परम पूज्य आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज ससंघ के सानिध्य एवं मुख्यमंत्री श्री शिवराजसिंहजी चौहान की उपस्थिति में गांधीजी और शास्त्री जी की "जन्म जयंती" के अवसर पर आयोजित भावों की निर्मल सरिता में अवगाहन करने आया हूँ इन पंक्तियों को जीवन में चरितार्थ करने पर ही केवल ज्ञान का मार्ग प्रशस्त होगा और में भी इसी मार्ग पर चलने का प्रयास कर रहा हूँ । उक्त उदगार पूज्य आचार्य श्री विद्यासागरज महाराज ने आज 1 ओक्टूबर को हबीबगंज में आयोजित पुजन कार्यक्रम में अपने प्रवचनों में व्यक्त किये ।
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पूज्य आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज ने जैन मंदिर परिसर हबीबगंज में आयोजित धर्मसभा में कहा कि संसार में आधी व्याधि रोग ,मानसिक रोग ,बौद्धिक रोग हर प्रकार के रोग हैं और उनकी चिकित्सा भी है ।जब आप भगवान को अर्घ समर्पित करते हो तो उसके अर्थ पर भी ध्यान दिया करो ।आप बोलते हैं क्षुधा रोग विनाशनाय परंतु आपकी क्षुधा हर पल बढ़ती ही जाती है ,शांत ही नहीं होती है ।अपने रोगों को लेकर आप संतों के पास भी जाते हो संतों के पास आपके तन की नहीं मन की ओषधि होती है और ये ओषधि आपको पूर्ण रूप से निरोगी कर देती है ।
पूज्य गुरुवर ने अपने आशीर्वचन में कहा कि हम आमंत्रण से जाते नहीं परंतु वृक्षों की भांति जो हमेशा खड़े रहते हैं सभी राहगीरों को छाया, फल, सुगंध,शीतलता, ठंडी बयार आदि देते हैं किसी को आमंत्रण नहीं देते बल्कि राहगीर स्वयं चलकर उनके समक्ष आश्रय लेने जाता है। आत्मा का कल्याण तभी होता है वृक्ष की भांति दूसरों को छाया के साथ साथ आश्रय प्रदान करने की भावना होती है।
उन्होंने कहा कि वीतरागी संत आमंत्रण और निमंत्रण से बहुत दूर रहते हैं। जिस तरह ट्रकों पर पीछे लिखा रहता है कि "फिर मिलेंगे" उसी
पूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ने हबीबगंज जैन मंदिर में आयोजित धर्मसभा में कहा कि अपने दृष्टी कोण को बदलने से और सही दिशा में पुरुषार्थ करने से ज्ञान को भी सही दिशा मिलती है।
आचार्य श्री ने कहा कि जब दृष्टि में दोष आता है तो एक साथ दोनों आँखों की जांच नहीं होती, एक एक करके जाँच करके नम्बर निकाला जाता है। दर्पण के माध्यम से अक्षर और नम्बर पढ़ने को कहा जाता है फिर उसके आघार पर दृष्टि दोष का आंकलन किया जाता है।
उन्होंने कहा कि जब हम चलते हैं तो दृष्टि पैरों की तरफ नही
पूज्य आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज ने कहा कि जिसकी जितनी कुब्बत होती है उससे उतना ही काम लेना चाहिए क्योंकि ज्यादा भार किसी के कन्धों पर डालना अच्छी बात नहीं है । भगवान् से यही प्रार्थना करना चाहिए कि हे भगवन हमने तो अपने जीवन डोर आपके हाथों में सौंप दी है अब आप अपनी ओर खींचो। जो श्रावक् अणुुब्रतों की ओर अनवरत खींचता चला जाता है वही अणुव्रती कहलाता है। जैंसे थोक व्यापारी के पास जाकर फुटकर व्यापारी अपना काम चला लेता है ,उसे उधार माल भी प्राप्त हो जाता है उसी प्रकार महावीर भगवान का जो तीर्थ का
