सुना है
जब कंस करता है अत्याचार
तब धरा पर आता है कोई कृष्ण बनकर,
जब हिंसा का तांडव नृत्य हो रहा था
तब भू पर आया कोई वीर बनकर,
रावण के आतंक से मुक्ति दिलाने
आये मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम बनकर,
जब संस्कृति पर हो रहा कुठाराघात
तब दक्षिण से उत्तर में आये ।
गुरुवर विद्यासागर बनकर…
कुंठित होती प्रतिभाओं को
देकर अपना जादुई आशीर्वाद
प्रतिभास्थली का रूप देकर
जगाया जन-जन का सौभाग्य,
किया संस्कारों का शंखनाद...
जहाँ शिक्षिकाएँ हैं उच्च शिक्षा संपन्न
बाल ब्रह्मचारिणी द्वारा होता अध्यापन,
सर्वाङ्गीण होता यहाँ विकास
देख जबलपुर, रामटेक, डोंगरगढ़ की प्रतिभास्थली
आती है तक्षशिला और नालंदा की याद।
प्राचीन गुरुकुलों की पवित्र जीवनशैली
इन विद्यालयों में झलक रही...
कन्याएँ पढ़ने को यहाँ ललक रहीं!
अन्य दिल्ली इंदौर मढ़ियाजी
वहाँ भी समुचित व्यवस्था है विद्यार्जन की,
यह सब गुरु-कृपा का फल है।
अन्यथा लोगों के विचारों में क्या बल है?
मन में विचार मकड़ी के तंतु से भी अधिक हैं कोमल
उसे टूटते देर नहीं लगती,
फहराती पताका के समान हैं अस्थिर
उसे दिशा बदलने में देर नहीं लगती
बहते स्पंदन” की भाँति हैं तरल
उसे गति बदलने में देर नहीं लगती
समुद्र की लहरों के समान हैं चंचल
उसे उसी के अंदर समाने में देर नहीं लगती।
जानते हैं यह गुरूवर
कि खाली दिमाग शैतान का घर
ज्ञान से भरा दिमाग भगवान का घर।
कोई न रहे बेरोजगार
स्वाभिमानी बन पाये स्वरोजगार
इस हेतु गाँधी का हथकरघा चलायें
स्वाधीन अहिंसक पद्धति अपनायें।
परापेक्षी पराधीन हो जीता है दीनहीन-सा ।
स्वावलंबी निजाधीन हो जीता है मालिक-सा ।
प्राचीन भारतीय अर्थव्यवस्था के
प्रमुख घटक कृषि व हथकरघा थे,
इसी से भारत था सोने की चिड़िया
रोटी, कपड़ा और मकान
मूलभूत थी आवश्यकता ये।
रोटी पाते कृषि से
कपड़ा हथकरघा से ।
मकान गाँव की माटी से,
यों स्वदेशी वस्तुएँ अपनाते
भारत का भाग्य चमकाते,
भारतीय हथकरघा ब्रांड है।
आज भी इसकी बहुत माँग है,
किंतु भारत को इंडिया बनाने की चाह में
पाश्चात्य विकृति के दुष्प्रभाव में
अपने ही पैरों पर मारी कुल्हाड़ी
जिससे तेजी से फैली
भुखमरी बेरोजगारी...
आज लोकतंत्र में पल रहा लोभतंत्र
लोकतंत्र में दृष्टि होती चेतन की ओर
किंतु लोभतंत्र में होती है अचेतन की ओर...
वर्तमान प्रधानमंत्री का कहना है
गुलामी से मुक्ति के लिए।
हथकरघा एक सशक्त हथियार था।
तो
आज़ाद भारत में गरीबी से मुक्ति के लिए
आज भी यह हथियार बन सकता है।
आचार्य भगवंत की दूरदर्शिता ने
आर्थिक सुरक्षा के साथ
नैतिक हो उन्नति सं
स्कृति, चारित्र व धर्म हो सुरक्षित
यह विचार कर
हथकरघा का दिया उपदेश,
जाति, संप्रदाय से परे
संत का पाकर संदेश
कई ब्रह्मचारी गुरु भक्त
बड़े-बड़े पदों का कर
त्याग गाँव, नगर, घर-घर
खुलवाने लगे हथकरघा।
इस योजना में लाभ ही लाभ है।
इससे आर्थिक सशक्तता
घर-घर रोजगार की उपलब्धता झालधारा
राष्ट्र निर्माण में सहभागिता
कार्य-प्रणाली में स्वाधीनता
आत्म-निर्भरता
भारतीय संस्कृति की सुरक्षा,
साथ ही कौशल का विकास
आर्थिक गुलामी का विनाश
हो जाता है स्वयमेव।
धन्य हैं महासंत!
जिन्हें अपनी-सी लगती समूची वसुधा
भारत की धरा पर विहार करते गुरुवर...
