतरागी, क्यों व्यर्थ दुःख सहता, तज राग रागी ॥२५१॥ तत्त्वावबोधि सहसा जिससे जगेगा, चांचल्यचित्त जिससे वश में रहेगा। आत्मा विशुद्ध जिससे शशि सा बनेगा, होगा वही ‘विमलज्ञान' स्व-सौख्य देगा ॥२५२॥ माहात्म्य ज्ञान गुण का यह मात्र सारा, रागी विराग बनता तज राग खारा। मैत्री सदैव जग से रखता सुचारा, शुद्धात्म में विचरता, सुख का अपारा ॥२५३॥ आत्मा अनंत, निज शून्य उपाधियों से, अत्यन्त भिन्न पर से, विधि बंधनों से। ऐसा निरंतर निजातम देखते हैं, वे ही समग्र जिनशासन जानते हैं ॥२५४॥ हूँ काय से विकल, केवल केवली हूँ, मैं एक हूँ विमल ज्ञायक हूँ बली हूँ। जो जानता स्वयं को इस भाँति स्वामी, निर्धान्त हो वह जिनागम पारगामी ॥२५५॥ साधू समाधिरत हो निज को विशुद्ध, जाने, बने सहज शुद्ध अबद्ध बुद्ध। रागी स्व को समझ राग-मयी विचारा, होता न मुक्त भव से ,दुख हो अपारा ॥२५६॥ जो जानते मुनि निजातम को यदा हैं, वे जानते नियम से पर को तदा हैं। है जानना स्वपर को इक साथ होता, ऐसा जिनागम रहा, दुख सर्व खोता ॥२५७॥ जो एक को सहज से मुनि जानते हैं, वे सर्व को समझते जब जागते हैं। यों ईश का सदुपदेश सुनो हमेशा, संक्लेश द्वेष तज शीघ्र बनो महेशा ॥२५८॥ सद्बोधि रूप सर में डुबकी लगा ले, संतप्ता तू स्नपित हो सुख तृप्ति पा ले। तो अंत में बल अनंत ज्वलंत पाके, विश्राम ले, अमित काल स्वधाम जाके ॥२५९॥ अर्हन्त स्वीय गृह को द्रुत जा रहे हैं, वे शुद्ध-द्रव्य गुण पर्यय पा रहे हैं। जो जानता यति उन्हें निज जानता है, संमोह कर्म उसका झट भागता है ॥२६०॥ ज्यों वित्त बाँट स्वजनों नहिं दूसरों में, भोगी सुभोग करता दिन रात्रियों में। पा नित्य-ज्ञान निधि,नित्य नितांत ज्ञानी, त्यों हो सुखी,न रमता पर में अमानी ॥२६१॥
  25. व्यवहार सम्यक्त्व और निश्चय सम्यक्त्व सम्यक्त्व, रत्नत्रय में वर मुख्य नामी, है मूल मोक्ष तरु का, तज काम कामी। है एक निश्चय तथा व्यवहार दूजा, होते द्वि भेद, उनकी कर नित्य पूजा ॥२१९॥ तत्त्वार्थ में रुचि भली भव सिन्धु सेतु, सम्यक्त्व मान उसको व्यवहार से तू। सम्यक्त्व निश्चयतया निज आतमा ही, ऐसा जिनेश कहते शिव-राह राही ॥२२०॥ कोई न भेद, दृग में, मुनि मौन में है, माने इन्हें सुबुध ‘एक' यथार्थ में है। होता अवश्य जब निश्चय का सुहेतु, सम्यक्त्व मान व्यवहार, सदा उसे तू ॥२२१॥ योगी बनो अचल मेरु बनो तपस्वी, वर्षों भले तप करो, बन के तपस्वी। सम्यक्त्व के बिन नहीं तुम बोधि पाओ, संसार में भटकते दुख ही उठाओ ॥२२२॥ वे भ्रष्ट हैं पतित, दर्शन भ्रष्ट जो हैं, निर्वाण प्राप्त करते न निजात्म को हैं। चारित्र भ्रष्ट पुनि चारित ले सिजेंगे, पै भ्रष्ट दर्शन तया नहिं वे सिजेंगे ॥२२३॥ जो भी सुधा दृगमयी रुचि संग पीता, निर्वाण पा अमर हो, चिरकाल जीता। मिथ्यात्व रूप मद पान अरे! करेगा, होगा सुखी न, भव में भ्रमता फिरेगा ॥२२४॥ अत्यन्त श्रेष्ठ दृग ही जग में सदा से, माना गया जड़मयी सब सम्पदा से। तो मूल्यवान, मणि से कब काँच होता? स्वादिष्ट इष्ट, घृत से कब छांछ होता ॥२२५॥ होंगे हुए परम आतम हो रहे हैं, तल्लीन आत्म सुख में नित ओ रहे हैं। सम्यक्त्व का सुफल केवल ओ रहा है, मिथ्यात्व से दुखित हो जग रो रहा है ॥