पूज्य आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज ने कहा कि संयोग से ही नियोग होता है और फिर वियोग भी होता है। जीवन में दुःख और सुख दोनों बराबर आते रहते हैं न तो दुःख में घबराना चाहिए न सुख में इतराना चाहिए बल्कि हमेशा समता का भाव धारण करना चाहिए। जब भी आप संतों की शरण में जाओ अपना रोना लेकर मत जाओ बल्कि प्रसन्नता को लेकर जाओ।
उन्होंने कहा कि सौधर्म जैंसे बैभवशाली व्यक्ति के जीवन में भी संयोग और वियोग के क्षण आते हैं आप सब तो मनुष्य का दुर्लभ भव पाकर पुण्यशाली हो जो आपको वीतरागी परमात्मा की भक्त
आचार्य श्री के गृहस्थ जीवन के भ्राता महावीर प्रसाद जैन ने अपने उद्बोधन में कहा की जब हम स्कूल जाते थे तो हम दोनों एक ही सायकल पर जाते थे । हम नदी के किनारे के रहने वाले धर्मानुरागी हैं और आज पहली बार आचार्य गुरुवर के सामने बोलने का मौका मिला है मैं कृतज्ञ हो गया हू।
पूज्य आचार्य श्री ने कहा कि दो विधाओं में जब हम लक्ष्य तक पहुँचने का प्रयत्न करते हैं तो दोनों बिंदुओं को एक साथ लेकर चलना पड़ता है । दोनों दिशाओं को एक साथ लेना पड़ता है ।उत्थान और पतन दोनों की तरफ देखना पड़ता है । विज्ञान ऊपर
पूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ने कहा कि आज व्यक्ति को जो सुख प्राप्त हुआ है वो उसे न देखकर, उसे न भोगकर पडोसी के सुख को देखकर दुखी हो रहा है। किसी ने मकान बनाया और कम समय में सूंदर मकान बन गया तो उसका खुद का घर कितना ही सूंदर क्यों न हो उसके मन में ये भाव जर्रूर आते हैं की इसका मकान इतनी जल्दी और इतना सुन्दर कैंसे बन गया। ऐंसे ही दान के क्षेत्र में कुछ लोगों को दूसरों का दान देखकर ईर्ष्या के भाव उत्पन्न होते हैं और मन में मलिनता उत्पन्न होती है। यदि किसी ने दान दिया है और उस दान की अनुम
पूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ने कहा कि प्राशुक जल की एक निश्चित अबधि तक मर्यादा रहती है उसके बाद उसमें जीवों की उत्पत्ति हो जाती है। लौंग डालने से प्राशुक्ता की अवधि बढाई जा सकती है उसे जीव रहित बनाया जा सकता है। जल को उबालने से भी प्राशुक बनाया जाता है जो पीने योग्य हो जाता है। ठन्डे जल से संयम का ब्रत भंग होता है और पेट में भीतर जीवों की उत्पत्ति हो जाती है । ज्ञान के आभाव में अशुद्ध जल लेने से रोगों की उत्पत्ति होती है जो मानसिक रूप से भी लोगों को कमजोर बनाने में सहायक होती है ।हम ज
पूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ने कहा कि आज कृषि के क्षेत्र में हम जिस यूरिया का प्रयोग कर रहे हैं वह हमारी कृषि को कमजोर तो बना ही रहा है साथ ही हमारे स्वास्थ्य को भी नुक्सान पहुंचा रहा है। सरकार भी इस और ध्यान नहीं दे रही है ,सरकार आप स्वयं बनो और इस तरफ आप खुद ही ध्यान दो। सरकार विज्ञापन के माध्यम से बातें तो बहुत सी करती है परंतु सही दिशा की और सार्थक कदम नहीं उठा ती है। आज अपने बच्चों को हमें स्वयं ही सही शिक्षा का ज्ञान कराने की जरूरत है क्योंकि यदि भारत का भविष्य उज्जवल और सुरक्षि