न जाने कब पहुँच जाते।
अपने अंतर्जगत् में,
वैसे बाहर का विहार-पथ
तय किया जाता है चलकर,
लेकिन आत्म विहार-पथ
तय करते हैं उपयोग को स्थिर कर।
बाह्य विहार में थकते हैं चरण,
किंतु अंतर्विहार में सुख पाता है चेतन...
यूँ अनुभव कर
निजात्मा को निहारते हैं।
जनमानस की सुषुप्त चेतना को जगाते हैं।
कहते गुरूदेव-अरे प्राणियों!
खानपान यदि करोगे दूषित
तो मन कैसे होगा पवित्र?
जैसा करोगे भोजन वैसा होगा भजन
इसीलिए शुद्ध पद्धति से उत्पन्न हो
छने जल से खाद्य-पेय का निर्माण हो।
भारत स्वाधीन बने जिससे
‘पूरी मैत्री' नाम दिया इसे
पूरे जीवों से मैत्री भाव हो ।
एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक
किसी का न घात हो
अहिंसा की बात हो
निश्छल मन से अर्थ कमाये ।
बच्चों को शुद्ध शाकाहारी बनाये…
क्योंकि अब तो
बच्चों के बिस्कुट गोली में मिलावट
जहाँ देखो वहाँ...
खाद्य पदार्थों में मिलावट
पानी से वाणी तक दूषित
अन्न से मन तक दूषित,
कहीं सुअर की चर्बी, ।
तो कहीं गाय की चर्बी,
मांस भक्षी निर्दयी
जीव नभ के सब जीव खा गये
बच गया हवाईजहाज!
जल के सब जीव कर गये भक्षण
बच गया केवल जहाज!
थल के सब चौपाए खा गये
बच गई मात्र चारपाई।
हाय! कैसी दुनिया में
हिंसा की मची तबाही!!
कुछ कहा नहीं जाता
इन मूक जीवों का दर्द सहा नहीं जाता...
फिर भी बैठे सब हाथ पर हाथ धरकर
तभी गुरूवर आये धर्मदूत बनकर
जिनकी हर श्वास में दया की आहट है।
जिनकी हर धड़कन में करुणा का प्रवाह है।
जिनकी हर सोच में सागर से अधिक गहनता
परमाणु से अधिक सूक्ष्मता ।
इसीलिए मिल रही अब शुद्ध भोजन की सामग्री
खुल गई है पूरी मैत्री।
लक्ष्य है भोजन शुद्धि का
आत्मा में विशुद्धि हो,
उद्देश्य है भाग्योदय का
प्रत्येक मानव निरोगी हो,
इस हेतु गुरु आशीष से ।
‘सागर' में हुआ भाग्य का उदय
जनसंकुल से भक्ति-भरा पूँजा स्वर
जयवंत हो गुरू करूणाम!
पद प्रतिष्ठा पैसा परिवार
इन सबसे थक हारकर
इंसान पाना चाहता है शरण भगवान की
भगवान हैं तो भक्त है।
धार्मिक हैं तो धर्म है।
संस्कार हैं तो संस्कृति है।
सन्मति है तो सद्गति है।
जिनसंस्कृति की हो चिर सुरक्षा
यही है आचार्यश्री की भावना
इस हेतु बुंदेलखंड का प्रधान ।
कुंडलपुर में हुआ विशाल मंदिर का निर्माण
पाषाण से जो निर्मित है।
बड़े बाबा की जहाँ अप्रतिम मूरत है।
और भी अनेकों हैं जिनालय
निर्माणाधीन हैं सहस्रकूट आदि चैत्यालय।
अमरकंटक क्षेत्र सर्वोदय
सुंदर छटा मनहर प्रकृतिमय
ऋषभदेव का मंदिर उन्नत
बारीक शिल्पकला को लखकर
दर्शक का मन होता हर्षित
जय-जय गुरुवर जन-जन वंदित,
नेमावर सिद्धोदय भू पर
त्रिकाल चौबीसी जिनगृह सुंदर
त्यागी व्रतीजनों का आश्रम,
चंद्रगिरि डोंगरगढ़ प्यारा-
बनी विशाल पत्थर की प्रतिमा
हैं जिनभवन त्रिकालचौबीसी
सब निर्माणाधीन अभी भी, ।
रामटेक में मन रुक जाता
जो भी जिनगृह दर्शन पाता...
नगर नागपुर, सागर में भी
भाग्योदय के प्रांगण में भी
जबलपुर की मढ़ियाजी में
जिला रायसेन सिलवानी
बीना बारहा, कोनी, पाटन
और अन्य भी कई जिनभवन... ।
गुरूदेव के आशीर्वाद से
कुछ बने कुछ बन रहे हैं,
इस तरह स्वयं शिवपथिक बन
औरों को भी पथ दिखा रहे हैं।
यदि गुरु को मार्ग दिखाने का राग नहीं आता ।
तो हमें राग-रहित तत्त्व कौन समझाता?