२२६॥ ज्यों शोभता कमलिनि दृगमंजु पत्र, हो नीर में न सड़ता रहता पवित्र। त्यों लिप्त हो विषय से न, मुमुक्षु प्यारे, होते कषाय मल से अति दूर न्यारे॥२२७॥ धारें विराग दृग जो जिन धर्म पाके, होते उन्हें विषय, कारण निर्जरा के। भोगोपभोग करते सब इन्द्रियों से, साधू सुधी न बँधते विधि-बंधनों से ॥२२८॥ वे भोग भोग कर भी बुध हो न भोगी, भोगे बिना जड़ कुधी बन जाय भोगी। इच्छा बिना यदि करें कुछ कार्य त्यागी, कर्त्ता कथं फिर बने?उनका विरागी ॥२२९॥ ये काम भोग न तुम्हें समता दिलाते, भाई! विकार तुम में न कभी जगाते। चाहो इन्हें यदि डरो इनसे जभी से, पाओ अतीव दुख को सहसा तभी से ॥२३०॥ सम्यग्दर्शन अंग ये अष्ट अंग दृग के, विनिशंकिता है, नि:कांक्षिता विमल निर्विचिकित्सिता है। चौथा अमूढ़पन है उपगूहना को, धारो स्थितीकरण वत्सल भावना को ॥२३१॥ नि:शंक हो निडर हो सम-दृष्टि वाले, सातों प्रकार भय छोड़ स्वगीत गा लें। नि:शंकिता अभयता इक साथ होती, है भीति ही स्वयम हो भयभीत रोती ॥२३२॥ कांक्षा कभी न रखता जड़ पर्ययों में, धर्मों-पदार्थ दल के विधि के फलों में। होता वही मुनि निकांक्षित अंगधारी, वंदूँ उन्हें बन सकें द्रुत निर्विकारी ॥२३३॥ सम्मान पूजन न वंदन जो न चाहे, ओ क्या कभी श्रमण हो निज ख्याति चाहे? हो संयमी यति व्रती निज आत्म खोजी, हो भिक्षु तापस वही उसको नमो जी ॥२३४॥ हे योगियो! यदि भवोदधि पार जाना, चाहो अलौकिक अपार स्वसौख्य पाना। क्यों ख्याति-लाभनिज पूजन चाहते हो? क्या मोक्ष धाम उनसे तुम मानते हो ॥२३५॥ कोई घृणास्पद नहीं जग में पदार्थ, सारे सदा परिणमे निज में यथार्थ। ज्ञानी न ग्लानि करते फलतः किसी से, धारे तृतीय दृग अंग तभी खुशी से ॥२३६॥ ना मुग्ध मूढ़ मुनि हो जग वस्तुओं में, हो लीन आप अपने-अपने गुणों में। वे ही महान समदृष्टि अमूढदृष्टि, नासाग्र-दृष्टि रख नाशत कर्म-सृष्टि ॥२३७॥ चारित्र बोध दुग से निज को सजाओ, धारो क्षमा तप तपो विधि को खपाओ। माया-विमोह-ममता तज मार मारो, हो वर्धमान, गतमान, प्रमाण धारो ॥२३८॥ शास्त्रार्थ गौण न करो, न उसे छुपाओ, विज्ञान का मद घमंड नहीं दिखाओ। भाई किसी सुबुध की न हँसी उड़ाओ, आशीष दो न पर को,पर को भुलाओ ॥२३९॥ ज्यों ही विकार लहरें मन में उठे तो, तत्काल योग त्रय से उनको समेटो। औचित्य अश्व जब भी पथ भूलता हो, ले लो लगाम कर में अनुकूलता हो ॥२४०॥ हे! भव्य गौतम! भवोदधि तैर पाया, क्यों व्यर्थ ही रुक गया तट पास आया। ले ले छलांग झट से अब तो धरा पै, आलस्य छोड़ वरना दुख ही वहाँ पै ॥२४१॥ श्रद्धा समेत चलते बुध धार्मिकों की, सेवा सुभक्ति करते उनके गुणों की। मिश्री मिले वचन जो नित बोलते हैं, वात्सल्य अंग धरते, दृग खोलते हैं ॥२४२॥ योगी सुयोगरत हो गिरि हो अकम्पा, धारो सदैव उर जीव दयाऽनुकम्पा। धर्मोपदेश नित दो तज वासना को, ऐसा करो कि जिन धर्म प्रभावना हो ॥२४३॥ वादी सुतापस निमित्त सुशास्त्र ज्ञाता, श्री सिद्धिमान, वृष के उपदेश दाता। विद्या-विशारद, कवीश विशेषवक्ता, होता प्रचार इनसे वृष की महत्ता ॥२४४॥
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