विचारों को साकार किया जा रहा है ऐंसा लगता है हम सक्रीय होते जा रहे हैं विचारों के पैर नहीं होते परंतु जो संयोग होता है तो मूक भी बोलने लग जाता है ।
उन्होंने कहा कि पंगु व्यक्ति भी चलने लगता है , बुद्धिहीन व्यक्ति की बुद्धि भी चलने लग जाती है ,लोग संगीत की स्वर लहरियों में तल्लीन हो जाते हैं जब सम्यक दर्शन, ज्ञान, चारित्र की पूजन होती है। गुरुकुल परंपरा भारत की मूल संस्कृति का एक हिस्सा रहा है और पुनः इस संस्कृति को जागृत करने के लिए मंगल दीप प्रज्ज्वलित करने की आवश्यकता है। सूरज आस
पूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ने कहा कि जिस रास्ते का पता होता है उसी रस्ते पर चलने की आपकी आदत हो गई है अब एक नए रास्ते की तरफ आपको जाना होगा जो अपरिचित हो ,टेढ़ा मेढ़ा हो या सीधा हो बस सामने की तरफ देखकर चलते जाएँ इधर उधर देखने का उपक्रम न करें। समोशरण में 12 सभाएं होती हैं सभी प्रकार के देवों देवियों की अलग अलग व्यवस्था होती है सब अपने में व्यस्त रहते हैं ,मनुष्यों और मुनियों ,आर्यिकाओं की अलग अलग व्यवस्था रहती है इसी प्रकार धर्मसभा में अलग अलग व्यवस्था होती है तो कर्मसभा में आपको भी व
पूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के सानिध्य में कहा की ध्यान में समय का पता नहीं लगता आप सब ध्यान में आगे हैं आप अनादिकाल से ध्यान कर रहे हैं। ध्यान के करसन संसार मिलता है ध्यान से ही मुक्ति मिलती है। परिचित को छोड़ना है और अपरिचित से परिचय करना है । मन आपको एक घोड़े की तरह दौडाता है जिस तरह घोड़े की लगाम जैंसे कसेगे बैसे ही मन भागेगा। मन को साधने से ही साधना को मजबूत बनाया जा सकता है।
उन्होंने कहा की एक अवसर पर रावण मन्त्र सिद्धि के लिए 4-5 साथियों के साथ जंगल गए और एकाग्र होकर म
पूज्य गुरुवर ने कहा मोक्ष मार्ग बहार कम भीतर ज्यादा है। हमारी दृष्टि बहार की तरफ है जबकि अन्तर्दृष्टि की और जाने की जरूरत है। आगे देख सकते हैं परंतु पीछे नहीं देख सकते ऊपर भी नहीं देख सकते हैं। व्यक्ति यहां बहा सब जगह दृष्टि दौड़ाता रहता है । अपनी आत्मा में लींन होना ही ब्रह्मचर्य है क्योंकि आत्मा को ब्रहम् कहा गया है। फोटो लगाने के लिए या चस्मा लगाने के लिए फ्रेम लगानी पड़ती है। जिनके पास अनंत है हम उसे नमस्कार करते हैं क्योंकि बो उपाधि एक तरह से फ्रेम होती है । चित्रकार जब चित्र बनाता है तो हरे
पूज्य आचार्य श्री ने कहा की किंचित भी बाहरी सम्बन्ध रह जाता है तो साधक की साधना पुरी नहीं हो पाती है। निस्परिग्रहि नहीं बन सकता है तब तक जब तक आकिंचन भाव जाग्रत नहीं हो जाता। न ज्यादा तप होना चाहिए न कम बिलकुल बराबर होना चाहिए तभी मुक्ति मिलेगी। केबल धुन का पक्का होने से काम नहीं होता श्रद्धान भी पक्का होना चाहिए तभी काम पक्का होगा।
उन्होंने कहा कि क्षुल्लक को उत्क्रष्ट श्रावक माना जाता है परन्तु बह मुनि के बीच भी रहकर श्रावक ही माना जाता है। आवरण सहित है तो बह निस्पृही नहीं हो सकता