अनुभूत हुआ ज्ञानधारा को... कि
गुरु नाव नाविक गुरू, गुरु बिन तिरा न जाय।
गुरु-कृपा से प्रभु मिले, गुरु बिन मुक्ति न पाय॥
जैसा गुरू को लखा, सो ही लिखा
स्वर्ण-सम निरखते देखा
चन्दा-सा दमकते देखा।
सूरज-सम चमकते देखा
सुमन-सा महकते देखा;
क्योंकि स्व-पर कल्याण करते हुए भी
पर का कर्तृत्व भोक्तृत्व भाव नहीं
पर से एकत्व ममत्व राग नहीं,
जो होता है सो होने दो
ज्ञान को ज्ञाता रहने दो
इसी सूत्र के बल पर-
कर्तव्य करते हुए भी
गुरूवर अन्य पर अधिकार नहीं रखते
देह में रहते हुए भी
देह से ममकार नहीं धरते
पग-पग पर प्रसिद्धि पाते हुए भी
पुण्य का अहंकार नहीं करते;
क्योंकि
अध्यात्म योगी यतिवर जानते हैं कि
जो मुझे चाहिए वह सब मुझमें ही है,
अनंतज्ञान किसी ग्रंथों में नहीं
निज-ज्ञाता में ही है,
अनंतदर्शन किसी दृश्य में नहीं
स्वात्म-दृष्टा में ही है,
अव्याबाध सुख पर के भोगों में नहीं
शुद्ध चेतन के भोग में ही है,
अनंतवीर्य देह की अस्थि में नहीं
चिन्मय अस्ति शक्ति की व्यक्ति में ही है।
जो जगत को जाने ज्यादा से ज्यादा
भले ही मान ले दुनिया उसे ज्ञानी,
किंतु जो जान ले केवल अपने को
वही है सच्चा ज्ञानी।
ऐसे आत्मज्ञानी, सद्ध्यानी
आचार्य श्री जी महादानी, अपने शिवगामी चरणों से
चरैवेति चरैवेति' शब्दों को कर रहे सार्थक... ।
उधर समय भी निःशब्द,
अपनी चाल से चल रहा अनवरत…
इधर ज्ञानधारा भी अविरल बहती गयी
भू पर विद्यासिंधु की कहानी उकेरती गयी,
तूफानी हवाओं ने कई बार
धरा पर लिखे लेख को हटाना चाहा
पर वह हटा न पायी,
ज्ञान की टाँकी से टाँके अक्षरों को
मिटा न पायी,
संत के जीवन की कविता यह
मात्र पढ़ने या जानने की ही नहीं
वरन् स्वयं को पाने की प्रक्रिया भी है।
निज को पाना कहें या
स्व को जानना कहें, बात एक ही है।
ज्ञानधारा की कविता महज़ रचना नहीं
प्रमाण है उसके पास
कि गुरू को हर-पल निहारा है उसने
हर पल हर जगह से
निरख सकती उन्हें
हो गयी वह ऐसी मगन
साक्षी भाव से समझ सकती उन्हें
ऐसी धारा को सौ-सौ नमन्।
धारा के स्वच्छ ज्ञान जल में
झलकी संत की भावी परछाई
यद्यपि संत हैं विरत,
किंतु कभी प्रमत्त
कभी अप्रमत्त
कभी गुप्ति कभी समिति,
कभी प्रभु रूप
कभी चिद्रूप निरख कर
यो संख्यात हज़ार बार परिवर्तन कर,
पा रहे गुणस्थान अष्टम।।
क्षपक श्रेणी का सोपान प्रथम
अपूर्व-अपूर्व परिणामों का संवेदन कर ।
नवमें अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में जाकर
निवृत्त हो कषाय और वेद से
सूक्ष्मसाम्पराय में सूक्ष्म लोभ के उदय से
मोह राजा जीवित रहता यहाँ तक,
यह जानकर
प्रथम शुक्लध्यान के बल पर
सीधे पहुँचे क्षीणमोह गुणस्थान
हार गया मोह रिपु बलवान,
तभी द्वितीय शुक्लध्यान के प्रभाव से
शेष तीन घाति कर्म का घात करके
प्राप्त की अरहंत अवस्था,
घातिया कर्म से मुक्त दशा
अनंत चतुष्टय वान जयशील हो केवली भगवान।
यों तीन लोक के स्वामी पूज रहे उन्हें
पपीहे की भाँति दिव्य वचनामृत पी रहे
ज्ञानधारा ने सब देखा परछाई में यह
पूर्व में जो विद्याधर से हुए
'विद्यासागर यतिराज' ।
आज वे ही हो गये
पूर्ण ज्ञानसागर मुनियों के नाथ
देखकर अरहंत अवस्था
परमानंद से लहरों के बहाने
अर्घ्य चढ़ाकर प्रफुल्लित हो आयी।