पूज्य आचार्य श्री ने कहा की संकल्प का रूप वडॉ विराट होता है जिससे सभी का कायाकल्प हो जाया करता है । दया का क्षेत्र में कार्य होना चाहिए । दया हमेशा जीवंत रहती है , माया के प्रति राग होता है परंतु दया तो धर्म का मूल होता है । जब दो आँखें दूसरी दो आँखों से मिलती हैं तो दया और करुणा के भाव जागृत होते हैं । कभी भी आवश्यकता से अधिक की अपेक्षा नहीं करना चाहिए जो चाहिए सब पुरुषार्थ से मिलता जायेगा । गौ माता कामधेनु होती है उसको हम दे क्या रहे हैं जबकि लेते ही जा रहे हैं और बो एक माँ की भांति मीठा दूध
तप और ध्यान जीवन के आवश्यक अंग होते हैं तपे बिना आत्मा कुंदन नहीं बन सकती है । उक्त उदगार पूज्य आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज ने आज तप धर्म के सन्दर्भ में आयोजित प्रवचन में व्यक्त किये।
आचार्य श्री ने कहा की हीरे का कण भोजन के साथ पेट में चला जाय तो मृत्यु का कारन बन जाता है जबकि ओषधि के रूप में जाय तो गुणकारी बन जाता है । तप सात्विक भाव से करते हैं तो परिणाम अच्छे होते हैं । दो प्रकार की साधना बताई गई है मृदु और कठोर । जीवन में दोनों प्रकार की साधना कर लेना चाहिए परंतु पूर्ण ध्यान
पूज्य गुरुवर आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज ने अपने प्रवचन में कहा की सत्य क्या है, संसार की कल्पनाएं असत्य हुआ करती हैं , द्रव्य का लक्षण सत्य होता है । स्वप्न जो साकार होते हैं उनका पूर्वाभास माहनआत्माओं को हो जाता है । 16 स्वप्न माता को दिखाई देते हैं और तीर्थंकर के आगमन का आभास हो जाता है । उनके आने के पूर्व ही भोर का उदय हो जाता है एक आभा सूर्य के आभाव में भी सत्य का प्रकाश बिखेरती है । महापुरुष के जीवन में भी इसी प्रकार की सत्य की आभा फूटने लग जाती है ,ऐंसा सत्य का प्रभाव होता है। ऐंसे ह
64 लब्धियां होती हैं और आपके पास छयोपसम्म लब्धि है । सम्यक दर्शन ,ज्ञान , चारित्र को प्राप्त करने बाला भव्य होता है और जो इससे वंचित है बो अभव्य है । कर्म के क्षय के उपरांत भी आप रहने बाले हो । भव्य कभी अभव्य नहीं हो सकते और अभव्य कभी भव्य नहीं हो सकते किन्तु अभव्य के पास भव्य होने की क्षमता तो है परंतु अज्ञान दशा के कारण बह भव्यता से वंचित रहता है। तत्व के आभाव में भी हमारा अस्तित्व रह सकता है कुछ ऐंसे तत्व भाव रहते हैं , उपयोग चैतन्य में होता है , नैमित्तिक सम्बन्ध में हमेशा आत्मा में रहने ब
पूज्य आचार्य श्री 108 विद्यासागरजी महाराज ने कहा क़ि माया से बचने का प्रयास करो क्योंकि माया की छाया पतन की ओर ले जाती है। जब छाया आपकी कहीं पड़ती है तो प्रकाशमान वो स्थान भी प्रकाश रहित हो जाता है इसी प्रकार माया की छाया से आपका प्रकाशित जीवन भी अंधकारमय हो जाता है।विक्रिया ऋद्धि सदुपयोग में लगती है तो दिन दूनी रात चौगुनी बृद्धि आपके जीवन में हो सकती है। अंधेरों से निकलकर उजालों की बात करो। देवलोक में कभी रात नहीं होती , थकावट नहीं होती परंतु वो धरती पर मनुष्यों को देखकर लट्टू हो जाते हैं । धरती
आचार्य श्री ने कहा की बड़ी बड़ी वस्तुएं होती है जो क्रेनें के माध्यम से उठाई जाती हैं । हिम्मत विश्वास और ताकत से ही दायित्व का भार उठाया जाता है । दायित्व दिया जाता है उसे जो सक्षम कंधे होते हैं , दायित्व का भार अनूठा होता है उसे ही दिया जाता है जो इस भरोसे को पूरा करने की सामर्थ रखता हो । जो जिसका रसिक होता है उसका पान आनंद के साथ करता है । आप सब दायित्व से न घबराएं अपने आदर्श पुरुषों को समक्ष रखकर कार्य प्रारम्भ करे । लोकतंत्र मैं जो लोक का हो जाता है उसके प्रति समर्पित हो जाता है बही लोकतंत्र
पूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ने अपने प्रवचनों में कहा की जिस वस्तु को प्राप्त करना है उस वस्तु को प्राप्त करने के लिए भूमिका बनाई जाती है। जैंसे आप लोगों को घी प्राप्त करना है और घी से आप अपरिचित हैं तो फिर उसका स्रोत्र खोजने का प्रयास करेंगे तब आपको उसकी जानकारी लगेगी। स्रोत पर आप पूरा विश्वास करेंगे तो उससे घी प्राप्त कर लेंगे, दूध स्रोत है और उस पर श्रद्धान करेंगे तो अवश्य घी प्राप्त कर पाएंगे।
ऐंसे ही मोक्ष मार्ग का स्रोत मनुष्य पर्याय है और वीतरागी धर्म है जिस पर श्रद
" जो आप प्राप्त करना चाहते हैं पहले आपको छोड़ना पड़ेगा क्योंकी त्याग से ही प्राप्ति सम्भव है " उक्त कथन आज पूज्य आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज ने कहा की स्वार्थ और निस्वार्थ ये जीवन के लिए दोनों आवश्यक है जैंसे जो श्वास आपने अपने स्वार्थ के लिए भीतर ली है उसे बहार छोड़ना ही पड़ेगा ऐंसे ही मोक्ष मार्ग में आप भरोसा रखो या न रखो परंतु बिना भरोसे के मोक्ष मार्ग प्रशस्त भी नहीं हो सकता ।राग के मार्ग को छोड़े बिना बैराग्य का मार्ग प्रशस्त नहीं होता , त्याग किसी बस्तु मात्र का करने से कुछ नहीं होगा राग द्
"नदी में बाढ़ आती है , बाढ़ उसे बोलते हैं जिसमें पानी का वेग होता है जिसमें सब कुछ बेहतर जाता है ।" उक्त उदगार पूज्य आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज ने कहा की बाढ़ के वेग में अच्छे अच्छे कुशल नाविक भी घबराया जाया करते हैं ,पानी के वेग में उशी दिशा में बहना पड़ता है नदी को हम कुशलता पूर्वक पार कर सकते हैं ऐंसे ही कर्मों का वेग है जिसमें हमको उसी की गति के अनुसार बहना पड़ता है । जब कर्मों का वेग धीमा होता है उस समय हम अपना पुरुषार्थ कर सकते हैं।
आचार्यों ने कहा है की जब भूख न लगी हो तो कि
पूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ने अपने प्रवचनों में कहा कि जैंसा हम प्रयोग करते हैं बैंसा योग होता जाता है ,भावों के साथ प्रयोग करने पर शुभ योग होता है । जीवन एक प्रयोगशाला है जिसमें नित नए प्रयोग किये जाते हैं , आनंद की अनुभूति प्रयोग के बिना नहीं होती है।
भक्ति का प्रयोग जीवन में सतत् चलता रहना चाहिए , परंतु भक्ति के प्रयोग में अपने साधर्मी बंधुओं का ध्यान भी रखना चाहिए । भक्ति की अंजुली किसी की छोटी हो सकती है ,किसी की बड़ी हो सकती है ,किसी की अंजुली ऊपर से छोटी है परंतु भा